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जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ४१
बाधित अथवा अपमानित प्रतीत होता था, वे आपे से बाहर हो जाते थे । जब वे अपने मुहबोले भांजे श्रीकमलकिशोर त्रिपाठी की बरात में रेलयात्रा कर रहे थे, तब एक अँगरेज ने उनसे बड़े ही अपमानजनक शब्दों में द्वितीय श्रेणी का डिब्बा खाली करने को कहा। इसे द्विवेदीजी सहन नही कर सके। उन्होंने उक्त अँगरेज को अपने मिर्जापुरी डण्डे द्वारा उचित उत्तर दिया । उनके इस उग्र स्वभाव के प्रतीकस्वरूप एक फरसा उनके कमरे में टॅगा रहता था । श्रीव्यंकटेशनारायण तिवारी ने कदाचित् उसे ही देखकर द्विवेदीजी को 'वाक्शूर परशुराम'' कहा था । उनके स्वाभिमान एवं तज्जनित उग्रता के सन्दर्भ में उक्त प्रसंग की चर्चा की जा सकती है, जब द्विवेदीजी ने आवेश में आकर श्री बी० एन० शर्मा पर मानहानि का दावा कर दिया था । वास्तव में, शर्माजी ने २४ सितम्बर, १९०८ ई० और १ अक्टूबर, १९०८ ई० के 'आर्यमित्र' में द्विवेदीजी के सिद्धान्तों की बड़ी तीखी भाषा में आलोचना की थी और द्विवेदीजी ने इस आक्षेप को सहन नहीं कर पाने पर लेखक-प्रकाशक पर बीस हजार रुपयों के दावे की कानूनी नोटिस दे दी । रायदेवी प्रसाद 'पूर्ण' उनके वकील थे । परन्तु, श्री बी० एन० शर्मा एवं 'आर्यमित' के प्रकाशकों ने द्विवेदीजी के साथ क्षमा माँगकर सन्धि कर ली । इसी भाँति, काशी - नागरी प्रचारिणी सभा, एवं बाबू श्यामसुन्दरदास, श्रीबालमुकुन्द गुप्त और अन्यान्य कई विद्वानो के साथ द्विवेदीजी का सैद्धान्तिक एवं साहित्यक विषयों को लेकर मतभेद था । इस मतमेद को उनके स्वाभिमान ने भी खूब बढ़ावा दिया था । परन्तु इसके पीछे उनकी कोई बुरी एवं वैयक्तिक कटुता नही थी । वे साहित्य, भाषा और जीवन सभी को पवित्र एवं विकास - शील देखना चाहते थे । जहाँ कहीं उन्हें इसके विपरीत दृश्य दिखाई दिया, उन्होंने अंगुलि -निर्देश किया है । इसी को यदि कोई अकड़ और अहम्मन्यता की संज्ञा देता है, तो इस अकड़ और अहम्मन्यता की प्रत्येक युग के माहित्यसेवी में आवश्यकता मानी जानी चाहिए । यदि आचार्य द्विवेदीजी मे निर्भयता, आत्मगौरव और उग्रता की ये स्वभावगत विशेषताएँ न होती, तो वे अपने समसामयिक साहित्यकारों को डाँट फटकार कर हिन्दी भाषा और उसके साहित्य को एक नया मोड़ देने में समर्थ नहीं होते । (ग) क्षमाशीलता एव कोमलता :
द्विवेदीजी के स्वभाव में मिठास और तिक्तता, करुणा और कठोरता, दया और शेष तथा भावुकता और यथार्थ का एक अभूतपूर्व मेल था । वे जितने स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के थे, उतनी ही कोमलता तथा क्षमाशीलता भी उनमें थी । पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने द्विवेदीजी के व्यक्तित्व की इस विशदता एवं विषमता को सुन्दर शब्दों में विवेचित किया है :
१. 'सरस्वती', भाग ४०, संख्या २, पृ० २१५ ।