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३४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
की अकालमृत्यु हुई, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ था । उनकी पत्नी विशेष सुन्दर नहीं थीं और हिस्टीरिया की मरीज थी, फिर भी उन्हे अपनी पत्नी से बड़ा प्रेम था । परन्तु, दुर्भाग्यवश उनके कोई सन्तान नहीं हुई । अपने परिवार का कोई उनकी आँखों के सामने नहीं रहा । दि० १२-८-३३ ई० को लिखे गये श्रीकिशोरीदास वाजपेयी के नाम एक पत्र में वे अपनी व्यथा अभिव्यक्त करते हैं :
“आपकी कौटुम्बिक व्यवस्था से मिलता-जुलता ही मेरा हाल है । अपना निज का कोई नहीं है । दूर-दूर की चिड़ियाँ जमी हुई हैं। खूब चुगती हैं । पुरस्कारस्वरूप दिन-रात पीडिन किये रहती है ।" १
परिवार की इस अभावात्मक स्थिति से ऊबकर उन्होंने श्रीकमलकिशोर त्रिपाठी को अपना कल्पित भाँजा बनाया । सन् १९०७ ई० में ही उन्होंने अपनी वसीयत कर डाली थी। उन्होंने अपनी माँ, सरहज और पत्नी के पालन-पोषण के लिए अपनी आय का क्रमशः तीस, बीस और पचास प्रतिशत निर्धारित किया था । परन्तु, इन सबके कालकवलित हो जाने पर चल सम्पत्ति का सर्वाश दान कर उन्होंने श्रीकमलकिशोर त्रिपाठी को अपनी अचल सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाया । अपने जीवन की सान्ध्य वेला में द्विवेदीजी शारीरिक दृष्टि से बड़े क्षीण एवं अशक्त हो गये थे। बुढ़ापा तथा जलोदर आदि रोगों के कारण अक्टूबर, १९३८ ई० तक उनका शरीर पर्याप्त कमजोर हो गया । अपनी उस समय की अवस्था का वर्णन उन्होंने रायबरेली के डॉक्टर शंकरदत्त अवस्थी के पास दिनांक २०-१० - ३८ को लिखे गये अपने अन्तिम पत्र में किया है :
'आपका तारीख ४ का कार्ड आज अभी सुबह मिला । मेरी हालत अच्छी नहीं है । अगर कमलकिशोर एक-दो दिन बाद आयें, तो उनके साथ कृपा करके चले आइए ।... दो हफ्ते से दलिया - तरकारी भी नहीं खा सका । एक भी ग्रास पेट में जाते ही कै हो जाती है। सुबह, दोपहर, शाम को जरा-सा दूध मुनक्के पड़ा हुआ ले लेता हूँ । वह भी बेमन । उसे भी देखते ही जी जलता है । जान पड़ता है, मुझे जलोदर हो रहा है । पहले दिन मैं ३-४ घूँट पानी पीता था । अब प्यास बहुत बढ़ गई है । पेट बेतरह फूला रहता है । बहुत भारीपन मालूम होता है । उठना-बैठना मुहाल है । चलना-फिरना बन्द है । पेट गड़गड़ाया करता है । पेशाब सुखं होता है । पाखाना ठीक-ठीक नहीं होता, लेटे रहने से कम, खड़े होने से तथा चलने-फिरने से पेट का भारीपन बढ़ जाता है । यहाँ के वैद्य कुछ नहीं कर सकते ।१२
१ - २. श्रीअमरबहादुर सिंह अमरेश : जीवन की सान्ध्य वेला में, 'भाषा' : द्वि० स्मृ० अंक, पृ० ६३ ॥