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आलोक में ही संघटित होता है । सम्पादक न केवल माहित्य का चिन्तक एवं विधाता होता है, अपितु उसके द्वारा समस्त समाज की विविध प्रवृत्तियों का समुचित. परिष्कार भी होता है । सम्पादक के ऐसे ही महान् एवं आदर्श उदाहरण के रूप में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की चर्चा की जा सकती है। वे हिन्दी के प्रथम सम्पादकाचार्य थे।
बीसवीं शती के प्रारम्भ के पूर्व जब आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी झाँसी में रेलवे की नौकरी कर रहे थे, तभी से तत्कालीन प्रकाशित होनेवाली हिन्दी-पत्रपत्रिकाओं में उन्होंने लेख आदि भेजना प्रारम्भ किया था। उनके भेजे गये वे सारे निबन्ध यत्र-तत्र पत्रिकाओं में स्थान पाते गये। उस समय साहित्यिक वातावरण इतना अधिक विस्तृत नही हो पाया था कि आज की तरह लेखक को स्थापित होने के लिए अथक संघर्ष और अविराम परिश्रम-वृत्ति को निमन्त्रण देना पड़े। द्विवेदीजी की प्रतिभा भी इस वातावरण मे चारों ओर अपनी सुगन्ध फैलाने लगी । उन्ही दिनों एक प्रतिभा सम्पन्न आयुप्राप्त लेखक लासा सीताराम ने महाकवि कालिदास की शकुन्तला की आलोचना तथा तत्सम्बन्धी साहित्य पर एक बृहत् ग्रन्थ का प्रकाशन कराया। संयोगवश वह पुस्तक द्विवेदीजी की आँखों के सामने से गुजरी और उक्त पुस्तक की न्यूनताओं के आधार पर उसकी कटु आलोचना 'सरस्वती' मासिक में प्रकाशित होने के लिए भेज दी। जब द्विवेदीजी के नाम से उक्त आलोचना छपी, तब कुछ लोगों ने उनके पास सहमति एवं असहमति-भरे पत्र भेजे । अन्ततोगत्वा आचार्य द्विवेदी की समीक्षोचित निर्भीकता ने 'सरस्वती' के मंचालक बाबू चिन्तामणि घोष को झकझोरा और घोष बाबू ने उन्हें 'सरस्वती' के प्रधान सम्पादक का पद ग्रहण करने का निमन्त्रण दे डाला। इसी के फलस्वरूप, सन् १९०३ ई० में वे 'सरस्वती' के सम्पादक बने और उस समय से सन् १९२० ई० तक उनका 'सरस्वती'-सम्पादन-कार्य न केवल जीविकोपार्जन का निमित्त बना, प्रत्युत उनके लिए यह अवधि साहित्य के हर पहलू पर जम. कर लिखने-सोचने की सर्वोत्तम कला प्रमाणित हुई । लगभय १८ वर्ष तक सम्पादनकार्य करने पश्चात् सन् १९३० ई० तक भी बुढ़ापे में वे कुछ-न-कुछ साहित्य-सेवा करते रहे। इस प्रकार, द्विवेदीजी ने लगभग ४० वर्षों से अधिक समय तक साहित्यसर्जन किया। इस दीर्घाकालावधि में उनका 'सरस्वती'-सम्पादन-काल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यही कारण है कि कई आलोचकों एवं इतिहास-लेखकों ने केवल उनके 'सरस्वती'-मम्पादनकाल को ही द्विवेदी-युग की संज्ञा दी है। इस सन्दर्भ में श्रीमार्कण्डेय उपाध्याय की अधोलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : ____ 'आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' के माध्यम से जो कार्य किया, वह हिन्दी-साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि है। जिस आस्था और विश्वास के साथ १८: