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सरस्वती की संख्या
१
2 x 2 9 is
२-३
४
५
६
७
कुल रचनाएँ
११
१५
ε
१२
१२
सम्पादन- कला एवं भाषा-सुधार [ ९९
अन्य लेखकों की
द्विवेदीजी की
१
१०
३
१२
१०
२
२
४
१३
१५
११
१२
७
१०
१७
११
१२
१३
६
परन्तु, 'सरस्वती' का जिस गति से प्रचार हो रहा था, उसी गति से उसमें अत्यधिक वैविध्यपूर्ण सामग्री की आवश्यकता भी बढ़ती गई । अकेला सम्पादक पूरी पत्रिका लिखकर कबतक 'सरस्वती' की सेवा कर सकता था । अतएव द्विवेदीजी ने भारत ही नहीं, विदेशों में स्थित भारतीयों में भी लेखन प्रतिभा की खोज शुरू की अनुरोध एवं प्रोत्साहन द्वारा उन्होंने हिन्दी में लेखकों की संख्या बढ़ाने का यज्ञ प्रारम्भ किया। डॉ० रामसकलराय शर्मा ने लिखा है :
1
४
३
५
१०
६
९
११
८
'होनहार की पहचान और उसको प्रोत्साहन प्रदान करने में द्विवेदीजी बड़े तत्पर रहते थे । आज हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ लेखकों में अधिकांश ऐसे हैं, जिन्हें द्विवेदीजी से लिखने का प्रोत्साहन मिला था। यदि न मिला, तो वे आज लेखक न होते । उन सबको इस क्षेत्र में खींचकर लाने का कार्य द्विवेदीजी ने किया था । ' उन्होंने जब 'सरस्वती' का सम्पादन अपने हाथों में लिया, वह पत्रिका का चौथा वर्ष था और ग्राहकों की दृष्टि से उसकी स्थिति अच्छी नही थी । ऐसे में प्रकाशक बाबू चिन्तामणि घोष के साहस एवं पत्रिका के सम्पादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की विद्वत्ता एवं परिश्रम के जोर ने उसे सँभाला । सन् १९०३ ई० में ही 'सरस्वती' की दूसरी-तीसरी संयुक्त संख्या में द्विवेदीजी ने 'हिन्दी भाषा और साहित्य' शीर्षक एक निबन्ध प्रस्तुत कर उसमें हिन्दी भाषियों के बीच अच्छे लेखकों की कमी का उद्घोष किया। इस क्रम में उन्होंने विश्वविद्यालय के पदवी धरों को भी उलाहना दिया है और महामान्य मदनमोहन मालवीयजी से भी निवेदन किया है - आप स्वयं हिन्दी में लिखा कीजिए और अपने प्रभाव के अधीन सबको हिन्दी को ही अपनाने को प्रवृत्त कीजिए।' इस उलाहने के जोर एवं 'सरस्वती' की चारों ओर सुगन्ध फैला रही - माधुरी के आकर्षण के कारण धीरे-धीरे उनके पास उस समय के अच्छे एवं प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाएँ 'सरस्वती' में प्रकाशनार्थं आने लगीं । राधाकृष्णदास, श्रीधर