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४० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
निर्मापितमिदं तस्याः स्वपल्याः स्मृतिमन्दिरम् । व्यथितेन महावीरप्रसादेन द्विवेदिना ॥ पत्युगृहे यतः सासीत् साक्षाच्छीरिव रूपिणी । पत्याप्येकादृता वाणी द्वितीया सैव सुव्रता ॥ एषा तत्प्रतिमा तस्मान्मध्यभागे तयोद्धयोः ।
लक्ष्मीसरस्वतीदेव्योः स्थापिता परमादरात् ॥ स्मृति-मन्दिर और धर्मपत्नी की मूर्ति बनाने के लिए उन्हें सब ओर से उपहास और तानों का पात्र बनना पड़ा। परन्तु, सच्चे पत्नीभक्त एवं आदर्श पति के रूप में द्विवेदीजी ने इन सबको सहा। पत्नी का वियोग उन्हें जीवन-भर सालता रहा। (ख) स्वाभिमान एवं निर्भयता: __ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के चारित्रिक विकास का एक प्रधान आधार यह भी था कि वे निर्भय आचरण करते थे और आत्मगौरव उनके भीतर कूट-कूटकर भरा हुआ था । अपने निजी पारिवारिक एवं साहित्यिक जीवन में सर्वत्र उन्होने स्वाभिमान और निर्भयता का परिचय दिया है । वे स्पष्टवक्ता और बड़े ही आत्मसम्मानी पुरुष थे । आत्मगौरव की रक्षा के लिए ही उन्होने डेढ़ सौ रुपये की मासिक आय ठुकराकर 'सरस्वती' की तेईस रुपये मासिक वृत्ति स्वीकार कर ली । नागरी-प्रचारिणी सभा से एक बार जब उनका सैद्धान्तिक मतभेद हुआ, तब बहुत समय तक उन्होंने सभा-भवन में पैर नहीं रखे । अपने आत्मगौरव पर तनिक भी आँच वे सहन नहीं कर पाते थे। दबना द्विवेदीजी की प्रकृति मे नहीं था । जो कुछ भी वे कहते थे, उसपर दृढ़ रहना भी वे जानते थे। उन्होंने किसी के समक्ष कुछ पाने की आशा से कभी अपना सिर नहीं झुकाया। दो टूक बात कह देने की जो नीति उन्होंने अपना रखी थी, उसके कारण लोग उनसे अप्रसन्न भी हो जाया करते थे। उनकी निर्भीकता एवं आत्मसम्मान की भावना ने लोगो के मन में यह धारणा उत्पन्न कर दी थी कि उनमें अकड़ एवं अहम्मन्यता है। परन्तु, वास्तविकता ऐसी नही थीं। वे घमण्डी एवं अकड़वाले नहीं थे। वे सरल हृदय के थे, खुलकर वार करते थे। भीतर-ही-भीतर मीठी छुरी चलाना वे नहीं जानते थे और इसी स्वभाव के कारण वे किसी के आगे नहीं झुके । स्वाभिमान एवं निर्भयता के इन गुणों के कारण उनके व्यक्तित्व में एक स्वाभाविक उग्रता अवश्य उदित हो गयी थी। इसी कारण, जहाँ कहीं भी उन्हें अपना निजी गौरव
। १. डॉ. उदयभानु सिंह : “महावीरप्रसाद द्विवेदी
पृ० ३६ पर उद्धृ त ।
और
उनका
युग',