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३६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
उभरी और बटन बन्द थी । सिर पर कश्मीरी टोपी, आँखों पर निकिल फ्रेम का चश्मा, घुटनों से कुछ ही नीचे पहुँची धोती और पैरों में नागौरी जूते, हाथ में दमदार बेंत - अनामिका में एक बिना नग की सोने की सादी अँगूठी । द्विवेदीजी के चौड़े और उन्नत ललाट पर रेखाएँ उनकी कठोर तपश्चर्या और दृढ निश्चय के व्रत को व्यक्त करती थीं, तो उनकी घनी और नीचे पलकों तक को ढक लेनेवाली भौहे और उससे भी अधिक घनी और गहन - गम्भीर मूछे उनके व्यक्तित्व के प्रति भयमिश्रित श्रद्धा, जिसे अँगरेजी में 'आव' (AWE) कहते है, उत्पन्न करती थीं । उनकी आँखों से निकलता प्रखर तेज देखनेवालों को चकमका देता था । कुल मिलाकर द्विवेदीजी का व्यक्तित्व बैसवाड़ी कम, मराठी अधिक लगता था । यदि द्विवेदीजी के सिर पर पेशवाई पगड़ी और मस्तक पर श्रीवैष्णवों का तिलक होता, तो द्विवेदीजी और लोकमान्य तिलक मे सहज ही अभेदता सिद्ध हो जाती ।""
प्रस्तुत विवरण में द्विवेदीजी के व्यक्तित्व की भव्यता के साथ ही उनके व्यक्तित्व की एक अन्य विशेषता सादगी उभरी है। अपनी वेश-भूपा और रहन-सहन में द्विवेदीजी पर्याप्त सादगी बरतते थे । रेलवे की नौकरी और सम्पादन के आरम्भिक काल में वे देशी कपड़े का कोट - पतलून पहनते थे । बाद में साधारण मोटा धोतीकुरता, चार-छह आने की मामूली टोपी और चमरौधा जूता, बम यही उनकी वेश-भूषा बन गई । यह वेश उनके शरीर पर शोभा भी पाता था । उनकी यह अतिशय सादी वेश-भूषा बहुधा लोगों को भ्रम में डाल देती थी। एक बार श्रीकेशवप्रसाद मिश्र द्विवेदीजी से मिलने गये । उस समय आचार्य महोदय एक अमौवे की बण्डी और पण्डिताऊ कनटोप पहने बैठे थे । मिश्रजी ने उन्हें कोई ग्रामीण समझकर उन्हीं से द्विवेदीजी से मिलने की इच्छा प्रकट की । श्रीविश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक को भी कुछ ऐसी ही भ्रान्ति हुई थी। जब वे द्विवेदीजी से मिलने के लिए गये, तब द्विवेदीजी पैर लटकाये एक चारपाई पर बैठे हुए थे । उनके शरीर पर बण्डी, घुटनों तक धोती और पैर में खड़ाऊँ था । कोशिकजी ने उन्हें न पहचान कर उन्हीं से उनका पता पूछा । ऐसी गलतफहमियाँ लोगों को द्विवेदीजी की सादी वेश-भूषा के कारण हुआ करती थीं ।
वेश की ही भाँति द्विवेदीजी का आहार भी बड़ा सादा था । वे निरामिष भोजन किया करते थे । जीवन के अन्तिम वर्षों में तो दूध, साग और मोटा दलिया ही उनका एकमत आहार था । प्रारम्भ में वे पान - तम्बाकू खाते थे, लेकिन बाद में उन्होंने इन दोनों को ही छोड़ दिया । पहले वे चाय बहुत पिया करते थे, बाद में चाय का स्थान दूध ने ले लिया । भोजन और पहनने की सामग्री की भाँति उनके घर में नित्यप्रति काम में आनेवाली वस्तुएँ भी सादमी का ही वातावरण प्रस्तुत करती थीं । कुल
१. 'आचार्य द्विवेदी' : सं० निर्मल तालवार, पृ० १३ ।