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सम्पादन-कला एवं भाषा-सुधार [ ११५ पण्डितजी ने हमसे कहा कि इन्हीं दिनों में विशेषकर जब वह कुछ लिखते होते हैं, तब उनकी युवा पत्नी उनको बातचीत में लगाना चाहती है। यह पण्डितानी स्वरूपवान हैं और कुछ पढ़ी-लिखी भी हैं और वयस् में बहुत कम हैं। -गिरजादत्त बाजपेई । - इस अवतरण का संशोधन द्विवेदीजी ने इस प्रकार किया :
पण्डित और पण्डितानी "पण्डितजी की अवस्था करीब ४५ वर्ष की है और उनकी पत्नी की २० वर्ष की। पण्डितजी अँगरेजी और संस्कृत दोनों में विद्वान् हैं और कई पुस्तकें लिख चुके हैं। सप्ताह में दो-एक दिन उन्होंने समाचार-पत्र और मासिक पुस्तको के लिए लेख लिखने को नियत कर लिया है। विशेषकर इन्हीं दिनों में, अर्थात् जब वे कुछ लिखते होते हैं, तब उनकी युवा पत्नी उनको वातचीत में लगाना चाहती है। पण्डितानी स्वरूपवती है, और कुछ पढ़ी-लिखी भी हैं, उमर में बहुत कम हैं ही।
-जनवरी, १९०३ ई०, गिरिजादत्त वाजपेयी ऐसे संशोधनों से 'सरस्वती' का रूप-शृगार होता था। उस युग में वत्तनी की अशुद्धि साधारण बात थी। भाषा का परिमार्जन करने के लिए वर्तनी के शुद्धीकरण पर द्विवेदीजी ने विशेष ध्यान दिया । अपने संशोधनों द्वारा उन्होंने उस समय साहित्य-जगत् में पदार्पण कर रहे जिन साहित्यकारो की भाषा-शैली को सही मार्ग दिखाया, उनमें मिश्रबन्धु, काशीप्रसाद, प्रमथनाथ भट्टाचार्य, वेंकटेशनारायण तिवारी, कामताप्रसाद गुरु, गोविन्दवल्लभ पन्त, पूर्णसिंह, बाबूराव विष्णु पराड़कर, रामचन्द्र शुक्ल, वृन्दावनलाल वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, बदरीनाथ भट्ट, गणेशशंकर विद्यार्थी, श्रीमती बंगमहिला, रामचरित उपाध्याय, सूर्यनारायण दीक्षित, सत्यदेव, लाला पार्वतीनन्दन, काशीप्रसाद जायसवाल, लक्ष्मीधर वाजपेयी, गिरिधर शर्मा,सन्तनिहाल सिंह,माधव राव सप्रे आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस सूची के अधिकांश साहित्यकार परवर्ती काल में हिन्दी-साहित्येतिहान में अपनी प्रतिभा एवं भाषा-शैली के कारण ऐतिहासिक गौरव के अधिकारी बने । इन सबकी इस उन्नति का रहस्य द्विवेदीजी की उस लेखनी में था, जिसके द्वारा इनकी रचनाएँ संशोधित होकर क्रमशः प्रौढता को प्राप्त कर सकी थीं। द्विवेदीजी ने संशोधन द्वारा हिन्दी के तत्कालीन लेखक-समाज की वर्ण एवं शब्दगत लेखन-त्रुटियों, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय, लिंग, वचन, कारक, प्रत्यय, आकांक्षा, योग्यता, सन्धि, वाच्य आदि की व्याकरणगत त्रुटियों तथा विरामादि चिह्नों, अवच्छेदों, मुहावरों, पुनरुक्ति, जटिलता आदि अन्यान्य दोषों का परिहार कर हिन्दी के अनिश्चित स्वरूप को स्थिरता देने का ऐतिहासिक कार्य किया। भाषा को सुधारने का यह कार्य वे पत्रों-भाषणों आदि द्वारा भी किया करते थे । उदाहरण के लिए, सेठ गोविन्ददास के नाम लिखे गये उनके एक ही पत्र को उद्धृत करने से उनकी प्रबल भाषा-सुधारक प्रवृत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है :