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द्विवेदी युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ २३ समीक्षा लिखते हैं । प्रभाववादी समीक्षकों का 'ध्येय विश्लेषण या अन्तः प्रवृत्तियों की गवेषणा नहीं होता । किसी ग्रन्थ अथवा कृति को पढकर इनके मन पर जैसा प्रभाव पड़ता है, उसको वैसा ही अंकित कर देना इनकी विशेषता है । यह ' . आलोचना अपने मूल रूप में फैशनेबल है और एक अत्यन्न संस्कृत रुचि और सूक्ष्म कोमल पकड़ की अपेक्षा करती है, तभी लेखक की धारणाएँ विश्वामयोग्य और क्रान्तिमान् हो सकती है, तभी उनका महत्त्व है । यह तो स्पष्ट ही है कि इस प्रकार की आलोचना अपने सुन्दरतम रूप में भी गहन, साग एवं क्रमबद्ध नही हो सकती, पाठक की उत्सुकता को जागरित करने के अतिरिक्त उसके ज्ञान में विशेष परिवृद्धि नहीं कर सकती, साथ ही इसमें निष्कपट मत- प्रदर्शन ही सब कुछ है, अतः ईमानदारी की भी बड़ी जरूरत है । ' भारतेन्दु-युग की परिचयात्मक समीक्षाएँ गहन और मांग न होकर तलोपरिक हैं और उनका लक्ष्य मत- प्रदर्शन ही अधिक दीखता है । परन्तु, साथ ही उनमें प्रभूत निष्कपटता भी मिलती है ।
सन् १८७९ ई० में, ‘सरसुधानिधि' में 'धातुशिक्षा' नामक पुस्तक की समालोचना न तो गम्भीर है और न तो सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से उपयोगी ही । इस समालोचना के अनुशीलन से इस तथ्य पर प्रकाश अवश्य पड़ता है कि समालोचना की दृष्टि से कला तभी उपयोगी होती है, जब वह शिक्षाप्रद हो । लेखक को इस बात से प्रसन्नता हुई है कि 'धातुशिक्षा' का उद्देश्य 'यह है कि स्त्रियाँ इसको पढ़कर अपनी रक्षा और अपनी सन्तान की रक्षा करने में समर्थ हों । २ ' धातुशिक्षा' के अनुवाद की गर्हणा भी इसकी भाषा को लोकहित की कसौटी पर परख कर की गई है। और कहा गया है कि अनुवादक ने 'प्रसूति और धातु के प्रश्नोत्तर की रीति से और अति खुलासा भाषा में लिखकर ऐसा अश्लील कर दिया है कि स्त्रियों को तो क्या पुरुषों को भी पढ़ते लज्जा आती है ।' पाठक ! देखिए इसके विषय सब कैसे उत्तम और उपकारी हैं, परन्तु लिखावट कैसी जघन्य अश्लील हुई है । . ..
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कही-कही लेखकों की आलोचना बड़े ही तीखे और मर्मस्पर्शी व्यंग्य का रूप ले लेती है और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन न होकर आत्मनिष्ठ प्रभावाभिव्यंजन बन जाती है । सन् १८८३ ई० में 'राजा शिवप्रसाद कौन हैं' शीर्षक एक निबन्ध में कहा गया है कि 'राजा साहब कन्नौज के राजा जयचन्द है ।' राजा साहब मुर्शिदाबाद नाशकारी
१. डॉ० नगेन्द्र : 'विचार और अनुभूति', दिल्ली, सन् १९३४ ई०, पृ० ६१ । २. 'सारसुधानिधि', ४ अगस्त १८७९ ई०, पृ० ३५३ ।
३. उपरिवत् ।