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जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ३१ दौड़ पड़ी । किवाड़ खोल दिये । श्रान्त सन्तप्त वत्स को अपने स्निग्ध आँचल की शीतल छाया में कसकर समेट लिया ।"१
इस परिश्रम से उपलब्ध होनेवाली शिक्षा को द्विवेदीजी ने पूर्ण एकाग्रता के साथ ग्रहण किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें 'डबल प्रोमोशन' भी मिला । परन्तु, अव्यवस्थित जीवन और परिवार की आर्थिक दुरवस्था के कारण उन्हें पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी । इस समय तक उनका विवाह हो चुका था ।
पढ़ाई छोड़ देने के बाद द्विवेदीजी अपने पिता के पास बम्बई चले गये । यहाँ उन्होंने गुजराती, मराठी, संस्कृत और अँगरेजी का थोड़ा-बहुत अभ्यास किया । जहाँ वे रहते थे, वहाँ पड़ोस में रेलवे में काम करनेवाले कई लोग रहते थे । उन्हीं के सम्पर्क एवं कहने में आकर द्विवेदीजी ने थोड़ी-सी टेलिग्राफी सीखी और रेलवे में नौकरी करने लगे । कुछ समय बाद उनकी बदली नागपुर हो गई । वहाँ उनका जी न लगा । उनके गाँव के कुछ लोग अजमेर के राजपुताना रेलवे के लोको सुपरिण्टेण्डेण्ट ऑफिस में क्लर्क थे । उन्हीं के सहारे वे अजमेर चले गये । वहाँ उन्हें पन्द्रह रुपये मासिक की नौकरी मिल गई । उन पन्द्रह रुपयों में से पाँच रुपये को अपनी माँ के पास भेजते थे, पांच रुपयों से अपना मास-भर का खर्च चलाते थे और शेष पाँच रुपयो में एक गृहशिक्षक रखकर विद्याध्ययन करते थे । परन्तु, अजमेर में उनका जी न लगा और वे पुनः बम्बई लौट आये। इस बार टेलिग्राफी का और भी ज्ञान प्राप्त करके वे जी०आई० पी० रेलवे में सिगनलर हो गये । उस समय वे केवल २० वर्ष के थे । तार बाबू के पद पर रहकर उन्होंने टिकट बाबू माल बाबू, स्टेशनमास्टर, प्लेटियर आदि के काम सीखे । फलतः, उनकी पदोन्नति और स्थान-स्थान पर बदली भी होती रही । इण्डियन मिडलैण्ड रेलवे के खुलने पर उसके ट्राफिक मैनेजर डब्ल्यू ० बी० राइट ने उन्हें झाँसी बुला लिया और टेलिग्राफ - इन्सपेक्टर बहाल किया । परन्तु इस पद पर दौरे से ऊबकर उन्होंने ट्राफिक मैनेजर के ऑफिस में बदली करा ली'। कुछ समय बाद उनकी पदोन्नति असिस्टेण्ट चीफ क्लर्क और फिर रेट्स के प्रधान निरीक्षक के रूप में हुई । जब आइ० एम्० रेलवे आइ० पी० रेलवे में मिला दी गई, तब तीसरी बार वे बम्बई कुछ दिन के लिए गये। लेकिन, जल्दी ही अनुकूल वातावरण न पाकर उन्होंने अपनी बदली झाँसी करवा ली । वहाँ के डिस्ट्रिक्ट ट्राफिक सुपरिटेण्डेण्ट के ऑफिस में चीफ क्लर्क रहे । इस पद पर रहने के पाँच वर्ष द्विवेदीजी ने बड़ी आत्मिक पीड़ा के बीच काटे । उन्हें दिन-रात काम करना पड़ता था । इसका कारण यह था कि उनके अँगरेज साहब सुरासुन्दरी के चक्कर में
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१. डॉ० उदयभानु सिंह : 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग', पृ० ३५ ।