________________
द्विवेदी-युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ २७.
भाषा की असीम शक्ति के प्रदर्शन और सटीक प्रयोग की जैसी पद्धति द्विवेदीजी ने अपनाई, उसी को उनके सम-सामयिक मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, हरिऔध, राय देवीप्रसाद पूर्ण, रूपनारायण पाण्डेय आदि अन्य कवियों ने भी ग्रहण किया। द्विवेदी-युग की काव्यगत विशेषताओं के सन्दर्भ में डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त की निम्नांकित पक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
"जिस प्रकार इण्डियन नेशनल कॉगरेस में तिलक एवं गोखले के स्थान पर महात्मा गान्धी के आ जाने से उसकी कार्य-पद्धति में थोड़ा अन्तर आया, किन्तु उसका मूल लक्ष्य अपरिवर्तित रहा, ठीक उसी प्रकार साहित्य में महावीरप्रसाद द्विवेदी के आगमन ने भारतेन्दुयुगीन रचना-पद्धतियों एवं काव्यभाषा में परिवर्तन किया, किन्तु उसका मूल लक्ष्य वही रहा।"१
भारतेन्दु-युग में कविता के अन्तर्गत आदर्शवाद का जैसा बोलबाला था, द्विवेदीयुग में उसी को अधिक पल्लवित किया गया। उसका स्वरूप कुछ और निखर अवश्य. गया। सच पूछा जाय, तो काव्यगत स्वरूपों और काव्यदृष्टियों की कसौटी पर सम्पूर्ण द्विवेदी-युग एक व्यापक प्रयोगशाला है। एक ओर नवजागरण के अनुरूप खड़ीबोली मे नई छन्दोयोजना एवं शब्दयोजनाओं के प्रयत्न इसमें मिलते है और दूसरी ओर युगीन परिस्थितियों से प्रभावित होकर अतीतोन्मुखी इतिवत्तात्मकता का प्राचुर्य भी मिलता है। वस्तु-व्यंजना की दृष्टि से अपनी इन विशेषताओं से पूरी तरह मण्डित होने के पीछे द्विवेदीयुगीन विभिन्न स्थितियाँ ही थीं। श्रीसच्चिदानन्द वात्स्यायन ने लिखा है :
"द्विवेदी-युग की परिस्थितियाँ और समस्याएँ आरम्भिक युग से भिन्न थी। हिन्दी के प्रतिमानीकरण का कार्य अभी पूरा न हुआ था, पर खड़ीबोली की प्रतिष्ठापना के विषय में कोई द्विधा न रही थी। इसी प्रकार, यद्यपि भारतीयता के स्वरूप की कोई सामान्य और सर्वसम्मत अवधारणा अभी नहीं हो सकी थी, तथापि उसकी अस्ति के बारे में कहीं कोई सन्देह नहीं रह गया था।"२
इस कारण, द्विवेदी-युग के कवियों ने जिस जोश के साथ खड़ीबोली को अपनाया, उसी तन्मयता के साथ आदर्शवाद पर आश्रित अतीतोन्मुखी इतिवृत्तात्मकता को भी स्वीकार किया। पद्य की ही भाँति गद्य के क्षेत्र मे भी आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने खड़ीबोली की रूप-प्रतिष्ठा की। यह महत्त्वपूर्ण कार्य उस समय तक नहीं
१. डॉ. गणपतित्रन्द्र गुप्त : 'हिन्दी-साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास', पृ० ६३७ । २. श्रीसच्चिदानन्द वात्स्यायन : 'हिन्दी-साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य',
पृ० ५४ ।