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२४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अभिचन्द हैं। राजा साहब लंकाधिपति के भाई विभीषण हैं। राजा साहब इंगलिश मैन और पाइनीयर का सिविल मिलटरी गजट के जीव योग है...राजा साहब हिन्दूधर्म के नाश करने के लिए साक्षात् जैनमुनि है। राजा साहब हिन्दुस्तान की फूट के ताजे नमूने है।...विदेश क्या, राजा साहब यथार्थ ही शिव है और जैसे शिव के कण्ठ मे विष है, उसी प्रकार उनके कण्ठ मे विष है।... राजा साहब हिन्दुस्तान की उन्नति के प्रलय करने के लिए त्रिनेत्र, त्रिशूलधारी, महाकाल, विकराल, मुण्डमाल, सर्वा गपूरित व्याल, श्मशानवासी, अविनाशी शिव है ..!' स्पष्ट है कि इस निबन्ध का लेखक उच्च कोटि का व्यंग्यकार तो है, परन्तु समीक्षक नहीं । उसकी भाषा में अपनी अस्वस्थ प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्त करने की प्राणशक्ति तो है, पर ऐसी प्रतिक्रियाएँ निपट रूक्ष प्रतिक्रियाएँ ही कहीं जायेंगी, सत्समालोचना के लिए अनिवार्य सुचिन्तित विचार नहीं। वस्तुतः, तयुगीन पत्रिकाओ मे 'भारतेन्दु' का स्वर सबसे अधिक व्यंग्य-प्रधान है और इसकें निबन्ध हिन्दी के प्रचार के लिए सबसे अधिक आग्रही। सन् १८८३ ई० के छठे अंक में कहा गया है कि 'हमलोग हिन्दू है', 'हमारी भाषा हिन्दी है', 'हमारे अक्षर देवनागरी है'२, पर 'हिन्दी' शीर्षक टिप्पणी में कहा गया है कि 'सरकार कचहरियों में हिन्दी क्यो नही जारी करती ? सना है कि सरकार हिन्दी को असभ्य भाषा समझती है, क्यों न हो, जिममे व्याकरण, काव्य कोश, न्याय, वेदान्त, सांख्य, पातंजल, वेद-उपवेद, पुराण, इतिहास, वैद्यक, ज्योतिष, चतुष्षष्टि कला आदि की पुस्तकें एक हजार वर्ष से भी प्राचीन हो, वह परम असभ्य है। जो हिन्दी आधे से अधिक भारतवर्ष भर में व्याप्त हो, जिसे दस-बारह कोटि मनुष्य बोलते हों, वह महान् अप्रसभ्य है!!... वर्तमान रीति के अनुसार भी जिसमें सब विषय के दो-तीन हजार ग्रन्थ हों, चालीस से अधिक सम्बादपत्र छपते हों, प्रतिवर्ष सैकड़ों विद्यार्थी पास होते हों, वह असभ्यचूड़ामणि भाषा है !!... जिस भाषा में शब्दों का अक्षय भण्डार है...वह अस्पृश्य है अव्यवहार्य और असम्भाष्य है!!!"...3 'भारतेन्दु' में इस शीर्षक की अनेक टिप्पणियाँ मिलती है।
सन् १८८४ ई० में ही 'भारतेन्दु' में प्रकाशित 'स क्षिप्त समालोचना'४ से कतिपय सिद्धान्त निष्कर्षित होते है । प्रस्तुत समालोचना का लेखक सर्वप्रथम 'यूरोपियन पतिव्रता और धर्मशीला स्त्रियों के जीवन-चरित्र' के लेखक बाबू काशीनाथ खत्री का परिचय देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस लेखक के मतानुसार कलाकृति के सम्यक्
१. भारतेन्दु, १० सितम्बर, १८८३ ई०, पृ० ८५ । २-३. उपरिवत्, १० मई, १८८४ ई०, पृ० २० । ४. भारतेन्दु, पु० २, अंक ९-१२, सं० १८८४-८५, पृ० १२९ ।