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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १२३ व्याप्त हिन्दी-गद्य के पण्डिताऊपन, उर्दूपन, क्लिष्टता और आलंकारिता को दूर कर 'सरस्वती' के सामान्य पाठको के समय मे आसानी से समझ मे आ जाने योग्य भाषाशैली में उन्होंने अपने निबन्धों की रचना की। इस क्रम में वे प्रथम श्रेणी की पत्रकारिता का आदर्श स्थापित करने की दिशा में भी सचेष्ट रहे। डॉ. जेकब पी० जॉर्ज ने लिखा है :
"द्विवेदीजी का काल हमारी सार्वजनिक गद्यशैली का सुवर्ण-युग रहा है । उन्होंने उसे साधारण पत्रकारिता के स्तर से ऊपर उठाकर साहित्य के उदात्त धरातल के निकट पहुँचाया और अपने इस प्रयत्न में वे इस ओर भी सतत प्रयत्नशील थे कि अपना गद्य कहीं सार्वजनिक गद्यशैली की भूमिका को खो न बैठे।"१
सरल एवं स्पष्ट भाषा में लिखने का कार्य द्विवेदीजी स्वयं करते थे और अपने समय के अन्य साहित्यिकों को भी इसी सार्वजनिक शैली का ही अनुसरण करने की सलाह देते थे। उन्होंने कई स्थानों पर सरल एवं सहजबोध्य भाषा की अपील की है । यथा :
"लेखकों को सरल और सुबोध भाषा में अपना वक्तव्य लिखना चाहिए । उन्हें वागाडम्बर द्वारा पाठकों पर यह प्रकट करने की चेष्टा न करनी चाहिए कि वे कोई बड़ी ही गम्भीर और बड़ी ही अलौकिक बात कह रहे हैं ।....हिन्दी में यदि कुछ लिखना हो, तो भाषा ऐसी लिखनी चाहिए, जिसे केवल हिन्दी जाननेवाले भी सहज ही में समझ जायें ।"२ स्वयं द्विवेदीजी ने सार्वजनिक गद्यशैली का किस प्रकार निर्वाह किया था, इसका अनुमान उनके एक-दो गद्य-अवतरणों पर दृष्टिपात करके लगाया जा सकता है । भला इससे भी सरल भाषा हो सकती है ? ____ "वह कौन-सी वस्तु है, जो एक होकर भी अनेक है, कुछ न होकर भी कुछ है, निराकार होकर भी साकार है, ज्ञानवान् होकर भी ज्ञानहीन है, दूर होकर भी पास है, सूक्ष्म होकर भी महान् है...."3
ईश्वर-सम्बन्धी अध्यात्म जैसे कठिन विषय पर इतनी सरल भाषा में विवेचन द्विवेदीजी ने किया है। अपनी ऐतिहासिक टिप्पणियों में किसी स्थान का परिचय देते समय उनकी शैली विचित्र प्रकार से सरल दीख पड़ती है। जैसे सोमनाथ के मन्दिर के बारे में वे लिखते हैं :
"यह मन्दिर सोम, अर्थात् चन्द्रमा का था। उसके खर्च के लिए दस हजार गाँव लगे हुए थे। अनन्त रत्नों की राशियाँ मन्दिर में जमा थीं। बारह सौ मील दूर गंगा
१. जेकब पी० जॉर्ज ; 'आधुनिक हिन्दी-गद्य और गद्यकार', पृ०.१०९। २. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० ४६ । ३. 'सरस्वती', भाग ७, संख्या , पृ० ३२१ ।