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सम्पादन कला एवं भाषा-सुधार [ ११३ इस प्रकार, भाषादोष एवं उनमें सुधार के उदाहरण देकर द्विवेदीजी ने 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक उक्त निबन्ध में हिन्दी-भाषा की अन्यान्य त्रुटियों का भी निर्देश किया और उसे व्याकरणसम्मत बनाने पर बल दिया । इस क्रान्तिकारी निबन्ध ने समूचे हिन्दी - जगत् को चौंका दिया। पं० गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, श्रीधर पाठक, पद्मसिंह शर्मा आदि विद्वान् तो इस लेख पर मुग्ध हो गये । परन्तु कुछ लोग द्विवेदीजी के प्रस्तुत निबन्ध में दिये गये भारतेन्दु-सदृश महापुरुषों की त्रुटियों के उदाहरणों के कारण बड़े अप्रसन्न हुए। ऐसे लोगों में 'भारत मित्र' - सम्पादक बालमुकुन्द गुप्त अग्रणी थे । 'भाषा और व्याकरण' निबन्ध में प्रयुक्त 'अनस्थिरता' शब्द को लेकर क्रुद्ध गुप्तजी ने 'आत्माराम' के नाम से 'भारतमित्र' की दस सख्याओ में 'भाषा की अनस्थिरता' शीर्षक लेखमाला छापी । इस निबन्धमाला में गुप्तजी ने बड़ी सजीव और व्यंग्यपूर्ण शैली में द्विवेदीजी की समीक्षा प्रस्तुत की । यथा :
फिर हरिश्चन्द्र जैसा विद्याशून्य आदमी, जिसने लाखों रुपये हिन्दी के लिए स्वाहा कर डाले और पचासों हिन्दी के ग्रन्थ रच डाले, भला वह क्या एक पूरे पौने दो वाक्य का विज्ञापन शुद्ध लिख सकता था ? कभी नही, तीन काल में नहीं। छापेवाले कभी नहीं भूले, हरिश्चन्द्र ही भूला; क्योकि वह व्याकरण नही जानता था । न तो उसे कर्म के चिह्न 'को' का विचार था, न वह सर्वनाम की जरूरत की खबर रखता था । क्या अच्छा होता कि द्विवेदीजी का दो दर्जन साल पहले जन्म होता और हरिश्चन्द्र को अपने शिष्यों में नाम लिखाने तथा कुछ व्याकरण सीखने का अवसर मिल जाता । अथवा यही कि दो दर्जन वर्ष हरिश्चन्द्र और जीता, जिससे द्विवेदीजी से व्याकरण सीख लेने का अवसर उसे मिल जाता । "१
'आत्माराम' के इस प्रतिवाद का मुहतोड़ उत्तर गोविन्दनारायण मिश्र ने 'हिन्दी - वंगवासी' में प्रकाशित अपनी लेखमाला 'आत्मा की टें-टें' द्वारा दिया । इस भाषा विवाद में 'सुदर्शन', 'वेंकटेश्वर-समाचार' आदि पत्तों ने भी भाग लिया । सन् १९०६ ई० में द्विवेदीजी ने 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक अपने दूसरे निबन्ध में गुप्तजी तथा अन्य सभी आलोचकों की मान्यताओं का तर्कसंगत खण्डन किया। भाषा विवाद का यह झगड़ा वर्षों तक चला। इस झगड़े के फलस्वरूप सम्पूर्ण हिन्दी - जगत् का ध्यान साहित्य समीक्षा से हटकर भाषा - समीक्षा की ओर आकृष्ट हो गया । द्विवेदीजी यही चाहते थे । द्विवेदीजी के प्रयास से हिन्दी लेखकों में भाषा को लेकर सजगता व्याप्त हो गई । उस समय चल रहे विभिन्न विवादों में एक महत्त्वपूर्ण विवाद विभक्तियों को मूल शब्द से सटाकर अथवा हटाकर लिखने के प्रश्न पर चला । सटाऊवाद के समर्थक गोविन्दनारायण मिश्र, अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी आदि थे.
१. डॉ० रामविलास शर्मा : 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र', पृ० १७ पर उद्धृत |