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सम्पादन-कला एवं भाषा-सुधार [ १०५ गढ़े हुए कृत्रिम शब्दों का निर्माण करते जाते थे । जैसे जैनेन्द्रकिशोर ने अपने 'कमलिनी' उपन्यास में 'नाक बह रही है' के स्थान पर 'नासिका-रन्ध्र स्फीत' होना लिखा है। इसी तरह पं० रामावतार शर्मा ने तो द्विवेदी-युग में अँगरेजी के ऑक्सफोर्ड, केम्ब्रिज और लन्दन जैसे शब्दों को क्रमश: उक्षप्रतर, कामसेतु तथा नन्दन कहा है। इस प्रवृत्ति ने भावगत अगजता को और भी विस्तार दिया। भारतेन्दु-मण्डल के अन्य सदस्यों की भाषागत त्रुटियों की कौन कहे, स्वयं भारतेन्दुजी ने भी उठेंगे, बात, मिलेंगे, बोलेंगे, बेर भई, श्यामललाई, अधीरजमना, कृपा किया है, गृहस्थें, नाना-देश आदि अशुद्ध शब्दों एवं पदों का प्रयोग किया है। इसका भी पर्याप्त प्रभाव तत्कालीन भाषा पर पड़ा। भारतेन्दुजी की मृत्यु के बाद तो भाषा की अराजकता और भी व्यापक रूप धारण कर सामने आई। हिन्दी के कथित सेवियो में हठ एवं मिथ्याभिमान की इतनी वृद्धि हो गई थी कि उसका दुष्परिणाम उसी समय दृष्टिगोचर होने लगा और सब ओर भाषा की अव्यवस्था फैलने लगी। इस स्थिति में एक ही शब्द के कई रूप चल रहे थे, जैसे हुआ, हुवा हुया; जाएगा, जावेगा; भूक, भूख; इन्हें, इने; जिस पर; स्थिर; स्थायी, स्थाई; परन्तु, परंतु; काव्य, काब्य; बिचार, विचार आदि प्रयोगों को लेकर बड़ी अनेकरूपता सर्वत्र व्याप्त थी। वचन, लिंग एवं वाक्यरचना से सम्बद्ध अनेकानेक त्रुटियों से भाषा का स्वरूप बिगड़ा हुआ था। इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए भारतेन्दु-सदृश मित्रवत् सलाह देनेवालों को नहीं, आचार्य एवं गुरु के समान समसामयिक साहित्यिक गतिविधियों का नियन्त्रण करनेवाले की आवश्यकता का अनुभव उस समय किया जाने लगा। भाषा-सम्बन्धी इस अराजकता के सन्दर्भ में डॉ० शंकरदयाल चौऋषि ने ठीक ही लिखा है : ___ भिन्न-भिन्न प्रकृति के शब्दों, पदों तथा वाक्यों के स्वच्छन्द एवं अबाध प्रयोगों में न तो शब्दों की एकरूपता ही थी और न उसकी उचित व्यवस्था ही। व्याकरण के अंकुश के अभाव के साथ ही एक कठोर नियन्ता, चतुर समालोचक तथा दूरदर्शी शासक की अत्यधिक आवश्यता थी।' ___ हिन्दी-भाषा एवं साहित्य के ऐसे ही अराजकतापूर्ण वातावरण में आचार्य महावीर द्विवेदी का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने भाषागत अव्यवस्थाओं को दूर करने के लिए अथक परिश्रम किया और उन्हीं के प्रयत्न से एक ऐसी व्यवस्थित व्याकरणसम्मत और साहित्यिक भाषा का प्रसार हुआ, जिसमें गम्भीर एवं स्तरीय साहित्य का प्रणयन हो सकता था। श्रीसुरेन्द्रनाथ सिंह ने उनकी उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए बड़ी सच्ची बात कही है : १. डॉ० शंकरदयाल चौऋषि ; 'द्विवेदी-युग की हिन्दी-गद्य शैलियों का अध्ययन',
पृ० १३५।