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तृतीय अध्याय द्विवेदीजी का सम्पूर्ण साहित्य
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिन्दी के युग प्रवर्त्तक लेखक और आचार्य के रूप में सर्वप्रतिदिन है । ऐसे ही मस्तिष्क की भगीरथ-शक्ति से संसार में नवीन विचारधाराओं को प्रवाहित करनेवाले महापुरुषों के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास ने 'ते नरबर थोड़े जग माही' की सम्भावना प्रकट की है । आचार्य द्विवेदी ने कई वर्षों के सतत परिश्रम से खड़ी बोली के गद्य और पद्य की एक सच्ची व्यवस्था की और दोनों प्रणालियों द्वारा पूर्व और पश्चिम की पुरातन और नूतन, स्थायी और अस्थायी ज्ञान-सम्पत्ति हिन्दी-संसार को मुक्त हाथों से वितरित की । हिन्दी-भाषा और साहित्य की सेवा में निमग्न उनके अनेक रूप मिलते है । भाषा शिक्षक, लेखक, सम्पादक, हिन्दी-भाषा - प्रचारक, भाषा-परिष्कारक, निबन्धकार, आलोचक, कवि, इतिहासकार आदि अनेक स्वरूपों में इस अनेकविध कर्म - पंखुड़ियों से युक्त महापुरुष के पारिजात को राष्ट्रभाषा के विशाल उद्यान में हम आज भी सौरभ बिखेरते हुए, प्रेरक एवं उत्साहवर्द्धक शक्ति के रूप में अनुभव कर सकते हैं । द्विवेदीजी को हम हिन्दी के अव्यवस्थित उद्यान की सुचारु व्यवस्था करनेवाले कुशल माली के रूप में ग्रहण कर सकते है । जंगली उपवन का मनचाहा विस्तार और प्राकृतिक रूप कितना ही मनोरम क्यों न हो, पर सुव्यवस्थित रमणीय उद्यान का प्रभाव सुसंस्कृत सभ्य नागरिक जनों पर कुछ और ही पड़ता है । और, यही कार्य आचार्य द्विवेदीजी ने नागरजनों के लिए हिन्दी का परिष्कार करके किया । श्रीपदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने लिखा है :
"यदि कोई मुझसे पूछे कि द्विवेदीजी ने क्या किया, तो मैं उसे समग्र आधुनिक साहित्य दिखलाकर कह सकता हूँ कि यह सब उन्ही की सेवा का फल है । कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जिनकी रचना पर ही महत्ता निर्भर रहती है । कुछ ऐसे होते हैं, जिनकी महत्ता उनकी रचनाओं से नही जानी जा सकती । द्विवेदीजी की साहित्यसेवा उनकी रचनाओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है । उनके व्यक्तित्व का प्रभाव समग्र साहित्य पर पड़ा है । मेघ की तरह उन्होंने विश्व ज्ञानराशि संचित कर और उसे फिर बरसाकर समग्र साहित्योद्यान को हरा-भरा कर दिया। वर्तमान साहित्य उन्हीं की साधना का सुफल है ।" "
१. 'आचार्य द्विवेदी' : सं० निर्मल तालवार, पृ० ११ ।