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गद्यशैली : निवन्ध एवं आलोचना [ १४३ तो नही पड़ा । उनको जन्मभूमि बनने का दावा भारत के कई प्रान्त अवश्य कर रहे हैं । कुछ लोग कहते हैं- काश्मीरी थे, कुछ कहते है-दक्षिणी थे, कुछ कहते हैं -बगाली थे। अब इतने दिनों बाद बंगाल के नवद्वीपवालो ने कालिदास को अपनाने के लिए बड़ा जोर लगाया है। वहाँ के पण्डित कहते हैं, कालिदास की जन्म भूमि नवद्वीप ही है । उन लोगों ने इस विषय में बडे-बड़े व्याख्यान, अभी हाल में दे डाले हैं, कालिदाम के नाम पर सभाएं बना डाली हैं, पुस्तकालय भी उन्होंने उनके नाम पर खोल दिये हैं। अभी और न मालम, वे लोग क्या-क्या करनेवाले हैं। नदियावालों के इस उत्साह और उत्तेजना को देखकर कलकत्ते के संस्कृत-कॉलेज के अध्यक्ष डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण का आसन डोल उठा है। वे कालिदास की असली जन्मभूमि का पता लगाने के लिए मालवे की तरफ पधारे है। देखें, उनकी खोज का क्या फल होता है । कालिदास नवद्वीप के ठहरते है या मालवे के, या और कहीं के।"१
इमी आकार की अथवा इससे कुछ ही बड़ी रचनाओं का सर्जन द्विवेदीजी ने बहुत बड़ी संख्या मे की है। इन्ही में विषयों की विविधता तथा अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन भी किया । उन्होने अधिकांशतः ऐसे विषयों पर लेखनी उठाई, जिनमें न पाटकों की रुचि थी और न समझने की अभ्यस्त बुद्धि ही। यदि इनकी भापाशैली द्विवेदीजी गम्भीर और क्लिष्ट रखते, तो इन विषयों का हिन्दी-क्षेत्र में विस्तार नहीं होता। भारतेन्दु-युग से चली आ रही हलकी-फुलकी एवं व्यंग्यप्रधान मनोरंजक शैली के सामने इन अछूने विषयों पर लिखे गये गम्भीर निबन्धों को पाठक भला क्यो ग्रहण करते। इसलिए, द्विवेदीजी ने अपनी इस प्रकार की रचनाओं में अत्यन्त सरल भाषा को अपनाया और विषय का इस प्रकार प्रतिपादन किया कि वह अत्यन्त सरल एवं बोधगम्य हो गया । यह बोधगम्यता इस सीमा तक सामान्य स्तर की है, सहसा इन निबन्धों को साहित्येतिहास के द्विवेदीजी जैसे युगनिर्माता की रचना मान लेने में हिचक होती है। परन्तु, द्विवेदीजी ने विषय-प्रतिपादन की यही प्रणाली इन निबन्धों में अपनाई थी। फ्रांसिस बेकन के अंगरेजी निबन्धों का 'बेकन-विचाररत्नावली' के अन्तर्गत उन्होंने गाम्भीर्य से ओत-प्रोत शैली का प्रयोग कर उसकी अलोकप्रियता तथा दुरूहता का दृश्य देख लिया था। उस पुस्तक की भाषाशैली की उचस्तरीयता बेकन के भाव-गाम्भीर्य के साथ गठबन्धन कर साधारण योग्यता के पाठकों की समझ से बाहर हो गई थी । द्विवेदीजी ने इस तथ्य को लक्ष्य कर अपनी परवर्ती रचनाएँ अत्यन्त साफ और चलती हुई भाषाशैली में लिखीं। क्योंकि, वे जानते थे कि हम जिन लोगों के लिए लिख रहे हैं, उनमें साहित्यिक उच्च स्तर के गम्भीर भावों एवं शैली को समझने की क्षमता नहीं है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदीजी की निबन्ध-कला की इसी शैलीगत सुबोधता को लक्ष्य कर लिखा है :
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श' पृ० ९२-९३ ।