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११६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
श्रीमतांवर, __ सागर के सम्मेलन में किये गये आपके इस अभिभाषण की एक कापी मुझे प्राप्त हुई। उस पर लिखा है - वक्ता का प्रेमोपहार । उपहार को मैंने सादर ग्रहण किया। इसके आरम्भ का श्लोक मुझे बहुत पसन्द आया। उसपर और उसके आगे भी जो दो श्लोक भागवत में इसी तरह के हैं, उनपर भी मेरी बड़ी भक्ति है। श्रीमद्भागवत मेरा सबसे प्यारा ग्रन्थ है।
अभिभाषण में पृ० १५ पर 'स्त्रियोपयोगी' शब्द खटकता है । जरा आप भी विचार कर लीजिए। अन्त के पद्यों की अन्तिम पंक्ति में 'करके' में 'के' अधिक जान पड़ता है।
प्रसन्न होंगे।
शुभानुध्यायी
महावीरप्रसाद द्विवेदी इसी प्रकार, अन्यान्य साहित्यकारों के नाम लिखे गये उनके पत्र में भी भाषा को सुधारने की सीख मिलती है । भाषणों की भी यही दशा है । स्पष्ट है कि हिन्दी-भाषा के संस्कार एवं परिष्कार का कार्य द्विवेदीजी ने बड़ी लगन और निष्ठा के साथ किया। उन्हीं के श्रम से हिन्दी-भाषा का वर्तमान व्याकरणसम्मत एवं परिमार्जित रूप निखरा है। डॉ० लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने ठीक ही लिखा है :
"उनका सबसे बड़ा कृतित्व यह है कि उन्होंने भाषा-सम्बन्धी एक नया प्रतिमान ही प्रस्तुत किया। भाव और भाषा, विषयवस्तु और उपादान, छन्द और रूप, गति और परम्परा की दृष्टि से साहित्य के क्षेत्र में अनेकमुखिता के कारण जो अव्यवस्था और अस्थिरता आई, उनके समग्र जीवन की तपस्या उसी को व्यवस्थित और सुचारु रूप देने में समर्पित हुई है।"
इस प्रकार. भाषा-सुधार एवं लेखक-निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों को जिस पदपर रहकर द्विवेदीजी ने सम्पन्न किया, वह सम्पादकत्व ही उनकी कीत्ति का मुख्य आधार कहा जायगा । वे अपने युग के शीर्षस्थ सम्पादक थे। आज भी उन जैसी प्रतिभा और परिश्रम से सम्पन्न दूसरा सम्पादक हिन्दी-जगत् को नहीं मिल सका है। द्विवेदीजी सम्पादन-कला के अप्रतिम आदर्श थे। उनकी सम्पादन-कला ने हिन्दी-संसार में आधुनिक पत्रकारिता का श्रीगणेश किया। 'सरस्वती' का बहुविध रूप-शृगारपूर्वक पाठकों के सब प्रकार से योग्य बनाने के लिए उसमें नाना विषयों का समावेश
१. सेठ गोविन्ददास : 'हिन्दी-प्रवर्तक', भाषा : द्विवेदी-स्मृति-अंक, पृ० ४४ । २. डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु : 'हिन्दी-साहित्य का बृहत् इतिहास', भाग १३,
पृ० २०।