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दवावृत्त एवं व्यक्तित्व [ ५१ साथ उन्होंने न केवल हिन्दी की विविध विधान लेखनी दौड़ाई, अपितु साहित्यिक इतिहास में अपना युगान्तरकारी मानदण्ड भी स्थापित किया। जिस भाँति उनकी प्रतिभा प्रखर थी, उसी भाँति औरों की प्रतिभा को परखने की अन्तर्दष्टि भी उनमें थी। उनमें साहित्यकारों की प्रतिभा को परखने की विलक्षण शक्ति थी। वे लेखकों की प्रारम्भिक रचनाएं देखकर ही उनके भविष्य के बारे में आश्वस्त हो जाया करते थे और होनहार साहित्यसेवियों को हर सम्भव प्रोत्साहन देते थे। अपने अनुरोध, प्रेरणा और प्रोत्साहन द्वारा वे लेखकों की प्रतिभा को जगाने का कार्य करते थे। उनका यह कार्य अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा है :
__ "द्विवेदीजी के ही उद्योग और प्रोत्साहन का परिणाम है कि श्रीमैथिलीशरण गुप्त ऐसे भारतप्रसिद्ध कवि, बाबू गोपालशरण सिंह ऐसे सत्कवि और पं० रामचरित उपाध्याय ऐसे पण्डित कवि हिन्दी में दिखाई पडे।"१ द्विवेदीजी के प्रोत्साहन एवं अनुरोध 'पर हिन्दी-साहित्य के सेवियों की जो सेना तैयार हुई, उसकी सूची बहुत लम्बी है। इसमें सन्देह नहीं कि द्विवेदीजी लेखकों की प्रतिभा भली भाँति परखते थे। इसी गुणग्राहकता को वे अपने जीवन में भी अमल में लाते थे। अपने उदार और उन्नत विचारों के कारण द्विवेदीजी ने गुणदोष-सम्बन्धी निजी विवेक सर्वदा परिष्कृत बनाये रखा। और, इसी गुणग्राहकता के आधार पर वे व्यक्तियों या संस्थाओं की समीक्षा. प्रशंसा करते रहे। (ड) संग्रहवृत्तिः
द्विवेदीजी की संग्रह-भावना भी सराहनीय थी। वे सभी पुराने कागजों, लिफाफों, पैकेटों की डोरियों, अखबार की कतरनों आदि को सँभालकर रखते थे और अवसर आने पर उनका उपयोग करते थे। आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा है :
"बण्डलों के अन्दर कागजों का सिलसिला देखकर आचार्य द्विवेदी के अपूर्व मंग्रहानुराग पर बड़ा ही आश्चर्य होता है । चिट्ठियो के लिफाफे, रजिस्ट्री और तार की रसीदें, अखबारों के रैपर और कटिंग सब सुरक्षित रखे हैं।"
वास्तव में, उनके जैसा संग्रही सम्पूर्ण हिन्दी-जगत् में दूसरा नहीं दृष्टिगोचर होता है। डॉ० उदयभानु सिंह ने भी लिखा है :
"काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा में सुरक्षित 'सरस्वती' के स्वीकृत और अस्वीकृत लेखों की हस्तलिखित प्रतियाँ, उनकी निजी रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियां;
१. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी : 'हिन्दी-साहित्य : बीसवीं शताब्दी', पृ० १। २. आचार्य शिवपूजन सहाय : 'शिवपूजन-रचनावली', भाग ४, पृ० १८१ ।