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जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ५३ एक छात्रवृत्ति चलाई थी और यह शर्त रखी थी कि उनकी छात्रवृत्तियाँ काब्यकुन्ज ब्राह्मण छात्र को ही दी जायें । ब्राह्मणों के विरुद्ध कुछ भी सुनने पर वे आपे से बाहर हो जाते थे। इस प्रकार, धार्मिक दिशा में आडम्बरहीनता के पक्षधर होते हुए भी द्विवेदीजी ब्राह्मणत्व के गौरव का आजीवन वहन करते रहे । (त) ग्रामसुधार : ___ अपनी साहित्यिक उपलब्धियों तथा आचार्यत्व की गरिमा से द्विवेदीजी ने परवर्ती साहित्य-चिन्तकों की आँखें इतनी चौंधिया दी हैं कि लोगों को उनके व्यक्तित्व के अन्य किसी पक्ष का भान नहीं हो पाता है। उनके विशाल व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है-ग्रामसुधार । 'सरस्वती' से अवकाश पाने के बाद द्विवेदीजी अपने गाँव दौलतपुर में रहने लगे, तब से सरपंच के रूप मे किये गये उनके कार्य भारतीय पंचायतों के इतिहास में ग्राम-विकास की दृष्टि से बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । अपने गाँव की सफाई के लिए उन्होंने वहाँ एक भंगी को लाकर बसाया । गाँव में अस्पताल, डाकघर, मवेशीखाना आदि उन्होंने बनवाये । आमों के कई बाग भी उन्होंने लगवाये। उन्होंने इस बात का अनुभव किया कि अशिक्षित ग्रामवासियों को शिक्षित करके ही भारत का विकास हो सकता है । उन्होंने इस दिशा में प्रयास भी किये। वे सरपंच के नाते बहुत ही लोकप्रिय हुए थे; क्योंकि वे न्यायप्रिय तथा ग्रामसुधारक थे। उनका मृत्युदिवस, २१ दिसम्बर, १९३८ ई०, जिस भांति हिन्दी-साहित्य के लिए महान् शोक का दिवस है, उसी भाँति वह दिन पंचायतों तथा ग्रामसुधार के इतिहास में भी वज्रपात का दिन है :
__ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की इन विविध चारित्रिक एवं स्वभावगत विशेषताओं के समक्ष उनका बाह्य विशाल व्यक्तित्व सूक्ष्म-सा लगने लगता है और सुरसा-विजेता महावीर जैसा उनका अन्तर्व्यक्तित्व विराट् हो जाता है। डॉ० शंकरदयाल चौऋषि ने लिखा है : “अन्तर्व्यक्तित्व उनका सूक्ष्म होते हुए भी स्थूल तथा गहन था। नियमबद्धता, नियमितता और अनुशासन ने उनके जीवन को अत्यन्त कठोर, संयमशील
और कर्मठ बना दिया था। सत्याग्रह, प्रतिभा और गहन अध्ययन ने उनके स्वाभिमान को जागरित कर दिया था। महावीर की-सी सेवा-भावना, लगन, अगाध शक्ति , साहस, निरभिमानता, दृढता आदि गुण उन्हें अपनी पैतृक धरोहर तथा इष्टदेव के प्रसाद के रूप में प्राप्त थे। सीधा, सरल, स्पष्ट तथा स्वाभाविक व्यवहार उन्हें प्रिय था, इसके विपरीत टेढ़े और आडम्बरपूर्ण जीवन से घृणा थी। शिष्टाचार, विनम्रता, धैर्य और सादगी की वे प्रतिमूर्ति थे। सत्यनिष्ठा और गुणग्राहकता उनके जीवन की टेक थी। दान देना उनकी बान थी तथा आत्माभिमान थी उनकी शान । निर्भयता और