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४४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के लिए कभी नहीं भूलनेवाले व्यक्ति बन गये हैं। श्रीवृन्दावनलाल वर्मा ने उनकी भावुकता का एक संस्मरण इन शब्दों में प्रस्तुत किया है : ____ "सन् १९२२ ई० के लगभग जब विद्यार्थीजी (श्रीगणेशशंकर विद्यार्थी) पर रायबरेली में दफा ५०० का मुकदमा चला, मै भी पैरवी के लिए जाया करता था। एक दिन देखें, तो द्विवेदीजी कानपुर स्टेशन पर गाड़ी चलने के पहले आ गये। विद्यार्थीजी साथ थे। उन्हे द्विवेदीजी बहुत प्यार करते थे। मुझसे कहा : भैया वर्माजी, गणेशजी की पैरवी अच्छी तरह करना-आगे कुछ न कह सके। गला भर आया और आँखें छलक आई।"१ ।
आँखों के सजल हो जाने के अनेकानेक प्रसंग द्विवेदीजी के जीवनवृत्त में मिलते हैं। सम्बन्धियों के स्मरण-मान से उनकी आँखें भर जाती थी। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में जन्मस्थान दौलतपुर के स्मरण से द्विवेदीजी कितने भावविह्वल हो गये थे, इसका विवरण श्रीअमरबहादुर सिंह अमरेश ने किया है :
"... जीने के कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। डॉक्टर शंकरदत्तजी ने दुःखी मन से द्विवेदी जी से पूछा : 'क्या आप दौलतपुर जाना चाहते हैं ?' यह प्रश्न सुनते ही आचार्यजी के नयन छल छला उठे । शरीर मे रोमाच-सा हुआ। कुछ चेतना जगी। उन्होंने अपने शरीर की सम्पूर्ण पीड़ा समेटकर बहुत दृढ़ शब्दों मे उत्तर दिया : 'दौलतपुर में क्या धरा है, जो वहाँ जाऊँ । जो होना है, वह अब यहीं होगा। यह मेरे प्रस्थान का समय है।' उनके इस उत्तर से सभी का अन्तस् डोल उठा।"२
इस प्रकार, अपनी करुणा एवं भावुकता के द्वारा द्विवेदीजी ने अपने हदय की कोमलता एवं सहृदयता को प्रत्येक अवसर पर अभिव्यक्ति प्रदान की थी। (ङ) विनोदशीलता :
द्विवेदीजी के व्यक्तित्व एवं लेखनी से जिस गाम्भीर्य का बोध होता है, उसका अपना विशिष्ट परिवेशगत औचित्य है । उनकी मुखाकृति से ही विदित होता है कि उनमें गम्भीरता थी। परन्तु, इस गम्भीरता के पीछे उनका सरल एवं निष्कपट विनोदी मन अधिक समय तक छिपा नहीं रहता था। हास्य-विनोद में रुचि रखने की उनकी जो स्वभावगत विशिष्टता थी, उसका प्रकाशन उन्होंने कई अवसरों पर किया था। एक बार किसी ने उनसे कहा कि पण्डितजी, आज आपका चिन लिया जायगा । इसपर द्विवेदीजी ने सविनोद कहा- 'भाई, सच। मैं तो देहात का रहनेवाला हूँ। अगर, मुझे मालूम होता, तो कम-से-कम एक कोट का इन्तजाम कर लेता ।' इसी प्रकार,
१. श्रीवृन्दावनलाल वर्मा : 'सस्मरण', भाषा : द्विवेदी-स्मृति-अक, पृ० १८ । २. श्रीअमरबहादुर सिंह अमरेश : 'जीवन की सान्ध्य वेला में', उपरिवत्, पृ० ६४ ।