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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १३३
साहित्य के क्षितिज-विस्तार के साथ-ही-साथ लेखकों ने जीवन के सभी अंगों पर दृष्टि डालना प्रारम्भ किया।" ___ अभिनव शोधों के आधार पर द्विवेदी-युग की हिन्दी में निबन्धों का प्रारम्भ माननेवाले इन निष्कर्षों को अधिक मान्यता नहीं दी जा सकती है। ये मत सर्वमान्य नहीं, अतिवादी हैं। फिर भी, इनमें द्विवेदी-युग की महत्ता एवं हिन्दी-निबन्ध के विकास में इस युग के निबन्धकारों के विशिष्ट योग की झलक अवश्य मिलती है। हिन्दी में निबन्धों का प्रारम्भ भारतेन्दु-युग मे ही हुआ था, परन्तु द्विवेदी-युग में विषय-विस्तार, भाषा-परिष्कार एवं शैली-शृगार की दृष्टि से उसका पर्याप्त संस्कार हुआ । अपने युग की ममस्त साहित्यिक गतिविधियों के नेता आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने गद्यलेखन की इस विधा को भी ग्रहण किया था। उनके सम्पूर्ण कृतित्व की भॉति निबन्धी का भी अपना युगीन औचित्य था। उनके समय तक इस क्षेत्र मे विचार और भाषा की जो अव्यवस्था व्याप्त थी, उससे द्विवेदीजी अपरिचित नहीं थे। उनके समय तक के अधिकांश निबन्धकार निबन्ध-लेखन को कलम की कारीगरी मानकर उसे चमत्कारिता और भावात्मकता से इतना बोझिल बना देते थे कि प्रतिपाद्य विषय का अपेक्षित रूप में प्रतिपादन तक नहीं हो पाता था। इन निबन्धो की भाषा में तत्कालीन अराजकतापूर्ण वातावरण की सभी कमियाँ थीं। ब्रह्मदत्त शर्मा ने लिखा है : ___"भाषा की इस अव्यावहारिकता, अशुद्धता और शिथिलता को दूर करने के लिए द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' पत्रिका को अपना साधन बनाया, जिसके द्वारा उन्होंने अनेक लेखकों को साहित्य-रचना की ओर प्रेरित और प्रोत्साहित किया । इन लेखकों की कृतियो की आलोचना अथवा संशोधन करके तथा स्वयं भिन्न-भिन्न विषयों पर मौलिक एवं अनूदित विचारप्रधान निबन्धों की रचना करके इन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया।"२ ___ भारतेन्दु-युग तक हिन्दी-निबन्ध का जहाँतक विकास हुआ था, द्विवेदी-युग में उसी की प्रोन्नति हुई। भाषा-सस्कार एवं विषय-विस्तार की दृष्टि से द्विवेदीजी ने निबन्धों के इस विकास-क्रम को सहारा दिया। विषयों की विविधता, दृष्टि की सूक्ष्मता, बौद्धिकता एवं सुसम्बद्धता आदि उनके निबन्धो की विशेषताएं हैं। उनका निबन्ध-साहित्य मुख्य रूप से 'सरस्वती' के माध्यम से सामने आया है और इसी में प्रकाशित उनके निबन्धो का धीरे-धीरे पुस्तकाकार प्रकाशन भी होता गया है । द्विवेदीजी के प्रारम्भिक निबन्धो तथा आलोचना में अद्भुत समन्वय हुआ है। नैषधचरितचर्चा', 'हिन्दी-कालिदास को समालोचना' आदि उनकी प्रारम्भिक कृतियाँ उद्देश्य की दृष्टि से आलोचना होती हुई भी आकार की दृष्टि से निबन्ध ही हैं ।
१. डॉ० कृष्णलाल : 'आधुनिक हिन्दी-साहित्य का विकास', पृ० ३४९ । २. श्रीब्रह्मदत्त शर्मा : 'हिन्दी-साहित्य में निबन्ध', पृ० ७८ ।