Book Title: Tulsi Prajna 1997 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJÑA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal अनुसंधान-त्रैमासिकी पूर्णाङ्क-१०३ संपादक परमेश्वर सोलंकी रस मारमा भाग-२३, अंक-३ : अक्टूबर-दिसम्बर, १९६७ ई० जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनू-३४१३०६ Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun-341306, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तुलसी प्रज्ञा--पचीसवीं वर्षगांठ मार्च, सन् १९७३ में अनुसंधान-पत्रिका के प्रवेशांक के रूप में शुरू हुई इस शोध पत्रिका को सन् १९७५ में 'तुलसी प्रज्ञा'-नाम मिला और निरन्तर प्रकाशित-प्रसारित होते हुए वर्तमान अंक-१०३ (भाग २३ के तीसरे अंक) के साथ यह अपने पचीस वर्ष पूरे कर रही है । एतदर्थ पाठक और लेखकों के प्रति सादर आभार ! . डॉ० महावीरराज गेलड़ा, जो 'जैन विश्व भारती संस्थान' के प्रथम कुलपति और राजस्थान सरकार में महाविद्यालय शिक्षा निदेशक पद से सेवामुक्त और वर्तमान में 'राजस्थान राज्य भारत स्काउट व गाइड'– संस्थान के राज्य-सचिव हैं, इस शोध पत्रिका के प्रथम संपादक रहे हैं। इस अवसर पर प्राप्त उनका पत्र कतिपय अन्य पत्रों के साथ अविकल रूप नीचे प्रकाशित किया जा रहा है। 'प्रिय श्री सोलंकीजी, जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा त्रैमासिक अनुसंधान-पत्रिका का प्रकाशन १९७३ में प्रारंभ हुआ था और मैं इसका प्रथम संपादक था। दो वर्ष बाद सन् १९७५ में यह पत्रिका 'तुलसी प्रज्ञा' के नाम से जैन विद्या के अध्येताओं को प्रस्तुत की गई। संपादन की निरन्तरता, मेरी बनी रही। इसमें केवल शोध लेख ही प्रकाशित होते थे और गुरुदेवधी तुलसी की दृष्टि इसे सींच रही थी, अतः यह पत्रिका शोध क्षेत्र में रामाणिक मानी जाने लगी और अन्य शोध लेखों में इसका उद्धरण होना प्रारम्भ हो गया। जैन विद्वान् दलसुख मालवणियाजी ने अहमदाबाद से लिखा था- भाई श्री गेलड़ाजी, तुलसी प्रज्ञा मासिक अंक मिला। संशोधक के रूप में सामग्री उच्च कोटि की है। यह पता नहीं लगा कि यह नियतकालिक है या अनियतकालिक । आपके उत्साह के लिए धन्यवाद ।" यह पत्रिका अपने उतार चढ़ाव देखती हुई आज पचीस वर्ष पूरे कर रही है। इसकी मुझे प्रसन्नता है । जैन विश्व भारती संस्थान से त्रैमासिक निकलने वाली यह पत्रिका अपने उच्च स्तर को बनाए हुए है, इसमें डॉ० परमेश्वर सोलंकी का परिश्रम अभिनन्दनीय है।" २. डॉ. धर्मचन्द जैन, अध्यक्ष, प्राच्यविद्या विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र जो वहीं से प्रकाशित 'प्राची ज्योति'-डाइजेष्ट ऑव इण्डोलोजिकल स्टडीज के संपादक भी हैं, लिखते हैं। “आदरणीय सोलंकीजी, 'तुलसी प्रज्ञा' बराबर नियमित मिल रही है। उत्तम पत्रिका है कुछएक अपने विचार लिख भेज रहा है। तुलसी प्रज्ञा' में प्रकाशित आलेखों को Summaries हम यहां अपने Digest' प्राची ज्योति' में निकालते हैं। “जैन कर्म एवं दर्शन से सम्बद्ध देश एवं विदेशों में मासिक, त्रैमासिक, पाण। मासिक एवं वार्षिक लगभग २०० पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं किन्तु शोध । प्रविधि की ओर उन्मुख बहुत कम ही पत्रिकाएं दृष्टिगोचर होती हैं । जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं से प्रकाशित 'तुलसी प्रज्ञा' अनुसंधान के क्षेत्र में सर्वोत्तम पत्रिका है जिसमें प्राच्य विद्या की विविध विधाओं को लेकर भारतीय एवं वैदेशिक विद्वानों के अमूल्य खोजपूर्ण आलेख प्रकाशित होते हैं जो शोधार्थियों के लिए ही नहीं, भारतीय विद्या में निष्णात प्रौढ़ विद्वानों के के लिए भी अत्यन्त उपादेय हैं। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे सत्प्रयासों का अभिनंदन किया जाना चाहिए।" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा : अनुसंधान त्रैमासिकी Tulsi Prajñā-Research Quarterly पूर्णाङ्क १०३ संरक्षक प्रो० भोपालचन्द लोढ़ा कुलपति सम्पादक-मंडल प्रो० दयानन्द भार्गव प्रो० टी. एम. वक डाँ० बच्छराज दूगड़ डॉ० जगत्राम भट्टाचार्य डॉ० जे. पी. एन. मिश्रा सम्पादक परमेश्वर सोलंकी मारभाषा के स ' जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय ) लाडनूं ३४१ ३०६ ( राज०) भारत Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Vishva-Bharati Institute Research Journal Vol. XXIII October-December, 1997 No. 3 Editor PARAMESHWAR SOLANKI Articles for Publication must accompany with notes and reference, separate from the main body. The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the INSTITUTE agree with them. Editorial enquiries may be addressed to : The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladnun-341 306 (INDIA). © Copyright of Articles, etc. published in this journal is reserved. Annual Subs, Rs. 60/ Rs. 20/ Life Membership Rs. 600/ Published by Dr. Parmeshwar Solanki for Jain Vishya-bharati Institute Deemed University, Ladaun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Pross, Ladoun-341 306, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका/Contents २६९-२७६ २७७-२८४ २८५-२९२ २९३-२९८ २९९-३०४ ३०५-३१० १. संपादकीय-'अहिंसा' बनाम मानव-प्रशिक्षण परमेश्वर सोलंकी २. अष्टमांगलिक चिह्न और उनके सामूहिक अंकन ए. एल. श्रीवास्तव ३. जैन आगम एवं गीता में समत्व का स्वरूप समणो स्थितप्रज्ञा ४. उपनिषदों में जैन धर्म सुभाषचन्द्र सचदेवा ६. बौद्ध, जैन और वैदिक परम्परा में शील की अवधारणा विनोद कुमार पाण्डेय . ६. 'अहिंसा के विकास में भगवान पार्श्वनाथ का योगदान वीणा जैन ७. 'पंचसमिति'--एक संक्षिप्त निरूपण संगीता सिंघल ८. जैन समाज का भक्ति-संगीत जयचंद्र शर्मा ९. 'अथ'- एक अर्थ विश्लेषण वजनारायण शर्मा १०. जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? सागरमल जैन ११. जैन स्थापत्य के तीन भव्य जैन मंदिर परमेश्वर सोलंकी १२. १ को वै पुरूषस्य प्रतिमा प्रतापसिंह १३. भट्टोत्पल : समय और रचनाएं वेद प्रकाश गर्ग १४. आगम सूत्रों की वर्तमान भाषा समणी चिन्मयप्रज्ञा १५. पुस्तक-समीक्षा ३११-३१४ ३१५--३२४ ३२५-३४८ ३४९-२५२ ३५३ -३५८ ३५९-३६६ ३६७-३७४ ३७५-३७८ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97-102 103—110 111=114 115--120 English Section [ 1. What is Yoga ? Chandramouli S. Naikar 2. On Prastara and Number of Srutajnanksara of Nemichandra Dipak Jadhav Anupam Jain 3. Vijay Yantra Rape Vallabh Somani 4. A Note on the places and characters occuring in the Raya Pasenijjasuyam and Payasirajan asutta Rajesh Ranjan 5. A Note on Dictionary making in Prakrit Jayant Tripathy 6. Somc medicinal Herbs used in the Vedic Age B.K. Misbra 7. Sustainable Development for Harmonious society B.R. Dogar 8. The Development Dilemma Musafir Singh 9. Book-Review 121-132 133-136 137-144 145–150 151 - 152 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय 'अहिंसा' बनाम मानव-प्रशिक्षण पुढवि न खणे न खणावए सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं तं न जले न जलावए जे से भिक्खू ।। अर्थात् पृथ्वी का खनन करना और कराना हिंसा है। शीतोदक पीना और पिलाना हिंसा है । शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को जलाना और जलवाना हिंसा है। जो इस हिंसा से उपरत रहता है, वह भिक्षु है। भगवान् महावीर की इस वाणी से बोध-पाठ लें तो मानव-जीवन में 'अहिंसा' का प्रभाव हो सकता है । गणाधिपति गुरुदेव तुलसी ने इसके लिए 'अहिंसा-प्रशिक्षण' की बात कही थी। उनका कहना था-"मैं जहां तक समझ पाया हूं, अहिंसा का प्रशिक्षण कठिन है फिर भी इतना कठिन नहीं कि उसे कोई पा नहीं सकता। मूल बात है आस्था की । पहले इस आस्था का निर्माण होना जरूरी है कि अहिंसा एक शक्ति है । अभ्यास से उस शक्ति को पाया जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है और उसका उपयोग किया जा सकता है।' इस प्रशिक्षण की कठिनाइयों को बताते हुए गुरुदेव ने स्पष्ट किया कि - 'अहिंसा के प्रशिक्षण से हिंसा समाप्त हो जाएगी, यह चिन्तन अति कल्पना से प्रसूत है। हिंसा समाप्त होने का अर्थ है संसार की समाप्ति । जब तक संसार है, मनुष्य में काम, क्रोध आदि निषेधात्मक भाव रहेंगे । जब तक निषेधात्मक भाव हैं, हिंसा की सत्ता को निःशेष नहीं किया जा सकता। हिंसा को मिटाया नहीं जा सकता, पर उसकी उग्रता को कम किया जा सकता है । अहिंसा के प्रशिक्षण को सबसे बड़ी सार्थकता यही है कि हिंसा के जो नए-नए चेहरे मानवीय गुणों को लीलने के लिए कटिबद्ध हो रहे हैं, उन्हें निष्क्रिय बनाने का प्रयत्न चलता रहे।' २. प्रश्न किन्तु यह है कि मानव तो विश्व की सर्वश्रेष्ठ रचना है । वैदिकवाङ्मय में एक स्वर से कहा गया है-पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम् । -योऽहं सोऽसौ, योऽसौ सोऽहम् । पुराण-पुरुष भगवान् व्यास ने भी कहा है-'गुह्य ब्रह्म! तदिदं ब्रवीमि-न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् ।' बंर २३, अंक ३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् ईश्वर में जो कुछ भी विभूतियां है, वे सब मानव में हैं और जो विभूतियां ईश्वर में नहीं हैं, मानव में वे विभूतियां भी आ जाती हैं। ईश्वर में जहां अविद्या-अस्मिता-आसक्ति-अभिनिवेशरूप क्लेश भावों से, कर्म विपाक आशयों से, ईर्ष्या-मद-दम्भ-मात्सर्यादि विभूतियों का सर्वथा अभाव है; वहां मानव अपने स्वतंत्र पुरुषार्थ का दुरुपयोग करके इन्हें भी अर्जित कर लेता है। दूसरे शब्दों में वह ईश्वरीय नियमों की अवहेलना करके अपनी मानस-कल्पनाओं के आधार पर जब काल्पनिक विधि-विधान बनाने में प्रवृत्त हो जाता है तो उस दशा में उसका स्वलन हो जाता ३. इस सम्बन्ध में तत्त्ववेत्ता महर्षि याज्ञवल्क्य ने एक आख्यान दिया हैसुनते हैं प्रजापति ने असुर-देवता-पितर-मनुष्य-पशु-भेद से पांच प्रजा उत्पन्न की । पांचों ने प्रजापति के सम्मुख अपनी इच्छा प्रकट की कि --वि नो धेहि, यथा जीवामः । आप हमें जीने का साधन प्रदान करें । सबसे पहले उदण्डतापूर्वक असुर बोले-प्रजापति ने उन्हें डाट दिया और कहा कि तुम सबसे बड़े हो और सबसे पहले मांग रहे हो । बैठ जाओ एक ओर । तुम्हें जो कुछ मिलेगा, सबसे पीछे मिलेगा । इस पर प्रणत भाव से देवता आए । प्रजापति ने उन्हें स्वाहापूर्वक यज्ञान और सूर्य प्रकाश दिया । संवत्सर में उत्तरायण तिथि निश्चित कर दी । देवता संतुष्ट हो गए । तब सौम्य भाव से पितर उपस्थित हुए। उन्हें स्वधा अन्न दिया गया और अमावस्या को एक बार भोजन तथा चन्द्रमा का प्रकाश दिया । वे भी संतुष्ट हुए। इस पर नमन करते हुए मनुष्य उपस्थित हुए। उन्हें नमः अन्न मिला और २४ घंटों में प्रातः सायं भोजन के साथ अग्नि का प्रकाश मिला । फिर सहज सुद्रा में पशु आए तो प्रजापति ने उन्हें कहा--'यथा कामं वोऽशनम् । यदैव यूयं कदा चलभाध्वै-यदि काले, यद्यनाकाले, वैवाश्नथेति'--कि तुम्हारे लिए कोई मर्यादा नहीं। चलते-फिरते-बैठे-सोते-खड़े-पैर पसारे - जब तब जो मिले खासकते हो। इससे पशु भी संतुष्ट हो गए। तब प्रजापति असुरों की ओर मुड़े और बोले माया, छल, कपट, धूर्तता, ईर्ष्या, कलह, परद्रोह, हिंसा, स्तेय, मिथ्या-भाषण आदि ही तुम्हारे अन्न हैं और घोर अन्धकार तुम्हारे लिए प्रकाश । असुर इस पर बहुत खुश हुए। ___ महर्षि याज्ञवल्क्य इस आख्यान के अन्त में कहते हैं कि प्रजापति की पांचों प्रजाओं में असुर-देवता-पितर-पशु-चार प्रजा तो अपनी मर्यादाओं में रहते हैं किन्तु मनुष्य उसका अति मण कर जाते हैं-न वै देवा अतिक्रामन्ति, न पितरः, न पशवः, नासुराः । मनुष्य एवैकेऽतिक्रामन्ति-कि प्रजापति ने जो मर्यादा बांधी उसका देवता अतिक्रमण नहीं करते, पितर अतिक्रमण रहीं करते, पशु अतिक्रमण नहीं करते, असुर अतिक्रमण नहीं करते किन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि मानव ही एक मात्र इन मर्यादाओं का उल्लंघन करता है। तुलसी प्रज्ञा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ऐसा क्यों होता है ? कहा गया है-न देहो न जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप ! मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।। अर्थात् यह अतिक्रमण मन के कारण होता है। श्रद्धा-वात्सल्य-स्नेह-काम इन चार मानस प्रेम-भावों से बनी रति से मानव-मन बना है और उस पर आत्मनिष्ठा बुद्धि का नियंत्रण होता है । मन कहता है--- मद्यपान किया जाय, बुद्धि कहती है .... बुरा काम है। कभी नहीं पीना चाहिए । पुनः मन कहता है- एक बार पीने में क्या हानि है ? बस यहीं जो बुद्धि मन का नियन्त्रण करने में सफल हो जाती है वहां मानव अतिक्रमण से बच पाता है। मनु कहते हैं-भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठाः । प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नरा: श्रेष्ठाः । अर्थात् लोष्ट-पाषाणादि भूत और ओषधि-वनस्पतियां, कृमि-कीट-पक्षी-पशु और आत्म स्वरूप निष्ठ मानव-- इन श्रेणियों में नर विशिष्ट हैं। अतः आत्मा से समन्वित बुद्धि-मन-शरीर भावों को यथा स्वरूप रखना ही मानवता है । यदि हम शरीर से श्रांत, मन से क्लांत और बुद्धि से परिश्रांत होंगे तो आत्मा से भी अशांत हो जाएंगे। ५. अत: यह सिद्धांत माने और उसका परिपालन करें कि जिस कर्म को करने से अन्तरात्मा को सन्तोष हो उसे यत्नपूर्वक करें और जो इसके विपरीत हो उसे ना करें यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत ।। - और इस सिद्धांत के पालन के लिए मनुष्य में स्वात्माभिमान, सहृदयता, सुमति, सच्चरित्रता, सहिष्णुता, सहयोग और समभाव को संस्थापित करें। मनस्तन्त्र को बुद्धि द्वारा आत्मनिष्ठ रखें, स्वस्थ रहें और मानव स्वरूप की रक्षा करें। _ गुरुदेव के शब्दों में-'घूम फिरकर बात उसी बिन्दु पर पहुंचती है कि जो मनुष्य आतुर है, अस्वस्थ है, वह हिंसा करता है। उसे हिंसा से बचाने के लिए मानसिक दृष्टि से स्वस्थ करना आवश्यक है । स्वस्थ होने का एकमात्र उपाय है अहिंसा का प्रशिक्षण । प्रशिक्षण का सम्बन्ध उपदेश से नहीं आचरण से है । हिंसा मत करो, यह उपदेश है । जिस दिन मनुष्य के आचरण से हिंसा निकलेगी, उसी दिन प्रशिक्षण अर्थवान बन सकेगा।' -परमेश्वर सोलंकी खण्ड २३, अंक ३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे लेखक/Contributors १. डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव, बी-१३२, सेक्टर-सी, महानगर, लखनऊ-२२६००१ २. समणी डॉ० स्थितप्रज्ञा, प्रवक्ता, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं ३. डॉ० सुभाषचन्द्र सचदेवा, १३, म्यूनिसिपल कॉलोनी, सोनीपत-१३१००१ ४. श्री विनोद कुमार पाण्डेय, शोध छात्र, संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ५. सुश्री वीणा जैन, सहायक कुलसचिव, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं ६. डॉ० संगीता सिंघल, II, ४१/१६४ जजी कॉलॉनी, जजी कम्पाउण्ड, बिजनौर २४६७०१ ७. डॉ० जयचन्द्र शर्मा, निदेशक, श्री संगीत भारती, रानी बाजार, बीकानेर ८. डॉ० ब्रजनारायण शर्मा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ९. प्रो० सागरमल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी १०. श्री वेदप्रकाश गर्ग, १४, खटीकान, मुजफ्फरनगर-२५१००२ ११. प्रो० प्रतापसिंह, २२, सुभाष नगर, अजमेर रोड, जयपुर १२. समणी चिन्मयप्रज्ञा, प्रवक्ता, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं 13. Dr. Chandramouli S. Naikar, Karnatak Arts College, Dharwad-580001. 14. Sri Dipak Jadhav, Research Scholar, Kundakunda Jnanpeetha, Indore. 15. Dr. Anupam Jain, Govt, Autonomous Holkar Science College, Indore. 16. Sri Ram Vallabh Somani, S-3, A/2 Satya Nagar, Khatipura Road, Jaipur. 17. Dr. Rajesh Ranjan, Research Scholar, Dept. of Buddhist Studies University of Delhi, Delhi-7. 18. Dr. Jayant Tripathy; CASS, University of Poona, Pune. 19. Dr. Binay Kumar Mishra C/o Dr. Rajiv Kumar, A/17, Magadh University Campus, Gaya-824 234. 20. Dr. B. R. Dugar, Registrar, Jain Vishva Bharati Institute, _Ladnun-341306. 21. Prof. Musafir Singh, Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun. तुमसी प्रज्ञा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमांगलिक चिह्न और उनके सामूहिक अंकन ए० एल० श्रीवास्तव विचारों का आदान-प्रदान मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति रही है । इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप मनुष्य की भाषा का जन्म हुआ । आपस में बोलकर या बातचीत करके विचारों का आदान-प्रदान संभव हुआ । परन्तु इसके लिए परस्पर बात करने वालों को उस भाषा से परिचित होना आवश्यक है । दो विभिन्न भाषाओं के जानकारों के बीच संभाषण के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान कदापि संभव नहीं है । चूंकि विश्व में अनेक भाषाएं हैं, इसलिए वार्तालाप द्वारा विचार-विनिमय सार्वभौमिक न होकर किसी भाषा - विशेष के परिक्षेत्र तक ही सीमित रहता है । भाषा की इस कमी को पूरा किया कला ने । कला (चित्रकला अथवा मूर्तिकला ) में अंकित फल-फूल, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-पर्वत, धरती - आकाश, सूर्य-चन्द्र आदिआदि संसार के सभी मनुष्यों को समानरूप से मालूम हो जाते हैं । इतना ही नहीं, मूर्तियों की मुखमुद्राओं से नाना प्रकार के भावों - हास्य, उल्लास, क्रोध, दु:ख, दीनता, विवशता अथवा वीभत्सता को सभी देशों के मनुष्य सहज ही जान लेते हैं । स्पष्ट है कि विचारों के आदान-प्रदान के लिए भाषा की अपेक्षा कला का क्षेत्र अधिक विस्तृत और सार्वभौम है। इससे भी बढ़कर कला ने अमूर्त विचारों, विश्वासों और आध्यात्मिक सिद्धान्तों को भी साकार बनाया है । भारतीय कला भारतीय जीवन का प्रतिबिम्ब है । यहां धर्म, दर्शन और यहां की विराट संस्कृति कला में स्पष्टरूप से अभिव्यक्त हुई है । इस महत् कार्य के लिए भारतीय विद्वान् कलाकारों ने कतिपय प्रतीकों अथवा चिह्नों का सहारा लिया है। → प्रतीक या चिह्न ही भारतीय कला की वर्णमाला कहे जा सकते हैं । इन्हीं के माध्यम से धार्मिक मान्यताएं, लौकिक एवं पारलौकिक आचार-विचार, नीति- परम्पराएं और सामाजिक रीति-रिवाज़ भारतीय कलाकृतियों में प्रतिबिम्बित हुए हैं। ये कला-प्रतीक केवल विचारों को अथवा विशिष्ट भावों को अभिव्यक्त ही नहीं करते हैं, अपितु शोभा, आरक्षा और मांगलिकता की सृष्टि भी करते हैं । इसीलिए धार्मिक अनुष्ठानों, सामाजिक उत्सवों अथवा पारिवारिक समारोहों और त्योहारों के अवसर पर चौक, अल्पना, रंगोली, माला, बन्दनवार, झालर, पताका तथा अन्यान्य साजसज्जा में इन प्रतीकों की प्रतिष्ठा करके मांगलिक वातावरण की सृष्टि जाती है । तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : अंक २३ खंड ३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय कला-समीक्षक और भारतीय संस्कृति के विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि ये मांगलिक प्रतीक प्रारम्भ में सार्वजनीन थे। समाज के सभी वर्गों और समुदायों के लोग इन चिह्नों का मांगलिक उपयोग करते थे। कालान्तर में जैन, बौद्ध, ब्राह्मण आदि विभिन्न धर्मावलम्बियों ने इन प्रतीकों में सन्निहित मांगलिकता और दार्शनिकता के कारण इन्हें अपना लिया और इनका उपयोग अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार किया। मूलतः ये मांगलिक चिह्न किसी भी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से सम्बन्धित न होकर सार्वजनिक थे और सर्वसाधारण में लोकप्रिय थे। ___ एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि मांगलिक प्रतीकों या चिह्नों का उल्लेख सभी धर्मों के ग्रंथों में तथा कतिपय लौकिक ग्रंथों में पाया अवश्य जाता है, परन्तु इन्हें 'अष्टमंगल' एकाध अपवादों को छोड़कर प्रायः जैन ग्रंथों में ही कहा गया है। इसलिए संख्या में कम या अधिक होने पर भी इन्हें 'अष्टमांगलिक चिह्न' कहने की परिपाटी का आधार निःसन्देह जैन ग्रंथ हैं। यह भी महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है कि केवल जैन धर्मावलम्बियों में ही 'अष्टमंगलों' की यह परम्परा आज तक चली आ रही है। वे इन्हें संपूज्य मानते हैं और इन्हें प्रायः मन्दिरों में अंकित भी करते हैं। मांगलिक चिह्नों या प्रतीकों की संख्या बहुत बड़ी है। स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, मत्स्ययुग्म, दर्पण, कलश, आसन या भद्रासन, पद्म, माला, अंकुश, छत्र, चामर, ध्वज, वैजयन्ती, अक्षतपात्र, मोदकपात्र, रत्नपात्र, चन्द्र, सूर्य, वृक्ष, मधु, दधि, वृषभ, गज, सिंह, अश्व आदि-आदि मंगलचिह्नों में से कुछ न कुछ चिह्न जैन, बौद्ध अथवा ब्राह्मण धर्मावलम्बी ग्रंथों की किसी न किसी सूची में परिगणित किए गए हैं। इन्हीं में से प्रायः किन्हीं आठ चिह्नों का समुच्चय या समूह 'अष्टमांगलिक चिह्न' की संज्ञा से प्रतिष्ठित हो गया था। आगे चलकर मांगलिक प्रतीकों की सामूहिक संख्या आठ के स्थान पर उससे कम या अधिक होने पर भी उन्हें प्रायः अष्टमंगल कहने की परम्परा रूढ़ हो गयी। जैन धर्मावलम्बी ग्रंथों-औपपातिकसूत्र ३१, रायपसेणियसुत्त (कण्डिका ६६) तथा आचारदिनकर (२।४-११) में अष्टमंगलों की सूचियों में समानरूप से जिन आठ मांगलिक चिह्नों का उल्लेख मिलता है वे हैं - स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, भद्रासन, कलश, दर्पण और मत्स्ययुग्म । लगभग इसी प्रकार की अष्टमंगलों की गणना प्रवचनसारोद्धार, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र, उत्तराध्ययनसूत्र, अभिधानचिन्तामणि, तिलोयपण्णत्ति (२।२२-६२) और समवायांगसूत्र में भी की गई है। ___ इसी प्रकार बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर, महावस्तु (२।२८६), महाव्युत्पत्ति (३४८) और अर्थविनिश्चयसूत्र निबन्धन (३०८।५) में भी इन मांगलिक प्रतीकों की गणना है। ललितविस्तर में सिद्धार्थ के केशवेश के स्वरूपों में इन चिह्नों का उल्लेख हैश्रीवत्सस्वस्तिकनन्द्यावर्तवर्द्धमान संस्थानकेशश्च महाराज: सर्वार्थसिद्धिः कुमारः ।' इसी ग्रंथ में अन्यत्र सुजाता द्वारा तथागत के लिए पायस पकाने का वर्णन है जहां पर २७० :.:..:.... ....... तलसी प्रज्ञा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उबलते दूध में इन मांगलिक चिह्नों की आकृतियों के बनने की बात कही गयी है— तस्मिन् खल्वपि क्षीर श्रीवत्सस्वस्तिकनन्द्यावर्त पद्मवर्द्धमानादीनि मंगल्यानि संदृश्यते स्म ।" महावस्तु', महाव्युत्पत्ति' तथा अर्थविनश्चयसूत्रनिबन्धन' में महापुरुषलक्षणों के रूप में गिनाए गए ३२ व्यंजनों अथवा अनुव्यंजनों में इन मंगल-चिह्नों की गणना है। το ब्राह्मण धर्मावलम्बी तथा कतिपय अन्य ग्रंथों में भी मांगलिक द्रव्यों की सूचियां मिलती हैं । विष्णुस्मृति में भी अष्टमंगलों की गणना है । वे हैं पूर्णकुम्भ, आदर्श (दर्पण), छत्र, ध्वज, पताका, श्रीवृक्ष ( श्रीवत्स) वर्द्धमान और नन्द्यावर्त ।" महाभारत के द्रोणपर्व में कहा गया है कि राजदरबार में जाने से पहले धर्मराज युधिष्ठिर अनेक मांगलिक द्रव्यों के दर्शन किया करते थे जिनमें स्वस्तिक, वर्द्धमान, नन्द्यावर्त, माला, जलकुम्भ, ज्वलित हुताशन (अग्नि), पूर्णअक्षतपात्र, रुचक (हार), रोचना (तिलक की सामग्री), कन्या, दधि सर्पि (घृत), मधु, मंगलपक्षी आदि सम्मिलित थे ।" सुश्रुतसूत्रस्थान शुभ शकुन के रूप में इन मांगलिक चिह्नों का उल्लेख पाया जाता है - 'स्त्रीपुत्रिणी सवत्सागो वर्द्धमानं अलंकृता कन्या मत्स्याः फलं चामं स्वस्तिकान् मोदका: दधि:' अर्थात् सपूती माता, बछड़े सहित गाय, वर्द्धमान, सजी-संवरी कन्या, मीन- मिथुन, फल, चामर, स्वस्तिक, लड्डू, दधि आदि का दर्शन मांगलिक है । " बृहत्संहिता में राजा और राज्य के लाभ और हानि के सूचक इन मांगलिक चिह्नों को हाथी के कटे हुए दांत की रक्त शिराओं से बनने वाली आकृतियों के रूप में देखा गया है । में साहित्यिक सन्दर्भों के अनुरूप इन मांगलिक चिह्नों का अंकन जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्मानुयायी कलाकृतियों तथा कतिपय लौकिक वस्तुओं अथवा उपयोगी उपकरणों पर भी पाया गया है । परन्तु प्रस्तुत आलेख में केवल उनके सामूहिक अंकनों की चर्चा ही अभिप्रेत है जिनमें उनका अष्टमांगलिक स्वरूप प्रतिबिम्बित हुआ हो । अष्टमंगल चिह्नों का सामूहिक अंकन जितना जैन कला में मुखर है, उतना संभवतः अन्यत्र नहीं । मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त जैन आयागपट्टों पर इनका सामूहिक अंकन प्राचीनतम ठहराया जा सकता है । इन आयागपट्टों का निर्माणकाल प्रथम तथा द्वितीय शती ई० माना गया है । स्व० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह का विचार था कि औपपातिकसूत्र ५ के पुहुमी या पुढवी शिलापट्ट ( पृथिवी शिलापट्ट ) मथुरा आयागपट्टों का पूर्व रूप रहे होंगे जो ग्रामीण लोकदेवताओं, यक्षों और नागों की पूजा के निमित्त पवित्र वृक्ष - चैत्यों के नीचे किसी लघुपीठिका पर रखे जाते होंगे और जिन पर भक्तगण फल-फूल आदि पूजा सामग्री चढ़ाते होंगे ।" मथुरा से मिले कतिपय आयागपट्टों पर केवल मांगलिक प्रतीक उकेरे गए हैं। और कुछ पर इन प्रतीकों के बीच केन्द्र में तीर्थंकर की आसनस्थ प्रतिमा भी उकेरी गयी है । यह तथ्य इस बात का संकेत करता है कि संभवत: तीर्थंकर की प्रतिमा के इस प्राथमिक अंकन से पहले जैन धर्मानुयायी केवल आयागपट्टों पर उत्कीर्ण मांगलिक खण्ड २३, अंक ३ २७१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिह्नों या प्रतीकों की पूजा किया करते होंगे। अतएव मथुरा के ये आयागपट्ट जैन पूजा के प्रथम सोपान कहे जा सकते हैं। आयागपट्टों पर उत्खचित तीर्थंकरों की इन प्रतिमाओं के बाद ही उनकी स्वतंत्र मूर्तियां गढ़ी गयी थीं। दूसरे शब्दों में, जैन मूर्ति-पूजा का विकास प्रतीक-पूजा से हुआ था। मथुरा के इन आयागपट्टों पर प्रायः स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, भद्रासन, कलश, पुष्पपात्र, मीन-मिथुन आदि वही चिह्न उत्कीर्ण हैं जिनकी गणना जैन ग्रंथों में विशेषकर औपपातिकसूत्र ३१ में मिलती है (चित्र १-३)। जैन सन्दर्भ में सामूहिक अष्टमांगलिक प्रतीक कतिपय जैन मन्दिरों और गुहामन्दिरों के सिरदल पर भी अंकित मिलते हैं। इनमें गुजरात में जूनागढ़ के निकट बाबा प्यारामठ की गुहा क्रमांक 'के' (K) के सिरदल का उल्लेख मुख्य है (चित्र ४)।" खजुराहो तथा देवगढ़ (उ० प्र०) के कुछ जैन मन्दिरों के सिरदल पर तथा देलवाड़ा, कुम्भारिया और कुछ अन्य स्थानों (सभी राजस्थान) के मन्दिरों की आन्तरिक छतों पर भी अष्टमांगलिक चिह्नों के सामूहिक अंकन पाए गए हैं। १९वीं शती ई० का एक आयताकार कांस्य-फलक बड़ौदा के एक जैन मन्दिर में है जिस पर जैन धर्मावलम्बी भक्तगण पुष्प-फल आदि अपनी पूजा-सामग्री चढ़ाते हैं। इस कांस्य-फलक पर भी दर्पण, भद्रासन, कलश, वर्द्धमान, मीन-मिथुन, पुष्प, स्वस्तिक और आलंकारिक स्वस्तिक (Labyrinthine svastika) के रूप में अष्टमांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं। बड़ोदा का यह कांस्य-फलक वस्तुतः मथुरा के आयागपट्टों का स्मरण दिलाता है। इसे जैन धर्मानुयाइयों में अष्टमांगलिक चिह्नों की प्राचीन पूजा-परम्परा की वर्तमान कड़ी कहा जा सकता है (चित्र ५)। _बौद्ध कला में भी अष्टमंगलों का सामूहिक स्वरूप आंका गया है। सांची (म० प्र०) स्थित विशालस्तूप के उत्तरी तोरण के एक स्तंभ पर नागदन्तों पर लटकती कई मालाओं का अंकन है। इनमें दो मालाएं ऐसी हैं जिनके मनके (गुरिया) अष्टमंगलों के रूप में हैं। इन मालाओं के दोनों सिरों के पद्म प्रतीकों को छोड़ दिए जाने पर शेष मनकों की संख्या नौ और ग्यारह है । ये हैं खड्ग, परशु, श्रीवत्स, मीनमिथुन, पंकज, वैजयन्ती या भद्रासन, अंकुश, दर्पण और वृक्ष तथा वृक्ष, पुष्प, माला, परशु, मीन-मिथुन, पंकज, भद्रासन, श्रीवत्स, खड्ग, दर्पण और अंकुश (चित्र ६-७) । इसके अतिरिक्त दक्षिणी तोरण के पश्चिमी स्तंभ पर एक कल्पलता का अंकन है। इसमें सबसे नीचे बैठे एक दम्पति की नारी ने अपने दोनों हाथों में पकड़कर एक ऐसी ही प्रतीकमाला को अपने घुटनों पर लटका रखा है । इस माला की मध्यमणि भी नन्द्यावर्त और पंकज पुष्प के सम्मलित स्वरूप जैसी है । उसके एक ओर मीन-मिथुन, अंकुश और भद्रासन तथा दूसरी ओर खड्ग, दर्पण और भद्रासन के प्रतीक हैं। सात मनकों की इस माला को भी अष्टमांगलिक माला कहा जा सकता है। सारनाथ और मथुरा से मिले कुषाणकालीन गोल तथा चौकोर छत्रों पर भी इन अष्टमांगलिक चिह्नों को उकेरा गया था। ये छत्र बुद्ध तथा बोधिसत्वों की प्रतिमाओं के ऊपर ताने जाते थे। सारनाथ से मिले प्रथम शती ई० पू० के एक गोल छत्र का आभ्यन्तर और परिधि पपदलों से अलंकृत है और दोनों के बीच वाले घेरे २७२ तुलसी प्रज्ञा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर बारह मांगलिक चिह्न घड़ी के अंकों के समान पर उत्कीर्ण हैं। इनमें चार तो पत्रांकुर जैसे हैं और शेष आठ हैं अक्षतपात्र, वर्द्धमान, स्वस्तिक, शंख, कलश, श्रीवत्स, मीन-मिथुन और नन्दद्यावर्त (चित्र ८)।" इसी प्रकार मथुरा से मिले प्रथम शती ई० के एक चौकोर छत्र के एक किनारे पर शंख, वर्द्धमान, कलश, श्रीवत्स, अक्षतपात्र, स्वस्तिक, मीन-मिथुन और नन्द्यावर्त पंक्तिबद्ध हैं (चित्र ९)।" मथुरा से मिले और मांगलिक चिह्नों से अलंकृत ऐसे ही गोल छत्रों के कतिपय खण्डित फलक डा० रमेशचन्द्र शर्मा ने प्रकाशित किए हैं (चित्र १०-११)।५ अमरावती, केसनापल्ली और नागार्जुनकोण्ड से प्राप्त द्वितीय-तृतीय शती ई० के बुद्ध पदों पर भी अष्मांगलिक चिह्नों को एक साथ उकेरा गया है। इनमें चक्र, स्वस्तिक श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, भद्रासन, मीन-मिथुन, अंकुश, कलश और दर्पण सम्मिलित हैं (चित्र १२-१४)।" अब मांगलिक चिह्नों के सामूहिक अंकन वाली कुछ ऐसी वस्तुओं अथवा उपकरणों का उल्लेख प्रस्तुत है जो किसी धर्म से सम्बन्धित न होकर मात्र लौकिक उपयोग की वस्तुएं हैं। अष्टमांगलिक प्रतीकों से अलंकृत एक तलवार की मुठिया (Handle knot) का कांस्य आवरण कौशाम्बी (इलाहाबाद) से मिला है और सम्प्रति इलाहाबाद-संग्रहालय की अमूल्य निधि है (सं.क्र. Mor. ४१)। सात से० मी. लम्बे और पांच से० मी० अर्द्धव्यास वाले शुंगकालीन (प्रथम शती ई० पू०) इस मूंठ पर मीनध्वज, वैजयन्ती, नन्दद्यावर्त, स्वस्तिक, श्रीवत्स, धनुष-बाण, पद्म और उज्जैन प्रतीक के रूप में अष्टमांगलिक चिह्नों का सामूहिक अंकन है (चित्र १५ क, ख, ग)। तक्षशिला के उत्खनन से सर जॉन मार्शल को सोने की एक अंगुलीयक (अंगूठी) मिली थी जिसके बाहरी घेरे पर नौ उभार हैं और प्रत्येक उभार पर एक मांगलिक चिह्न की आकृति है। नौ में से सात चिह्न स्पष्ट हैं-श्रीवत्स, स्वस्तिक, पप, वज्र, मीन-मिथुन तथा नन्दद्यावर्त के दो प्रतीक । शेष दो चिह्न पुष्प की आकृति के हैं जिनकी पहचान संदिग्ध है (चित्र १६)। दो, तीन, चार अथवा पांच की संख्या में मांगलिक चिह्न कतिपय पंचमार्क और जनजातीय सिक्कों पर अंकित अवश्य मिलते हैं, परन्तु इससे अधिक संख्या में समग्र रूप से उनका अंकन सिक्कों पर विरल है। तमिलनाडु के प्रारम्भिक पाण्ड्य शासकों के कुछ हस्ति प्रकार के सिक्कों पर अष्टमांगलिक चिह्न एक साथ अंकित पाए गए हैं। तीसरी-चौथी शती ई० के इन चौकोर तांबे के सिक्कों पर ठप्पे के द्वारा अग्र भाग पर हाथी की आकृति के ऊपर एक पंक्ति में वृक्ष, नन्द्यावर्त, कलश, चक्र, श्रीवत्स, दर्पण और चक्र बने हैं और आठवां चिह्न या तो हाथी के आगे त्रिशूल में बंधे अंकुश को माने अथवा सिक्के के पृष्ठ भाग पर बने मीन को।" कुछ वर्ष पहले मुझे भूटान के तीन वर्तमान सिक्के मिले। इनमें दो गोल थे और भारत के ५० पैसे तथा २५ पैसे वाले सिक्कों के आकार के थे और तीसरा भारत के १० पैसे वाले सिक्के जैसा लहरियादार गोल आकृति का था। वस्तुतः ये भूटानी २०३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक्के भारतीय सिक्कों जैसे होने के कारण ही चलन में आ गए थे। इन सिक्कों के अग्रभाग पर बायीं ओर मुख किए राजा का धड़ बना है। राजा चौड़े कालर का कोट और गोल पगड़ी वाली अपनी पारम्परिक वेशभूषा में है। पगड़ी के ऊपर मयूर जैसे पक्षी का शीश भी बना है। सबसे बड़े वाले सिक्के पर घड़ी की ७वीं संख्या वाले स्थान से लेकर ५वीं संख्या के स्थान तक भूटानी लिपि में गोलाई में एक अभिलेख है। अभिलेख के अक्षर ब्राह्मी अक्षरों जैसे दिखने के बावजूद मैं उसे उद्वाचित नहीं कर सका। इस सिक्के के पृष्ठ भाग पर दो आड़ी और दो खड़ी रेखाओं के द्वारा सिक्के में नौ फलक बनाए गए हैं। केन्द्रीय फलक में अभिलेख है और शेष आठ फलकों में घड़ी की १ संख्या वाले स्थान से प्रारंभ करके मीन, शंख, पद्म, कलश, स्वस्तिक, सिंह, चक्र और श्रीवत्स के प्रतीक बने हैं। यह स्पष्ट रूप से अष्टमांगलिक चिह्नों का रूपांकन है (चित्र १७) । __ छोटे दोनों सिक्कों के अग्र भाग पर राजा के मुख के एक ओर भूटानी और दूसरी ओर अंग्रेजी अक्षरों में 'भूटान' शब्द अंकित है। सबसे छोटे १० पैसे के समान वाले सिक्के पर प्रचलन वर्ष १९७४ अंग्रेजी अंकों में उत्कीर्ण है। इन दोनों सिक्कों के पृष्ठ भाग पर क्रमश: श्रीवत्स और स्वस्तिक का एक-एक चिह्न बना है। इस चिह्न के नीचे अंग्रेजी अंकों में उन सिक्कों का मान (denomination) क्रमशः २५ और १० की संख्या और उसके एक ओर भूटानी में 'शेटरम' और दूसरी ओर अंग्रेजी के कैपिटल अक्षरों में वही शब्द CHETRUMS अंकित है ।। इस प्रकार भूटान का बड़ा वाला सिक्का अष्टमांगलिक चिह्नों के सामूहिक अंकन का अधुनातन साक्ष्य प्रस्तुत करता है और यह प्रमाणित करता है कि मांगलिक चिह्नों की परम्परा किसी न किसी माध्यम से आज भी प्रचलित है। चित्र-परिचय (चित्र, अलग से आर्ट पेपर पर मुद्रित हैं ।) १-३. जैन आयागपट्ट, मथुरा, कुषाणकाल ४. बावा प्यारा मठ की गुहा सं० 'के' का सिरदल ५. बड़ौदा के एक जैन मन्दिर में रखा कांस्य फलक ६-७. सांची के विशालस्तूप पर उत्कीर्ण अष्ट मांगलिक मालाएं ८. सारनाथ से प्राप्त बौद्ध छत्र ९-११. मथुरा से प्राप्त बौद्ध छत्र १२-१४. बौद्ध पदों पर उत्कीर्ण अष्टमांगलिक चिह्न १५. इलाहाबाद-संग्रहालय का मूठ-आवरण १६. तक्षशिला से प्राप्त सोने की अंगूठी १७. भूटानी सिक्के पर उत्कीर्ण अष्टमांगलिक चिह्न २७४ तुलसी पज्ञा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ एवं टिप्पणी १. ललितविस्तर, ७ (सं० पी० एल० वैद्य, पृ० ७५, पंक्ति २६) २. वही, पृ० १९५, पंक्तियां १६-१७ ।। ३. महावस्तु, २०२८६ (मं० जे० जे० जोन्स) ४. महाव्युत्पत्ति, ३४८ ५. अर्थविनिश्चयसूत्रनिबन्धन, ३०८।५ (सं० एन० एच० समतानी, पृ० ६६.३) ६. विष्णुस्मृति, ६३।२८ (नन्द पण्डित की 'केशव वैजयन्ती' नामक टीका सहित, ___ सं० बी० कृष्णमाचार्य, खण्ड २, पृ० ६८९) ७. महाभारत, द्रोणपर्व, ८२।२० ८. सुश्रुतसूत्रस्थान, २९।२८-२९ ९. बृहत्संहिता, ९४।२-३ १०. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह, स्टडीज़ इन जैन आर्ट, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, १९५५, पृ०६९ ११. बर्जेस, रिपोर्ट ऑन द एण्टीक्विटीज़ ऑव काठियावाड़ ऐण्ड कच्छ, आकियो लॉजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, न्यू इम्पीरियल सीरीज़ २, लन्दन, १८७६, पृ० १३९ तथा आगे; ए० घोष (सं०), जैन आर्ट ऐण्ड आर्कीटेक्चर, वाल्यूम १, १९७४, चित्र ५ १२. मारुतिनन्दन तिवारी, "द सो-काल्ड जैन क्वायन्स ऐण्ड द प्राबलेम ऑव सेक्टेरियन अफेलिएशन ऑव सिम्बल्स", कला (जर्नल ऑव द इण्डियन आर्ट हिस्टरी कांग्रेस, गुवाहाटी), वाल्यूम २, १९९५-९६, पृ० ११२ १३. वासुदेवशरण अग्रवाल, स्टडीज़ इन इण्डियन आर्ट, वाराणसी, १९६५, चित्र ३ १४. वही, चित्र ९ १५. रमेशचन्द्र शर्मा, बुद्धिस्ट आर्ट ऑव मथुरा, दिल्ली, १९८३, चित्र ३८-४१ १६. ए० एल० श्रीवास्तव, भारतीय कला-प्रतीक, इलाहाबाद, १९८९, चित्र ३१५, ३१८,३१९ १७. ए० एल० श्रीवास्तव, “ए क्यूरियस ब्रोन्ज़ ऑबजेक्ट इन द इलाहाबाद म्यूजियम", ईस्ट ऐण्ड वेस्ट, रोम, वाल्यूम ४१, सं० १-४, १९९१, पृ० ३७१ एवं आगे, चित्र १-३ १८. सर जॉन मार्शल, टैक्सिला, वाल्यूम ३, लन्दन, १९३१, फलक १९७, सं० २४ १९. आर० वनजा, “सिम्बल्स ऑन साउथ-इण्डियन क्वायन्स", ए० घोष (सं०), जैन आर्ट ऐण्ड आर्कीटेक्चर, खण्ड ३, दिल्ली, १९७५, पृ० ४५६-६२, फलक ३०५३०६, चित्र १-१० -डा० ए० एल० श्रीवास्तव बी-१३२, सेक्टी-सी, महानगर लखनऊ-२२६००६ खंड-२३, अंक-३ २७५ For Private &Personal use only : Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अष्टमांगलिक चिह्न और उनके सामूहिक अंकन" चित्र एवं रेखांकन : १ - (१-३) जैन आयागपट्ट, मथुरा (कुषाणकालीन) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र एवं रेखांकन : २ JIOMuTEUTION AAVAH S RTI ( MATIVITIAN (४) बावा प्यारा मठ की गुहा. (५) जैन मंदिर, वड़ोदरा का कांस्य फलक, (६-७) सांची स्तूप की अष्ट मांगलिक मालाएं, (८) सारनाथ का बौद्ध छत्र और (१०-११) मथुरा के बौद्ध छत्र । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र एवं रेखांकन : ३ N LANNI HUMMIFLOLUTTULITTLUND H / / - जापायला - (९) मथुरा का वौद्ध छत्र और (१२-१४) बौद्ध पदों पर उत्कीर्ण अष्टमांगलिक चिह्न Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र एवं रेखांकन : ४ १५ १५स १४ ग १७ (१५) इलाहबाद-संग्रहालय में सुरक्षित तलवार की मूठ के आवरण पर उत्कीर्ण, (१६) तक्षशिला से प्राप्त सोने की अंगूठी पर उत्कीर्ण और (१७) भूटानी सिक्के पर उत्कीर्ण अष्ट मांगलिक चिह्न । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आयागपट्ट का चित्र मथुरा से प्राप्त (कुषाणकाल) BECE RANDIR888888888888 R :958 2080308 oopencil 4 888888 ASA 2089880 388 SARAN KARNATA 8888009000 T9518 भूटान के सिक्के (प्रवर्तमान) (डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव के संग्रह से) सांची स्तूप का मंगल कलश विशाल स्तूप पर उत्कीर्ण (शुंगकाल) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट :- उपर्युक्त सभी रेखांकन एवं चित्रादि डॉ० ए. एल. श्रीवास्तव के द्वारा उपलब्ध कराये गए हैं । -संपादक Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 (कृपया विवरण अगले पृष्ठ पर देखें) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीरासेल वेलाउल, जैन मंदिर, बाड़मेर (राजस्थान) में प्राप्त शिलालेखों के फोटोग्राफस् बाएं से दाएं-(१) सं० १३५२ बैशाख सुदि ४ (२-३) सं० १३५६ कात्तिकमास (४) संवत् १६५८ और संवत् १६९३ के शिलालेख । [शिलालेखों का मूलपाठ 'मध्यकालीन जैन स्थापत्य के तीन भव्य जैन मंदिर' लेख में दिया गया है। -संपादक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम एवं गीता में समत्व का स्वरूप समणी स्थितप्रज्ञा संसार में जितने भी दर्शन हैं, आचार-विचार की सरणियां हैं, आत्मविमर्श के अध्याय हैं, साधना की पद्धतियां हैं सबका एक ही लक्ष्य है--जीवन में समत्व को उपलब्ध करना। जैन आगम एवं गीता में समत्व के स्वरूप पर प्रभूत प्रकाश डाला गया है। आश्चर्यजनक रूप में दोनों समत्व के विवेचन में अत्यधिक साम्य है। समत्व की अवधारणा से सम्बद्ध अनेक शब्द दोनों में समान हैं। विभिन्न संदर्भो में समत्व के अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं ___ जैन आगमों में समत्व प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए आयावादी समियाए', अप्पादंतो', आयरक्खिए', अज्झप्पसंवुड्ढे', कसेहि अप्पाणं, जिणेज्ज अप्पाणं', सुसमाहि अप्पा', भाविअप्पा', अणण्णदंसी', अज्झप्परए", आयगुत्ता जिइंदिया", णिम्ममो णिरहंकारो'२, खंते", अकसाइ", अज्झत्थं शुद्ध, अणाउले", अणाइले", ठियप्पा", अत्तसमाहिए", समसुहदुक्खर' आदि शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। भगवान् महावीर समता के शास्ता थे । आयारो में भी कहा गया है-समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते' अर्थात् तीर्थङ्करों ने समता में धर्म कहा है। गीता में समत्व का अर्थ योग के संदर्भ में किया गया है-समत्वं योगमुच्यते ।२२ समत्व प्राप्त व्यक्ति के लिए गीता में अनन्यचेता, अध्यात्मचेतसा", अन्तराराम, आत्मरति, विशुद्धात्मा", शुचि२८, वीतभयक्रोध, निरहंकार", क्षमी", स्थिरमति३२, स्थितप्रज्ञ33, स्थितधी", समदुःख-सुख आदि शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। इस प्रकार जैन आगम और गीता दोनों में ही समत्व का अर्थ हैसमभाव । समता का एक अर्थ समानता किया जाता है। पर यह मूल अर्थ नहीं है। समता का अर्थ है आत्मा और आत्मा का अर्थ है समता । जो आत्मा है, वह सामायिक है और जो सामायिक है वह आत्मा है। आत्मा को स्वीकार किए बिना समता की स्थापना संभव नहीं है। यही एक ऐसा बिन्दु है जहां समता की बात की जा सकती है ।३६ समाज में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के साथ-साथ गीता हमारा ध्यान एक ऐसे आदर्श की ओर आकर्षित करती है जिसके अनुसार व्यक्ति को आत्मानुभव की सर्वोच्च ऊंचाइयों पर पहुंचने के पश्चात् भी लोक-कल्याण में लगा रहना चाहिए। वह आत्मानुभवी व्यक्ति लोक-कल्याण के कर्मों को न छोड़ें। गीता के अनुसार आत्मानुभव और लोक-कल्याण एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं । तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३, अंक ३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच तो यह है कि पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् किए गए कर्म ही व्यक्ति व समाज को सही दिशा प्रदान कर सकते हैं। गीता ने ऐसे व्यक्ति को 'कर्मयोगी' कहा अनासक्ति प्रश्न उठता है कर्मयोगी के कार्य करने की शैली क्या है ? समाधान की भाषा में गीता में कहा गया है त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृप्रत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।। जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभांति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। इसी की संपुष्टि करते हुए कहा है ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥3 जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति का त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल में कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता है। 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' में भी अनासक्त भाव का प्रकर्ष बताते हुए कहा गया है से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए।" वह मनुष्यों का चक्षु है जो आकांक्षा का अन्त करता है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी उल्लेख मिलता है---- भावे विरत्तो मणुओ विसागो एएण दुक्खोपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो जलेण व पोक्खरिणीपलासं ॥" भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। गीता में भी ऐसा ही कहा गया है जिसका मन अपने बश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता । २ वास्तव में समता की भूमिका में ही अनासक्ति फलीभूत होती है । समत्व को हम संक्षेप में दो रूपों में व्याख्यायित कर सकते हैं१. वीतरागता या स्व-स्वभाव प्रतिष्ठित और २. आत्मौपम्य या आत्मैक्यभाव । १. वीतरागता या स्व-स्वभाव में प्रतिष्ठित गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया वीयरागयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? २७८ ... तुलसी प्रना Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान की भाषा में भगवान् महावीर ने कहा-वीतरागता से वह स्नेह के अनुबन्धनों और तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता है तथा मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध से विरक्त हो जाता है। इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संकल्प और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थों-इन्द्रियविषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों में होने वाली तृष्णा क्षीण हो जाती है। निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो । संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिव्वुए ॥५ ममकार से शून्य, निरहंकार, वीतराग और आश्रवों से रहित मुनि शाश्वत केवलज्ञान को प्राप्त कर परिनिवृत्त हो जाता है- सर्वथा आत्मस्थ हो जाता है। ___ गीता में वीतरागता का चित्रण स्वभाव के रूप में मिलता है। युद्ध से पराङ्मुख अर्जुन श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर स्वाभाविक स्थिति में स्थित हो जाता है। जैसा कि अर्जुन ने कहा- हे जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्यरूप को देख कर अब मैं स्थिरचित्त हो गया हूं। और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूं। स्वाभाविक स्थिति क्या है ? इसका विशेषण करते हुए गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है- इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है।" अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है। २. आत्मौपम्य या आत्मैक्यभाव जो व्यक्ति समत्व के उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है उसके संबंध में आयारो में कहा गया है तहिं तहिं सुयक्खायं से य सच्चे सुआहिए । सदा सच्चेण संपण्णे मेत्ति भूएसु कप्पए ।" मैत्री की भावना से भावित चित्त वाला ही प्राणी मात्र को आत्मतुल्य समझ सकता है । इसी को पुष्ट करते हुए आयारो में अन्यत्र भी कहा है सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला। अप्पियवहा पिय जीविणो जीविउकामा ॥ इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लेख मिलता है अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए । समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे ॥१२ अर्थात् विश्व के शत्रु और मित्र सभी जीवों के प्रति समभाव रखना । गीता में भी आत्मौपम्य का वर्णन मिलता है बंर २३, बंक ३ २७९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन: । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भांति सम्पूर्ण भूतों में समता देखता है। सुख और दुःख को भी सब में समान देखता है, वही योगी परम श्रेष्ठ माना जाता है । इस प्रकार स्थितप्रज्ञ अवस्था प्राप्त योगी ही लोक-कल्याण के लिए कर्म में सफलता प्राप्त कर सकता है। समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निन्दात्मसंस्तुतिः ।। मानापमानयोस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भ परित्यागी गुणातीतः स उच्यते ।। जो व्यक्ति निरन्तर आत्मभाव में स्थित, सुख-दुःख को समान समझने वाला, मिट्टी-पत्थर और स्वर्ण में समान भाव रखने वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला हो तथा जो मान और अपमान में सम है, मित्र और शत्रु के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्त्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी गीता से मिलती-जुलती ही गाथाएं प्राप्त होती हैं लाभालाभे सुहे-दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ ।।५५ अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥५६ इस प्रकार आत्मौपम्य भाव से भावित चित्त वाले व्यक्ति तटस्थ होकर मैत्री और करुणा की धारा से जन-जन को आप्लावित कर देते हैं । समत्व की निष्पत्ति समत्व प्राप्त आत्मा जब समस्त कर्मों से मुक्त हो परमात्मभाव को प्राप्त कर लेती है तब सब शब्द वहां तक पहुंच कर लौट आते हैं । बह तर्क गम्य नहीं है, वहां तक कोई तर्क पहुंचता नहीं है ।" वह मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है । वह अकेला है-राग-द्वेष रहित है। वह अप्रतिष्ठान-शरीर मुक्त है। वह क्षेत्रज्ञ-ज्ञाता है।" वह न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिपण्डल है।" वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न शुक्ल है । वह न सुगन्ध है और न दुर्गन्ध है । वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न मधुर है । वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न ऊष्ण है, न स्निग्ध है ओर न रूक्ष है । वह शरीरवान् नहीं है।" वह जन्मधर्मा नहीं है। वह लेप आसक्ति युक्त नहीं है ।" वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है।" २८० तुलसी प्रज्ञा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह परिज्ञ है, संज्ञ है— सर्वतः चैतन्यमय है ।" उसका बोध करने के लिए कोई उपमा नहीं है ।" वह अमूर्त अस्तित्व है । वह पदातीत है । कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न स्पर्श है । " आत्मा ही परमात्मा है | वह राग-द्वेष परमात्मा हो जाता है। जिसने आत्मा को साध लिया लिया । गीता ने उच्चतम अवस्था को ही आत्मानुभाव की अवस्था, ब्रह्मानुभव की अवस्था, त्रिगुणातीत अवस्था, परमात्मा की प्राप्ति की अवस्था तथा परम शान्ति की अवस्था कहा है । " " जो पुरुष अन्तरात्मा में सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त ज्ञानयोगी शान्तब्रह्म होता है ।" वह पाप रहित योगी निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनन्त आनन्द का अनुभव करता है ।" ७८ इस प्रकार जैन आगम और गीता में समत्व के स्वरूप में साम्य होते हुए भी सैद्धान्ति दृष्टि से वैषम्य भी है। गीता में परमात्म प्राप्ति के बाद आत्मा का स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं रहता । आत्मा अपने स्वरूप को परमात्मा में विलीन कर देता है । अतः गीता को एकात्मवाद मान्य है । वहां जैन आगमों में अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । अर्थात् हर आत्मा स्वतंत्र स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकती है । इसलिए जैन आगमों में अनेकान्तवाद का निरूपण है । आत्मा के स्वतंत्र रूप से परमात्म खण्ड २३, ३ उसका बोध करने के लिए गन्ध है, न रस है और न और शरीर से मुक्त होकर उसने विश्व को साध २८१ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ : १. आयारो, ५१०६ २. उत्तराध्ययन, १११५ ३. वही, २०१५ ४. आयारो, १।४।१६५ ५. वही, ४।३।३२ ६. उत्तराध्ययन, ९।३४ ७. दशवकालिक सूत्र, १०।१५ ८. दशवकालिक चूलिका, ११९ ९. आयारो, २।६।१७३ १०. दशवकालिक, १०।१५ ११. सूत्रकृताङ्गसूत्र, ८।२२ १२. वही, ९६ १३. वही, ८।२६ १४. वही, ६८ १५. आयारो, ८८५ १६. दशव. ५।१।१३ १७. सूत्रकृ., ६८ १८. वही, ६।५ १९. आयारो, ४।३।३३ २०. दशव. १०।११ २१. आयारो, ५।३।४० २२. गीता, २।४८ २३. वही, ८।१४ २४. वही, ३।३० २५. वही, ५।२४ २६. वही, ३।१७ २७. वही, ५७ २८. वही, १२।१६ २९. वही, २०५६ ३०. वही, २०४८ ३१. वही, १२।१३ ३२. वही, १२।१९ ३३. वही, २०५५ ३४. वही, २०५४ ३५. वही, २०१५ २८२ तुलसी प्रज्ञा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. जैनधर्म अर्हत् और अर्हताएं, पृ. ४१-४२ ३७. गीता-चयनिका, प्रस्तावना, पृ. ४-५ ३८. गीता, ४१२० ३९. वही, ५१० ४०. सूत्रकृता., १।१५।१४ ४१. उत्तरा., २१३२।९९ ४२. गीता, ५७ ४३. उत्तरा. २९/४६ ४४. वही, ३२।१०७ ४५. वही, ३५२१ ४६. गीता, १११५१ ४७. वही, १३१२२ ४८. वही, ११३ ४९. आयारो, १३५६ ५०. वही, ११५६ ५१. उत्तरा., ६।६ ५२. वही, १९।२५ ५३. गीता, ६।३२ ५४. वही, १४।२४ ५५. उत्तरा., १९९० ५६. वही, १९।५२ ५७. आयारो, १३१६ ५८. वही, ११५६ ५९ वही, ११५०६ ६०. वही, ११२६ ६१. वही, १६५६ ६२. वही, ११०६ ६३. वही, ११५६ ६४. वही, ११२६ ६५. आयारो, १३६ ६६. वही, ११५६ ६७. वही, १३५६ ६८. वही, १२५६ ६९. वही, ११६ ७०. वही, १९५६ ७१. वही, १२५६ खण्ड २३, अंक ३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. वही, ११५६ ७३. वही, १६५६ ७४. वही, ११६ ७५. संबोधि, १३।११ ७६. वही, १३३३८ ७७. गीता चयनिका, प्रस्तावना पृ. १२ ७८. गीता, ५।२४ ७९. वही, ६।२८ --समणी (डॉ०) स्थितप्रज्ञा जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं २८४ तुलसी प्रज्ञा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषदों में जैनधर्म सुभाष चन्द सचदेवा ऋषिमेधा से संभूत आक्षरिक ज्ञान-सिन्धु का अन्वर्थक अभिधान है-उपनिषद् एवञ्च सम्यग्दर्शनसम्पन्न अनन्तज्योति-पुंज जिनेश्वरों [तीर्थंकरों] की आप्त-प्रज्ञा की शाब्दिक परिणति है-जैन धर्म । वैदिक काल से ही ये भारतीय संस्कृति की दो परम्परायें विद्यमान थीं। एक यज्ञ-याग संस्कृति को मानती थी और दूसरी कर्मवाद को । जो कर्म को प्रधान मानती थी वह 'समण' या 'श्रमण' कही गई और जो प्राकृतिक शक्तियों को प्रधान मानकर, यज्ञ-याग के रूप में उनकी पूजा करती थी, वही आगे चलकर ब्राह्मण [वैदिक संस्कृति के नाम से विख्यात हुई ।' श्रमण संस्कृति को नामान्तर द्रविड़, व्रात्य, अर्हत् संस्कृति हैं, जो जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई। उपनिषद ब्राह्मण [वैदिक संस्कृति के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं', अतः वेद के स्वतः प्रामाण्य में आस्था रखने वाले सभी भारतीय दर्शन उपनिषदों को वेद-प्रामाण्य के अन्तर्गत स्वीकार करते हैं । यद्यपि जैन दर्शन की वेद-प्रामाण्य में आस्था नहीं है, तथापि जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की स्पष्ट छाप उपनिषदों में दृष्टिगोचर होती है । ई० पू० का काल न केवल भारतीय दर्शन के इतिहास में अपितु विश्व के दार्शनिक इतिहास में स्वणिम युग कहा जा सकता है । ईसा पूर्व में जहां चीन में लाओत्जे और कन्फ्यूशियस; ईरान में जरथुम्न और ज्यूडिया में महान नबी की विचार धाराओं का सैद्धान्तिक पल्लवन हुआ; तो भारत वर्ष में उपनिषदों के ऋषि, तीर्थंकर महावीर एवं गौतमबुद्ध की चिन्तनधाराओं का दार्शनिक विश्लेषण हुआ।' इन धाराओं में तत्कालीन विचारकों को जो अधिक रुचिकर एवं अनुभव सिद्ध प्रतीत हुई उन्होंने उन्हीं को लेकर अपने सिद्धान्तों का स्वतंत्र विकास किया। इसी कारण जैन, बौद्ध एवं अन्य दर्शन-सम्प्रदायों का जन्म हुआ। वैचारिक दृष्टि से पर्याप्त मतभेद होने पर भी इन इन दार्शनिक-सम्प्रदायों [जैन एवं बौद्ध धर्म आदि] का औपनिषद् दार्शनिक चिन्तन से घनिष्ट सम्बन्ध बना रहा। यह तो सर्वमान्य एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है कि चिन्तन की प्रत्येक विशिष्ट धारा अपनी युगीन विचारधारा से अवश्य प्रभावित होती है । इस चिरन्तन सत्य का साक्षात्कार उपनिषदों के उन अनेक स्थलों में होता है जहां जैन धर्म की मान्यताओं का न केवल उल्लेख ही हुआ है; अपितु इन मान्यताओं के प्रति प्रकारान्तर से आस्था का स्वर भी मुखरित हुआ है। तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म को चिरन्तन एवं सनातन [शाश्वत] स्वीकार करनेवाले जैन मनीषियों की यह धारणा है कि काल के अनन्त प्रवाह में समय-समय पर तीर्थंकरों का आविभाव होता रहता है । 'अवसर्पिणी' संज्ञा से अभिहित वर्तमान युग में जिन चौबीस तीर्थंकरों का प्रादुर्भाव हुआ, उनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभ थे। तैत्तिरीयोपनिषद् में भगवान ऋषभ के प्रति आदर प्रकट करते हुए उन्हें वेद के साक्ष्य के आधार पर श्रेष्ठ [प्रधान एवं सर्वरूप प्रतिपादित किया गया है।' बृहदारण्यकोपनिषद् पर भाष्य लिखते हुए शंकराचार्यजी ने यह विप्रतिपत्ति उपस्थित की है-कतिपय विद्वानों की धारणा है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और कई विद्वान् कहते हैं कि वह संसारी है।" आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने सूक्ष्म अन्वेषण के आधार पर उपर्युक्त सन्देह का निवारण करते हुए सिद्ध किया है कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस प्रकरण [१.४.६] में वणित हिरण्यगर्भ का अर्थ संन्यास आदि के प्रथम प्रवर्तक ऋषभ ही होना चाहिए ।" निस्सन्देह यह जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऐतिहासिक पुरुष ऋषभ हैं जिनका उपनिषदों के साथ-साथ श्रीमद् भागवतपुराणादि ब्राह्मण ग्रन्थों में भी वर्णन हुआ है। बृहदारण्यकोपनिषद् (२।४।२०) में जिन ऋग्वेद और यजुर्वेदादि को परमपुरुष से उद्भूत एवं उसका साक्षात् निःश्वास स्वरूप" स्वीकार किया गया है। उन्हीं ऋग्वेदादि में ऋषभ को मैत्रीभाव एवं देवत्व का प्रतीक माना गया है ।" इस प्रकार उपनिषदों के मूलस्रोत वेदों [संहिताओं] ने ही सर्वप्रथम जैनधर्म प्रवर्तक ऋषभ के सौम्य एवं दिव्य स्वरूप को उजागर किया और सम्भवत: उपनिषदों के ऋषि वेदों के सौजन्य से ही ऋषभ के बहुमहनीय व्यक्तित्व से परिचित हुए हों। यह ध्यातव्य है कि उपनिषदों में 'जिन' एवं 'जन'-इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया तथापित जैन धर्म एवं संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले श्रमणों," व्रात्यों यतियों, मुनियों एवं आर्हत् आदि का वहां (उपनिषदों में) स्पष्ट उल्लेख हुआ है । बृहदारण्यकोपनिषद् एवं मुण्डकोपनिषद् में मुण्डित शिर, यज्ञविधि के निन्दक श्रमणों एवं प्रात्यों के वर्णन के आधार पर डा० नन्दकिशोर देवराज ने इस तथ्य की उद्भावना की है कि वैदिक धर्म दर्शन के विपरीत श्रमण-धर्म-दर्शन की एक अलग परंपरा विद्यमान थी।" यह तथ्य स्पष्ट रूप से जैन धर्म के स्वतंत्र अस्तित्व को धोतित करता है; एवञ्च इस मान्यता को भी परिपुष्ट करता है कि उपनिषदों के ऋषि ब्राह्मण (वैदिक) एवं श्रमण (जैन संस्कृति की विभाजक रेखा से भलीभांति परिचित थे। माण्डूक्योपनिषद् की गौडपादकारिका (अद्वैतप्रकरण), १७१ पर भाष्य करते हुए शंकराचार्यजी ने कारिकाकार (गौडपाद) द्वारा निर्दिष्ट द्वैतवाद की व्याख्या के प्रसंग में कपिल, कणाद एवं बुद्ध के द्वैतवाद पर प्रकाश डालने के साथ-साथ 'अर्हत' की भी द्वैतपरक दृष्टि का निरूपण किया है।" इस प्रकरण में जहां एक ओर जैन धर्म के लिए बहुविख्यात 'अर्हत' शब्द की उपलब्धि हुई है, वहां दूसरी ओर इस तथ्य की भी स्पष्ट झलक मिली है कि जैन धर्म की मान्यता उपनिषदों के आत्मैकत्ववाद (अद्वैतवाद) से सर्वथा भिन्न है । प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने के कारण जैन धर्म द्वैतवाद का पोषक एवं समर्थक है। इसी परिप्रेक्ष्य में एक तथ्य और भी ध्यातव्य है । छान्दोग्योपजिषद् में २५६ तुलसी प्रश Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया कि अध्यात्मविद्या पहले क्षत्रियों के पास थी; ब्राह्मणों ने इसे बाद में प्राप्त किया । ब्राह्मणों को आध्यात्मिक ज्ञान क्षत्रियों से ही उपलब्ध हुआ। यदि समस्त पूर्वाग्रहों का त्याग करके निष्पक्ष भाव से विचार किया जाए तो तो इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि जिस आध्यात्मिक ज्ञान की क्षात्र परम्परा का यहां उल्लेख किया गया है, वह निःसन्देह तीर्थंकरों की ही परम्परा थी, क्योंकि ऋषभ से लेकर महावीर तक सभी तीर्थंकर [जिनेश्वर क्षत्रिय थे। ब्राह्मण वर्ग के आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करने वाले उपनिषदों में क्षत्रिय जिनेश्वरों के आध्यात्मिक ज्ञान (अथवा जैन धर्म) की स्पष्ट झलक एवं अप्रतिम प्रभाव इस तथ्य को मूर्तस्वरूप प्रदान करता है । 'युक्तिप्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धि:'-- न्यायानुसार अब हम ऐसे अनेक प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे जिनके आधार पर अनायास ही अनुमान लगाया जा सकता है के उपनिषदों एवं जैन धर्म की आध्यात्मिक मान्यताओं में परस्पर कितनी घनिष्टता है । अन्य भारतीय दर्शनों के समान दोनों (उपनिषदों एवं जैन धर्म) में दुःखमुक्ति की स्वाभाविक अभिलाषा अथवा आत्मस्वरूप विषयक जिज्ञासा को प्रस्तुत किया गया है। मुण्डकोपनिषद् के एक प्रकरण में जिज्ञासा है---'हे भगवन् ! किसे जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है । इसी प्रकार का ही कुछ भाव केनोपनिषद् एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी अभिव्यक्त हुआ हैं । जैनागम के शिरोमणि आगमग्रंथ 'आचारांग' में भी इसी सहज जिज्ञासा का समाहार करते हुए कहा गया है कि-'मैं कोन हूं, मेरा स्वरूप क्या है ? मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा । मुमुक्षु आत्मा को जीव-अजीव अथवा आत्म-अनात्म का विवेक होने पर ही मोक्षोपलब्धि हो सकती है-- यह जैन धर्म का शाश्वत सिद्धांत है। 'दशवकालिक' में जैन धर्म की इस चिरन्तन मान्यता को प्रतिष्ठापित करके आध्यात्मिकानुभूति हेतु जन-जन को अनुप्राणित किया गया है । २० उपनिषदों में आध्यात्मिक साधना हेतु जिन अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, वैराग्य एवं तप आदि उच्च जीवन मूल्यों को अपरिहार्य स्वीकार किया गया है। उन्हीं (अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि) प्रशस्त मान्यताओं को जैन दर्शन ने भी समान रूप से महत्त्व प्रदान किया गया है ।२८ यदि यह कहा जाए कि 'अहिंसा जैन धर्म का प्राण तत्त्व है', तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । अहिंसा की गौरवगाथा को व्याख्यायित करते हुए 'अनागार धर्मामृत'२६ में कहा गया है--'अहिंसा सम्यग्दर्शन रूपी राजा की शक्तिरूप सम्पदा है; निर्मल ज्ञान रूपी चन्द्रमा का सारतत्त्व है ; समस्त व्रत रत्नों की खान है; समस्त क्लेशरूपी सों के लिए गरुड़ का आघात है; आनन्दरूपी अमृत का समुद्र है; अद्भुत गुणरूपी कल्प-वृक्षों की भोगभूमि है; लक्ष्मी के विलास के लिए घर है और यश की जन्मभूमि है।' अहिंसा के लिए प्रयुक्त हुए ये आठ विशेषण इस तथ्य को संपुष्ट करते हैं कि जैन धर्म रूपी महाप्रासाद अहिंसा की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। चन २३, अंक ३ २८७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भले ही उपनिषदों ने भी अहिंसा की सार्वभौमिकता को स्वीकार किया है, परन्तु जितनी सूक्ष्मता से जैन धर्म ने अहिंसा की गरिमा को प्रकाशित किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । भारतीय इतिहास में एक ऐसा अन्धकारमय युग भी आया जब परम्परा से प्रवर्तित वैदिक संस्कृति की महानताओं को पुरोहित कहे जाने वाले वर्ग ने सीमित एवं संकीर्ण करके अपने स्वार्थसाधन का माध्यम बना लिया । " यज्ञों में निर्दोष पशुओं की बलि दी जाने लगी । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' के नारे को बुलन्द करने वाले धर्मध्वंसियों ने खुलेआम कहना प्रारम्भ कर दिया कि 'यज्ञ में पशु हिंसा से पाप नहीं लगता है; तथा वेद में मांस भक्षण को निन्दनीय नहीं माना गया है।' वस्तुस्थिति यह है कि वेदों का आद्योपान्त अध्ययन करने पर कहीं भी ऐसा प्रकरण उपलब्ध नहीं होता जिससे यज्ञ में पशुहिंसा एवं मांस भक्षण की प्रवृत्ति का समर्थन होता हो ।" तथाकथित पुरोहित वर्ग ने यज्ञ में पशुहिंसा के विधान के साथ-साथ यज्ञीय कर्मकाण्ड को भी भोगपरायण बना दिया । यद्यपि उपनिषद् वेद विहित सिद्धांतों के समर्थक थे, परन्तु तथाकथित पुरोहित वर्ग की भोगवादी विचारधारा का उनमें डटकर विरोध किया गया है । इस दृष्टि से उपनिषद् जैन धर्म के अधिक निकट हैं, तथापि वे वैदिक मान्यताओं के प्रबल समर्थक भी हैं। " जैनधर्म की न्यायसंगत प्रवृत्तियों को आत्मसात् करके उपनिषदों ने अपनी समन्वयवादी दृष्टि को अनेक सन्दर्भों में रूपायित किया है ।" कहीं-कहीं पुरोहितों की खाने पीने की प्रवृत्ति को लेकर उनकी और उनके याज्ञिक क्रिया कलापों की कटु आलोचना की गई है। एक स्थान पर तो उन्हें कुत्तों की एक पंक्ति में खड़े जैसा दिखाया गया है; जहां लोलुपता - पूर्वक वे कहते हैं - 'ऊंदा मदा ३ मों ३ पिवाइ मों ३ देवो वरुण:' [ऊं मुझे खाने दो ऊं मुझे पीने दो, देव वरुण ]" । यज्ञीय कर्मकाण्ड से प्राप्त होने वाले नश्वर फलों की निन्दा करते हुए उपनिषदों में कहा गया है कि यज्ञयागादि विधान हमें पितृलोक में भले ही पहुंचा दे, परन्तु अन्तिम लक्ष्य की [ अर्थात् मोक्ष की ] संप्राप्ति यज्ञ से सम्भव नहीं है ।" उपनिषदों के अनेक स्थलों में यज्ञ को ज्ञानमय स्वरूप भी प्रदान किया गया है और समग्र जीवन को ही एक यज्ञ बनाने का आदेश दिया गया है ।" इस प्रकार उपनिषदों के चिन्तकों ने यज्ञों के बाह्य एवं पुरोहित वर्ग द्वारा धूमिल किए गए स्वरूप का निराकरण करके उन्हें एक आध्यात्मिक अर्थवत्ता प्रदान की और इसी विचार एवं विवेक प्रधान पद्धति [जैन तीर्थंकरों] एवं भगवान् बुद्ध ने भी अपनाया । " ACT अनेक जैन एवं अजैन विद्वानों ने अपने शोधात्मक अन्वेषण के आधार पर यह भी सिद्ध कर दिया है कि जैन धर्म का 'अनेकांतवाद' उपनिषदों में नानाविध रूपों में प्रतिबिम्बित हुआ है । इस विषय में सुविख्यात विद्वान् पं० बलदेव उपाध्याय का प्रवचनांश अवलोकनीय हैं " उपनिषदों में किसी एक ही मत के प्रतिपादन की बात [ एकांत ] ऐतिहासिक दृष्टि से नितांत य है, उनकी समता तो उस ज्ञान के मानसरोवर [ अनेकांतवाद ] से है जहां से भिन्न-भिन्न धार्मिक तथा दार्शनिक धाराएं निकलकर इस भारतभूमि को २८८ तुलसी प्रशा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्लायित करती आयी है । इस धारा [स्याद्वाद] को अग्रसर करने में ही जैनधर्म का महत्त्व है । इस धर्म का आचरण सदा प्रत्येक जीव का कर्तव्य है।" निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले उपनिषदों ने जैन धर्म [श्रमण संस्कृति के प्रशस्त जीवन मूल्यों को आत्मसात् करके अपनी समन्वयात्मिका दृष्टि को उजागर किया है । अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य एवं तपादि ऐसी प्रकृष्ट अवधारणाएं हैं, जो उपनिषदों एवं जैन धर्म को समान रूप से मान्य हैं। पुरोहित कर्मकाण्ड एवं पशुहिंसा से धूमिल हुए यज्ञ को दिव्यता प्रदान करने में दोनों की समानभागिता है । हृदय को विशाल तथा दृष्टि को निर्मल एवं निष्पक्ष बनाने वाले 'अनेकांतवाद' के प्रति दोनों (उपनिषदों एवं जैन धर्म) की तुल्य आस्था है। संदर्भ सूची १. 'जैन धर्म की प्राचीनता एवं सार्वभौमिकता' [लेख] ले० डॉ० देवेन्द्र कुमार ____ शास्त्री, बाबू छोटेलाल जैन स्मृतिग्रन्थ, पृ० २००-२०१, [कलकत्ता १९६७] । २. 'व्रात्य और श्रमण संस्कृति' [लेख] ले० डॉ० फूलचन्द जेन 'प्रेमी', ऋषभ सौरभ , पृ० ७०, ऋषभ देव प्रतिष्ठान, दिल्ली [१९९२] ३. 'उपनिषद् और आचारांग' [लेख] ले० डॉ० हरिशंकर पाण्डेय, तुलसी प्रज्ञा, पृ० १३५, जैन विश्व भारती इन्स्टीच्यूट रिसर्च जनरल, लाडनूं [जुलाई-सितम्बर १९९५] ४ 'भारतीय दर्शन', ले० डॉ० नन्द किशोर देवराज, पृ० ६५-६६ ५. माधवाचार्य रचित 'सर्वदर्शनसंग्रह' पर व्याख्या लिखते हुए महामहोपाध्याय श्री वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर ने वेदोक्तलोक में आस्था न रखने वाले जिन दर्शनों का संकेत दिया है, उनमें जैन दर्शन भी है। (द्रष्टव्य-'सर्वदर्शनसंग्रह' पर श्री वासुदेव शास्त्री अभयंकर रचित संस्कृत भाष्य, भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पुना, १९७८ (ई०), पृ० २) ६. 'भारत और विश्व', ले० डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० २५ ७. 'भारतीय दर्शन', ले० वाचस्पति गैरोला, पृ० ८३ । ८. [i] 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज', ले० डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, पृ० १ [ii] According to the belief of the Jains themselves, the Jaina dharma is eternal, ........***** In the present period, which is Awasparni according to the Jains, there are 24 Tirathan karas. The First of them was Rsabha". ['Jainism Trough बम २३, बंक ३ २८९ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the Ages', by Satya Ranjan Banerjee, p. 139, Published in Jain Journal, Jain Bhawan Publication, Calcutta) ९. 'यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः छन्दोभ्योऽध्यमृतात्संबभूव ।" [तैत्तिरीयोपनिषद्, चतुर्थ अनुवाक, १] १०. अत्र विप्रतिपद्यन्ते - पर एव हिरण्यगर्भ इत्येके संसारीत्यपरे ।" बृहदारण्यकोपनिषद्, १।४।६ पर शांकर, भाष्य] ११. 'भगवान् ऋषभ : व्यापक व्यक्तित्व', [लेख] ले० युवाचार्य महाप्रज्ञ, ऋषभ सौरभ , पृ० २४, ऋषभ देव प्रतिष्ठान, दिल्ली [१९९२] १२. 'नाभेरसावृषभ आससुदेविसूनु, यो वैचचार समदृगजडयोगचर्याम् । यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति, स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ।।' [श्रीमद्भागवतपुराण, स्कन्ध २, अध्याय-७, श्लोक १०] १३. "अस्यमहतोभूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस.." [बृहदारण्यकोपनिषद्, २।४।१०] १४. 'ऋषभं मा समासानां सपत्नानां विषासहितम् । हन्तारं शत्रूणां कृषि विराज गोपितं गवाम् ॥" [ऋग्वेद, अ० ८, म० ८, सू० २४] १५. 'श्रमण' शब्द चार रूपों में उपलब्ध होता है-श्रमण, समण, समनस् और शमन । इनमें प्राकृत भाषा के 'समण' का जैन परम्परा में सबसे प्राचीन प्रयोग है। १६. 'श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसोऽनन्वागत......।" (बृहदारण्यकोपनिषद् ४।३।२२) १७. (i) 'तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवद्यस्तु चीर्णम् ।" [मुण्डकोपनिषद् ३।२।१०] [i] मुण्डकोपनिषद् १:२१७-११ १८. 'भारतीय दर्शन', ले० डॉ० नन्दकिशोर देवराज, प० ८० १९. "स्वसिद्धांतव्यवस्थासु द्वैतिनो निश्चितादृढम् । परस्परं विरुध्यन्ते तैरयं न विरुध्यते ।।" ___ [माण्डूक्योपनिषद्, गोडपादकारिका, अद्वैत प्रकरण, १७] २०. 'स्वसिद्धान्तव्यवस्थासु स्वसिद्धान्तरचनानियमेषु कपिलकणादबुद्धाहतादिदृष्टि अनुसारिणो द्वैतिनो निश्चिताः ।' । [माण्डूक्योपनिषद्, गोडपाद कारिका, अद्वैत प्रकरण, १७ पर शांकर भाष्य] २१. "त ह चिरं वसेत्याज्ञापयांचकार त, होवाच यथा मात्वं गौतमावदो यथेयं न प्राक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान्गच्छति तस्माद् सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच ।" [छन्दोग्योपनिषद् ५।३७] तुलसी प्रज्ञा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. देखें : -- ईश्वरकृष्ण रचित सांख्य कारिका, (१) : "दु:खत्रयाभिघाताज्जिज्ञासातदपघातके हेती। दृष्टे साऽपार्थाचेन्नै कान्तात्यन्ततोऽभावात् ।।" २३ 'कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।' [मुण्डकोपनिषद्, १।१।३] २४. 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः ।' [केनोपनिषद्, १] २५. 'किं कारणं ब्रह्म कुतः स्मजाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा।' [श्वेताश्वतरोपनिषद्, १।१] २६. “के अहं आसी ? के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि ?" [आचारांग सूत्र, ११११११२] २७. "जो जीवेऽवि न जाणइ, अजीवेऽवि न जाणइ। __ जीवाजीवे अजाणतो, कहं सो नाहिउ संजमं ।।" [दशवकालिक, अ० ४ गाथा] २८. भारतीय दर्शन', ले० डॉ० नन्दकिशोर देवराज, पृ० ६५-६६ २९. 'अनगार धर्मामृत', चतुर्थ अध्याय, ३५ ३०. 'भारतीय दर्शन', वाचस्पति गैरोला, पृ० ८३ ३१. 'वेदों और उपनिषदों में मांस-भक्षण और अश्लीलता नहीं है' लेख], ले० पाण्डेय पं० श्री रामनारायणदत्तजी शास्त्री, उपनिषद्-अंक, गीता प्रेस, गोरखपुर, पृ० १२१ ३२. 'भारतीय दर्शन', ले० वाचस्पति गैरोला, पृ० ८३ ३३. 'बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग-II, ले० डॉ० भरतसिंह उपाध्याय, पृ० ७५५ ३४. छान्दोग्योपनिषद्, १।१२।४-५ ; डायसन [Philosophy of the Upanisads, Parts-1, P. 62] तथा डॉ० राधाकृष्णन् [Indian Philosophy, part-1, P. [49] ने इस उपनिषद् के उपर्युक्त स्थल का इसी प्रकार ही अर्थ किया है। ३५. छान्दोग्योपनिषद् ११२।१०; बृहदारण्यकोपनिषद् २०१६, ६।२।१६; प्रश्नो पनिषद् ११६; मुण्डकोपनिषद् १।२।१०; छान्दोग्योपनिषद् ५॥१०॥३, ६७२। ३६. बृहदारण्यकोपनिषद् ३।१, छान्दोग्योपनिषद् ४।१६; ऐतरेयोपनिषद् ३।२।६; बृहदारण्यकोपनिषद् ११।२३; छन्दोग्योपनिषद् ५।११-२४; कौषीतकि २१५; छान्दोग्योपनिषद् ३।१६-१७; महानारायणोपनिषद् ६४; प्राणाग्नि उपनिषद् ३।४ खंग-२३, अंक-३ २९१ . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ३७. 'बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन. भाग-II ले० डॉ० भरतसिंह उपाध्याय. प० ७५७ ३८. 'तीर्थंकर वर्धमान', ले० श्री विद्यानन्दमुनि द्वारा 'वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ' में पं० बलदेव उपाध्याय के प्रवचन से गृहीत अंश, पृ० ६४ , -डॉ० सुभाषचन्द्र सचदेवा १३, म्यूनिसिपल कॉलोनी सोनीपत - १३१००१ तुलसी प्रज्ञा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध, जैन और वैदिक परम्परा में शील की अवधारणा ब विनोदकुमार पाण्डेय __जीवन दुःखमय है इसलिए चेतनशील मनुष्य को सदैव सुख के निमित्त प्रयास करना चाहिए । लौकिक जीवन में अत्यान्तिक और एकान्तिक सुख संभव नहीं है । इसलिए आध्यात्मिक जीवन सुखमय हो इसके लिए शील का आचरण आवश्यक है। "शील" शब्द "शील उपधारणे" धातु से "अच्" प्रत्यय करने पर बना है जिसका अर्थ है स्वाभाव या प्रकृति । इस अर्थ में शील का प्रयोग विशेषण के रूप में होता है । यथा-दयाशील, पुण्यशील, विनयशील, दानशील इत्यादि । अमरकोश में शुद्ध आचरण को शील कहा गया है। संस्कृत-हिन्दी, हिन्दी-संस्कृत', प्राकृत हिन्दी, रत्नकोश इत्यादि विभिन्न कोशों में शील के लिए उत्तम स्वभाव, आचरण, करनी, चारित्र, जीवन, सदाचार, विनयपूर्वक शिष्ट-शुद्ध वृत्ति, रुचि, आदत, प्रथा इत्यादि पर्यायवाची शब्द लिखे हैं । आचार्य भर्तृहरि ने सद्गुण, नैतिकता, सदाचरण, सज्जीवन, शुचिता, ईमानदारी आदि अर्थों में शील का प्रयोग किया है। महाकवि कालिदास के कुमार सम्भव में शील और सौंदर्य दोनों को सहचर कहा गया है । ब्रह्म सूत्र पर शांकर भाष्य में भी चरण, चारित्र और आचार को शील का पर्याय कहा गया है। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि निर्दोष, स्वच्छ, निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र तथा उज्ज्वल आचरण, व्यवहार, कर्म और चारित्र भी शील है। नैतिकता इसका मूल है और जीवन की उन्नतता को प्राप्त करना ही इसका प्रयोजन है। शील के पालनकर्ता को शीलवान कहा जाता है । भारतीय वाङ्मय में शील की अवधारणा क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? तथा इसकी महिमा का गायन किस रूप में हुआ है ? एतद्विषयक ज्ञान के लिए सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । अर्थात्-बौद्ध, जैन और वैदिक परम्परा। बौद्ध दर्शन में शील ___ सर्वप्रथम बौद्ध दर्शन में शील का विवेचन करें क्योंकि बौद्ध दर्शन में शील शब्द का सम्यक् विवेचन है। बुद्ध-धर्म के तीन महनीय तत्व हैं-शील, समाधि और प्रज्ञा । शील का तात्पर्य सात्विक शुद्धि से है जिसमें मन, वचन और काय की शुद्धि होती है जबकि समाधि शुद्ध सात्विक चित्त में एकाग्रता का प्रयास है । जब चित्त शुद्ध और एकाग्र हो जाता है तब उसमें प्रज्ञा उत्पन्न होती है, जो परिनिर्वाण का हेतु है। संसार चक्र के मूल में तुलसी प्रज्ञा, साउन : खण्ड २३ अंक ३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्या विद्यमान है और जब तक प्रज्ञा का उदय नहीं होता तब तक अविद्या का नाश नहीं होगा । अतएव अविद्या का नाश साधक की प्रथम उपलब्धि है। विशुद्धिमग्ग' में इसे शिरार्थ कहा गया है अर्थात जिस तरह शरीरावयवों में सिर [मस्तक] की प्रधानता है उसी तरह साधना के सोपानों में शील की महत्ता है । आचार्य बुद्ध घोष ने कहा है कि शीतल वायु हरिचन्दन, मुक्ताहार मणि और चन्द्रमा की किरणे यद्यपि जीवन को शीतलता प्रदान करते हैं तथापि इनसे भी मानवीय ताप का शमन उस रूप में नहीं हो सकता जिस रूप में शील से होता है । "अभिधम्मसंगहो' के अनुसार शील वह उत्तम गंध है जो जीवन को सुभासित कर देता है। यहां यह भी कथित है कि अकुशल न होने देने के लिए काय, कर्म और वाक् कर्मों को अच्छी प्रकार धारण करने वाली या सम्यक् प्रतिष्ठापना करने वाली चेतना शील है ।११ शील के दो भेद "अभिधम्मसंगहो' और "विशुद्धिमग्ग" में शील के दो भेद किये गये हैंचारित्रशील और वारित्रशील । (क) चारित्रशील-अपने देश कुल एवं काल के अनुसार उचित समझे जाने वाले कर्म चारित्रशील है । विनय खन्धक में आने वाले वे कर्म जिनके पालन से कुशल फल मिलता है परन्तु पालन नहीं करने से भी कोई हानि नहीं होती, भी चारित्रशील कहे जाते हैं। (ख) वारित्रशील - वे पन्चशील (अहिंसा सत्य अस्तैयादि) जिनको धारण न करने से पाप चलता है वे वारित्रशील हैं। (विशुद्धिमग्ग की भूमिका में विद्वान् संपादक ने शील के पांच परिणाम कहे [क] शीलवान व्यक्ति अप्रमादी होता है । [ख] इससे व्यक्ति की ख्याति बढ़ती है। [घ] शीलवान कहीं भयभीत नहीं होता है । [घ] इसमें जीवन की अन्तिम परिणति भी अप्रमत्त चेतना की अवस्था में ही होती है। [3] इससे सुगति और स्वर्ण की प्राप्ति होती है।) शील के अष्ट प्रकार [क] पञ्चशील-प्राणातिपात, आदिन्नादान, कामेसुनिच्छाचार, मुसावाद एवं सुरामेरयपान । [ख] अष्टशील-उक्त के अतिरिक्त तीन और-विकालभोजनविरति, नृत्यादि से विरत होना, मालागंधादि को धारण न करना। [ग] दशशील—इसमें दो नियम और बढ़ जाते हैं-आसन और आभूषणादि का का त्याग । [५] इन्द्रियनिग्रह या इन्द्रियसंवरशील [] संतोषशील २९४ तुलसी प्रज्ञा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [च] आजीवपरिशुद्धिशील- शुद्ध जीविकोपार्जन | [ड़] स्मृतिशील - स्वकर्म का निरन्तर चिन्तन और स्मरण । [ज] पातिमोक्ख संवरशील - पातिमोक्ख में वर्णित आचरणों का पालन करना । इस तरह बौद्ध दर्शन में वर्णित शील का पालन निश्चित ही साधक के ऐहिक और पारलौकिक सुख का विधायक होगा । आचार्यबुद्धघोष ने ऐसा कहा है । " जैन दर्शन में शोल सवार्थसिद्धि में" व्रतों [ अहिंसादि] के परीक्षणार्थ शील का कथन हुआ है तथा शील के अन्तर्गत दिग्विरति, देशविरति इत्यादि को रखा गया है । चारित्र सार" में तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत जो श्रावक के व्रत हैं, को शील माना गया है । तत्वार्थ सूत्र में भी इसका समर्थन हुआ है ।" [क] तीन गुण व्रत :- [१) दिग्विरति - दिशाओं की मर्यादा निश्चित करके इसके बाहर धर्मार्थ ही जाना, व्यापारादि के लिए नहीं, दिग्विरति है । [ख] देशविरति एक निश्चित समय में एक निश्चिय क्षेत्र में ही परिभ्रमण करूंगा ऐसी मर्यादा बांधना और इसका अतिक्रमण धर्मकार्य के अतिरिक्त नहीं करना देशविरति है । [ग] अनर्थदण्डविरति - निष्प्रयोजन क्रिया व्यापार निरर्थक है इसलिए इसका त्याग करना चाहिए जिससे अनर्थ-दण्डविरति की सिद्धि हो सके । [क] चार शिक्षावत - १. सामायिक व्रत - विवक्षित काल तक तीनों योगों से बाह्य प्रवृत्ति से निवृत होकर और समभाव में स्थित होकर एकत्व का अभ्यास करना सामायिक व्रत है । २. पौषधोपवासव्रत - पर्व काल में इन्द्रियनिग्रह पूर्वक चतुः आहार त्याग पौषधोपवास व्रत है । ३. उपभोगपरिभोग परिणाम व्रत -भोजनादि उपभोग और वस्त्रादि परिभोगों में ह्रास वृति रखना उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत है । ४. अतिथिसंविभाग व्रत :- नियमपूर्वक अर्जित धन से दूसरों की सेवा करना अतिथिसंविभागव्रत है । शोल के भेद देव शास्त्र और गुरु" नामक पुस्तक में डा० सुदर्शन लाल जैन ने ब्रह्मचर्य व्रत १८००० भेदों की चर्चा की इसलिए इनको जानकर के निमित स्त्री संसर्ग से बचने का निर्देश करते हुए शील के है । चूकि स्त्री संसर्ग १८००० प्रकार से हो सकता है इसमें त्याग भावना करनी चाहिए जिससे शील व्रत की सिद्धि होगी । उक्त १८००० प्रकार से स्त्री संसर्ग से बचना ही १८००० प्रकार का शील भेद हो जाता है । इनके अनुसार दो प्रकार की स्त्रियां हैं-चेतन और अचेतन । [क] चेतन स्त्री संसर्ग से शील के भेदः -- देव, मानुषी और त्रिर्यञ्चिनी तीन स्त्रियों X तीन योगXतीन करण X पांच इन्द्रियां X द्रव्य, भाव X आहार, भय खंड २३, अंक ३ २९५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैथुन और परिग्रह चार संज्ञाएं सोलह कषाय-(३४३४३४५४२४ ४४१६=१७२८०)-१७२८० भेद । [ख] अचेतन स्त्री संसर्ग से शील के भेद-काष्ठ, पाषाण और चित्र रचित तीन स्त्रियां दो योग (मन, काय)x तीन करणx पांच इन्द्रियांx द्रव्य, भावx क्रोध, लोभ, मान, माया चार-(३४२४३४५४२४४=७२०) ७२० भेद । इस प्रकार कुल मिलाकर १८००० संसर्ग हुए और इनका त्याग १८००० शील के भेद हुये। वैविक परम्परा में शील वैदिक वाङ्मय में शील के स्थान पर सदाचार', शिष्टाचार", चारित्र", समयाचारिक, निष्काम कर्म", और योग" इत्यादि शब्दों का प्रयोग है। अर्थात् उक्त अर्थों में भी शील का प्रयोग यहां उपलब्ध होता है, परन्तु यहां शील विवेच्च हैमनुस्मृति में शील, सदाचार और आत्मतुष्टि को धर्म का मूल कहा गया है । आचार्य गोविन्दराज ने शील का अर्थ करते हुए कहा है कि -- "शीलं रागद्वेष परित्याग इत्याह । हारित स्मृति के अनुसार शील बह गुण-समूह है जिसमें तेरह गुण सन्निहित है-ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तिता, मृदुता, अपारूण्य, मंत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कारूण्य और प्रसन्नता ।२° वाल्मीकीय रामायण में शील से युक्त स्त्रियों को साध्वी और शील हीन स्त्रियों को कुलटा और दुष्टा कहा गया है। महाभारत के शान्ति पर्व में२९ शील का विस्तृत विवेचन मिलता है-मन, वचन और काय से किसी पर द्रोह नहीं करना प्रत्युत् अनुग्रह करना और दान देना ही शील है। शील वह आधार तत्व है जिस पर सत्य, धर्म, सदाचार और बल आश्रित है।" मनुष्य का चरित्र अथवा आचरण शील से ही उन्नत होता है इसलिए जीवन में उन्नति चाहने वाले को शील का पालन करना चाहिए।" शीलवान पुरुष सौ वर्षों तक जीवित रहता है। नीतिशतक में भी शील की महिमा का गायन हुआ है "शीलं परं भूषणं उपसंहार ___ इस प्रकार शील के स्वरूप एवं महिमा का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों ही परम्पराएं भले ही शील के बाह्य स्वरूप के सम्बन्ध में भिन्न-मत रखती हैं । परन्तु इसके आन्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत हैं। तात्पर्य यह है कि आचार, चरित्र, योग, निप्काम-कर्म और एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाया गया मार्ग शील है। तीनों ही परम्पराओं में मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है तथा इसके हेतु के रूप में शील वा वर्णन हुआ है। संत कबीर ने कहा भी है "सीलवन्त सबसे बड़े सर्व रत्न की खान तीनों लोक की सम्पदा रही शील में आन ।" तुलसी प्रज्ञा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * संदर्भ सूची :-- अमरकोश ३/२६ संस्कृत हिन्दी कोश १०२२ हिन्दी संस्कृत कोश ५७६ प्राकृत हिन्दी कोश ८५२ नीतिशतक, ८३ कुमार सम्भवम् ॥३६ ब्रह्म सूत्र पर शांकर भाष्य ३।११९ वि० मग्ग पृ० सं० ९ वही (बुद्धघोष) पृ० सं० १३८ धम्मपद ४।१२ अभिधम्ममगहो पृ० सं० ५६ वही पृ० सं० ५६३ वि० मग्ग पृ० सं०७ वही भूमिका पृ० सं० २१ सर्वार्थसिद्धि ७।२४।३६५।९ चारित्रसार १३१६ तत्वार्थ सूत्र ७।२४ देव शास्त्र और गुरु पृ० सं० ७३-७४ मनुस्मृति २०१७-१८ वशिष्ठ धर्म सूत्र १११६ वा० रा० बालकांड ४१७ आपस्तम्बन्धर्मसूत्र भाष्य ११११३ श्रीमद्भागवत गीता २।४७ पा० योग सूत्र ११ मनुस्मृति २०६ वही टीका २।६ वही १६ २८. वा. रा. ४९।२२, ४९।२४ * खम्म २३, बंक ३ २९७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा० शान्ति पर्व १२४१६६ वही, १२४१६२ २४।५ वही " ३२. ३३. ३४. नीतिशतक ८३ कल्याण चरित्रांक वर्ष-५७, सं० १ -विनोद कुमार पाण्डेय शोध छात्र संस्कत विभाग, कला संकाय, का. हि० वि० वि०, वाराणसी २९५ तुलसी प्रज्ञा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अहिंसा के विकास में भगवान पार्श्वनाथ का योगदान 0 सुश्री वीणा जैन अहिंसा का विकास कहां से प्रारम्भ हुआ, इसका आदि बिन्दु क्या है ? यह ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणित करना मुश्किल है किन्तु यह कहना अकाट्य होगा कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन धर्म में मिलता है वैसा कहीं अन्यत्र नहीं मिलता । अहिंसा शाश्वत् और नित्य धर्म है। यह, अतीत में जितने भी अर्हत हुए हैं उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म है। यह सही है कि जितने भी महापुरुष अथवा तीर्थंकर हुए हैं उन्होंने अपने काल में व्याप्त विकृतियों को दूर करने के लिए धर्म के मौलिक सिद्धांतों को परिस्थितियों के अनुकूल उपदेशित किया और वे सिद्धान्त ही विकास के चरण बनते गए किंतु भगवान् ऋषभ से लेकर भगवान महावीर तक की अहिंसापरम्परा की यात्रा में पार्श्वनाथ के समय का पड़ाव अतीव महत्त्वपूर्ण है। विकास के चरण मानव समाज की आदिम योगलिक अवस्था में जनसंख्या कम थी और उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति उस समय में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों अर्थात् पेड़पौधों आदि से हो जाती थी। आज की भांति उस समय न कोई प्रतिस्पर्द्धा थी न भविष्य की आशंका और न ही कोई संग्रह की आकांक्षा थी। इन सबके अभाव से स्वभावतः उनमें कोई हिंसा की वृत्ति भी नहीं थी। परन्तु धीरे-धीरे युग-परिवर्तन के साथ-साथ जनसंख्या में वृद्धि हुई और प्राकृतिक वन संपदा उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति न कर सकी तो आपसी संघर्ष, होड़, छीना झपटी बढ़ी। परिणामतः सामान्य जीवन असुरक्षित एवं भयाक्रांत हो गया। जिसकी लाठी उसकी भैस' जैसी प्रवृत्ति ने हिंसा को प्रश्रय दिया। इसे रोकने के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन का क्रमशः विकास हुआ। नियम-विधान बने । हिंसा पर अहिंसा की प्रतिष्ठा न केवल सामाजिक स्तर पर बल्कि भावनात्मक स्तर पर श्रेष्ठ समझी जाने लगी और यह समझा जाने लगा कि हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह आदि सामाजिक गतिशीलता के बाधक तत्व हैं । यह भगवान् ऋषभ देव के समय का काल था। उस काल में ही अहिंसा पालने वाले समाज के दो रूप सामने आए । पूर्ण रूपेण .. अहिंसा स्वीकार करने वाले साधु-साध्वी तथा यथाशक्ति अहिंसा का पालन करने वाले.. श्रावक-श्राविका। आगमों में वर्णन मिलता है कि भगवान् ऋषभ की : तुलसी-प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना अहिंसा की साधना थी। उनके अनुसार अहिंसा का अर्थ केवल दूसरे के प्राणों का घात करना ही नहीं अपितु असत् प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करना ही अहिंसा था। अहिंसा के विकास का यह प्रथम वर्णन है जो प्राग ऐतिहासिक कहा जाता है। इतिहास के आलोक में-अहिंसा के विकास हेतु भगवान पार्श्वनाथ का योगदान उल्लेखनीय है । इनसे पूर्व भगवान् नेमीनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष के रूप में मान्य हैं जिन्होंने मूक प्राणियों की हत्या करना अधर्म माना था। भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता भगवान् पार्श्वनाथ का समय भगवान महावीर से २५० वर्ष पूर्व (८वीं/९वीं शती ई० पूर्व) का है । उनकी ऐतिहासिकता का निर्धारण साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर किया जाता है जिनमें जैन आगम-ऋषिभसित को प्राचीनतम साक्ष्य के रूप में माना जाता है। बोधायन धर्म सूत्र में और उपनिषदों में "पार्श्व", "निर्ग्रन्थ" जैसे शब्दों की चर्चा आई है। त्रिपिटक में निर्ग्रन्थों का उल्लेख अनेक स्थानों पर आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध से बहुत पहले निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय मौजूद था। भगवान् महावीर के माता-पिता भी पार्श्व-परम्परा के थे। डॉ. हर्मन जैकोबी जैसे पश्चिमी विद्वान् भी भगवान् पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं ।। अहिंसा के पहलू अहिंसा के मुख्यतः दो पहलू है १. निषेधात्मक अहिंसा और २. विधेयात्मक अहिंसा १.निषेधात्मक अहिंसा निषधात्मक अहिंसा का अर्थ है किसी के प्राणों का घात न करना, कष्ट न देना । जैन आगमों में हिंसा के निषेध के लिए बहुत कुछ लिखा गया है। प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।' अर्थात् किसी के मन को क्लेश पहुंचाना, शरीर को पीड़ा देना या प्राण हरण कर लेना हिंसा है। इसकी निवृत्ति ही अहिंसा है। भगवान् पार्श्वनाथ ने अहिंसा के स्वरूप को चातुर्याम संवरवाद धर्म के अन्तर्गत स्पष्ट किया है जो इस प्रकार सव्वातो पाणातिपातिवाओ वेरमणं एवं मुसावायाओ वेरमणं सव्वातो अदिन्नादाणवो वेरमणं सव्वातो बहिद्वादाणओ वेरमण' अर्थात् सभी प्रकार के प्राणघात से विरति, उसी प्रकार असत्य से विरति, सब प्रकार के अदत्तादान से विरति और सब प्रकार के परिग्रह से विरति । इन चार विरतियों को याम कहते हैं। इसमें हिंसा आदि चार पापों की विरति होती है। भगवान् पार्श्वनाथ ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीनों नियमों के साथ अहिंसा तुलसी प्रशा ३०० Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र" में मिलता है । का मेल बिठाया । पार्श्वनाथ के समय में एक ओर आत्मविषयक चिंतन का ज्ञान यज्ञ चल रहा था तो दूसरी ओर यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ाकर देवों को प्रसन्न करने का आयोजन भी खुलकर होता था । पाखण्ड का बोलबाला था । अनेक प्रकार के तापस नाना रूप धारण करके विचित्र क्रियाओं में लीन रहते थे जिससे जनता को अपनी ओर आकृष्ट कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें । होत्रिय तापस अग्निहोत्र करते थे । कोत्रिय भूमि पर सोते थे । पौत्रिय वस्त्र पहनते थे । जझणई यज्ञ करते थे । दन्तुवन्ख लिय दांत पीस कर कच्चा अन्न खाते थे । मियनुद्धय जीव हत्या करते थे । इन सबका रोचक वर्णन श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ " उब्वाई शारीरिक तप को ही धर्म समझा जाता था । यज्ञ में पशु की बलि देना और इसे आधिदैविक मान्यता के आधार पर धर्म मानना । यह जन मानस को रुचिकर नहीं लगा । यही कारण था कि जब पार्श्वनाथ ने कमठ के जीव महिपाल तापस को पंचाग्नि तप करते समय लकड़ी में जलने वाले नाग-नागिन को बचाने के लिए कहा और निरपराध प्राणियों की हत्या न करने का उपदेश दिया तो अहिंसा का यह स्वरूप जन-मानस को बहुत पसन्द आया । पार्श्वनाथ ने कमठ से कहा - " धर्म का मूल दया है वह आग जलने में किस तरह संभव हो सकती है क्योंकि अग्नि प्रज्वलित करने से कई प्रकार के जीवों का विनाश होता है ।" ऋषियों-मुनियों की जो अहिंसा जन-जन तक पहुंचनी सम्भव नहीं थी उसे भगवान् पार्श्वनाथ ने सरलता से लोगों के पास पहुंचाया । स्वपीड़ा से मुक्ति इसी समय निषेधात्मक अहिंसा का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है । पार्श्वनाथ के अनुसार दूसरों के प्राणों का धात न करना ही अहिंसा नहीं है अपितु स्वयं को पीड़ा देना भी हिंसा है । बिना आत्म साधना के किया गया तप मिथ्या तप है। पार्श्वनाथ के समय में हठयोग प्रवक्ताओं का विश्वास था कि कठिन तपस्या करने से उन्हें ऋद्धि-सिद्ध प्राप्त हो जाएगी । परन्तु हठयोग की धाराओं से शान्ति प्राप्त न हुई । ऐसी परिस्थिति में पार्श्वनाथ भगवान् ने कहा g " सम्यग् ज्ञान रहित किया गया तप उसी प्रकार अनुत्पादक है जैसे अनाज की भूसी" । उन्होंने निरर्थक आत्म-पीड़ा को हिंसा माना और इस प्रकार के मिथ्या तप करने वाले तापसियों को संबोधन दिया । परिणामस्वरूप अहिंसा का सही स्वरूप प्रकट होने पर महीपाल तापस के ७०० शिष्यों ने पार्श्वनाथ के चरणों में आकर श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य समन्तभद्र ने भी "स्वयंभू स्तोत्र" की पार्श्वनाथ स्तुति में सात सौ तापसों द्वारा दिगम्बर दीक्षा लेने का उल्लेख किया है । २. विधेयात्मक अहिंसा न पर पीड़ा देना और न ही स्व-पीड़ा देना यह अहिंसा का निषेधात्मक खण्ड २३, अंक ३ १०१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप है। पार्श्वनाथ भगवान् ने अहिंसा के विकास में एक चरण आगे बढ़ाते हुए इसके विधेयात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया। इसके अन्तर्गत अहिंसा का अर्थ है सब जीवों के प्रति कारुण्य, दया भाव का होना। उनके अनुसार राग-द्वेष रहित होकर आत्म कल्याण की भावना रखना, विश्वबन्धुत्व चेतना को जागृत करना ही अहिंसा का विधेयात्मक पक्ष है। इसी भाव को अमृतचन्द्राचार्य ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति, तेषामेवोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः । अर्थात रागादि भावों का प्रकट न होना ही अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्ति होना हिंसा होती है। पार्श्वनाथ भगवान् ने अहिंसा के इस पक्ष को अपने जीवन में व्यवहृत कर स्पष्ट किया। कमठ के जीव मेघमाली ने पार्श्वनाथ पर प्रतिशोध से प्रेरित होकर उपसर्ग किए या धरणेन्द्र पद्मावती ने भक्ति से प्रेरित होकर उनकी सहायता की, दोनों पार्श्वनाथ के लिए समान थे । न एक से द्वेष और न दूसरे से राग। यह अहिंसा के विकास की परिणति है । समता का दूसरा नाम भी अहिंसा है क्योंकि अहिंसा, हिंसा का त्याग नहीं, आत्म जागरण है । वह दुःख मुक्ति नहीं, आनन्द प्रतिष्ठा है। वह त्याग नहीं, उपलब्धि है। अहिंसा आचरण है। भगवान् महावीर ने भी कहा है कि जो स्वयं में स्थित है वह अहिंसा में स्थित अहिंसा का प्रायोगिक स्वरूप पार्श्वनाथ की अहिंसा प्रायोगिक धरातल पर आधारित थी। उन्होंने अहिंसा के सिद्धांत को किसी पर थोपा नहीं अपितु अपने जीवन में अहिंसा के सिद्धांत को फलित करते हुए हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत को अपनाया। यह अहिंसा का ही प्रभाव था कि जन्म-जन्मान्तरों से संचित क्रोध और वैर से ओतप्रोत कमठ का हृदय भी परिवर्तित हो गया और वह भगवान् के चरणों में आकर प्रायश्चित्त करने लगा। पार्श्वनाथ के समय में हिंसा के प्रत्याख्यान का भी प्रचलन था। सूत्र कृतांग में उदक पेडालपुत्र नामक पार्श्वपत्य श्रमण की महावीर के गणधर गौतम से हुई चर्चा का उल्लेख मिलता है । इस चर्चा में उल्लेख है कि पार्श्वपत्यों में हिंसा आदि के प्रत्याख्यान की परम्परा थी। अहिंसा का दूरगामी प्रभाव भगवान् पार्श्वनाथ ने अहिंसा आदि चातुर्याम धर्म की प्रतिष्ठा की, उसका प्रभाव अत्यन्त दूरगामी रहा। उनके बाद के धर्म संस्थापकों पर पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। उनमें आजीवक मत के संस्थापक गोशालक और बौद्ध मत के संस्थापक बुद्ध मुख्य हैं। बुद्ध के जीवन पर तो पार्श्वनाथ के चातुर्याम की गहरी छाप थी। वे प्रारम्भ में पापित्य अनगार पिहिताश्रव से दीक्षा लेकर जैन श्रमण भी बने थे। बौद्ध विद्वान् आचार्य धर्मानन्द कोसाम्बी ने ... तुलसी पज्ञा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है-निर्ग्रन्थों के श्रावक "वप्प'' शाक्य के उल्लेख से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थों का चातुर्यास धर्म शाक्य देश में प्रचलित था। जिस अष्टांगिक मार्ग का आगे चलकर प्रतिपादन हुआ उसमें पार्श्व के चातुर्याम धर्म का समावेश हुआ प्रतीत होता है। बुद्ध के पूर्व की यह चातुर्याम परम्परा भगवान् पार्श्वनाथ की ही देन है । त्रिपिटक साहित्य में यही चातुर्याम मूलक उपदेश निगण्ठ ज्ञातपुत्र (महावीर) के साथ जोड़ा गया प्रतीत होता है। भगवान महावीर पार्श्व की परम्परा के हो उन्नायक थे । देश काल के अनुसार उन्होंने इस चातुर्याम मूलक धर्म को पंच महाव्रत धर्म में बदल दिया। पार्श्वनाथ ने भारत के अनेक भागों में विहार करके अहिंसा का जो प्रचार किया उससे अनेक आर्य और अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हो गई। नाग, द्रविड़, आदि जातियों में उनका बहुत अधिक प्रभाव था। वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का वेद-विरोधी "व्रात्य'' के रूप में उल्लेख मिलता है। ये "व्रात्य" श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी थे। आज भी बंगाल, बिहार, उड़ीसा में फैले सराकों, सदगोवों और रंगिया जाति के लोग पार्श्वनाथ की अहिंसा-परम्परा का निर्वहन करते हैं। वे मांस भक्षण नहीं करते और रात्रि भोजन नहीं करते। उनकी दृढ़ आस्था अहिंसा में है जबकि मांस भक्षण करना बलि देना इस भूभाग में आम बात है। उदयगिरि, खण्डगिरि, खाटवे आदि में पार्श्व-परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अहिंसा आत्मा का स्वभाव है। इसका समय की परिस्थितियों के अनुसार विकास हुआ है। जिसमें भगवान् पार्श्वनाथ का बहुमूल्य योगदान सुस्पष्ट है। वण २३, बंक ३ ३०३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ : १. अर्हत् पार्श्व और उनकी परंपरा-डा० सागरमल जैन पृ. ३ २. The Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction, “That Parsva was a historical person is now admitted by all........" ३. तत्त्वार्थ सूत्र ४. स्थानांग सूत्र ५. धम्मस्स दयामूलं सा पुण पज्जालणे कहं सिहिणो । (सिरि पासनाह चरिउ ३।१६६) ६. पुरुषार्थ सिध्युपाय-अमृतचन्द्राचार्य ७. सूत्रकृतांग २।७।७।७१-८९ ८. रत्नकरण्ड श्रावकाचार ९. पार्श्व का चातुर्याम धर्म-धर्मानन्द कौसाम्बी पृ. २८ १०. मज्झिम निकाय, महासिंहनाद सूत्र पृ. ४८-५० -(सुश्री वीणा जैन) सहायक कुलसचिव, जैन विश्व भारती संस्थान, मान्य विश्वविद्यालय, लाडनूं (राज.)-३४१३०६ ३०४ तुलसी प्रज्ञा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पंचसमिति' एक संक्षिप्त निरूपण संगीता सिंघल संयमी आत्मा वाले सत्पुरुषों ने ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग - ये पांच समितियां कही हैं । 'ज्ञानार्णव' में इनका निरूपण निम्न प्रकार से हुआ है। १. ईर्यासमिति प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण को पीड़ा नहीं देते हुए संयमी का जो गमन है सूर्य का प्रकाश ज्ञानादि में यत्न, प्रायश्चित्त आदि सूत्रों के अनुसार से कैलाश गिरनार आदि यात्रा के चार हाथ प्रमाण भूमि को सूर्य के प्रकाश से देखता मुनि सावधानी से सदा गमन करे ।" 'ज्ञानार्णव' के अनुसार जो मुनि प्रसिद्ध क्षेत्रों को तथा जिन प्रतिमाओं की देखकर अपने कार्य के लिए प्राणियों वह ईर्या समिति है ।" मार्ग, नेत्र, देवता आदि आलम्बन - - इनकी शुद्धता से तथा गमन करते हुए मुनि के ईर्या समिति होती है । कारण गमन करना हो तो ईर्या पथ से आगे की वन्दना के लिये तथा गुरु, आचार्य वा तप से बड़े हों उनकी सेवा करने के लिये गमन करते हो तथा दिन में सूर्य की किरणों से स्पष्ट दीखने वाले बहुत लोग जिसमें गमन करते हों ऐसे मार्ग में दया से आर्द्रचित्त होकर जीवों की रक्षा करता हुआ धीरे-धीरे गमन करे तथा चलने से पहिले ही जिसने युग ( जुड़े ) परिमाण (चार हाथ) मार्ग को भले प्रकार देख लिया हो और प्रसाद रहित हो उसके ईर्या समिति कही गई है । * २. भाषा समिति मूलाचार में झूठ दोष लगाने रूप पैशुन्य, व्यर्थ हंसना, कठोर वचन, परनिन्दा, अपनी प्रशंसा और विकथा इत्यादि वचनों को छोड़कर स्व पर हितकारक वचन बोलना भाषा समिति कही है ।" राजवार्तिक के अनुसार स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जाने वाले, स्व पर हितकारक निरर्थक बकवाद रहित मित्र स्फुटार्थं व्यक्ताक्षर और असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है । मिथ्याभिमान, असूया, प्रिय भेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रान्त, कषाययुक्त, परिहास युक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्म, विधायक, देशकाल विरोधी और चापलूसी आदि वचन दोषों से रहित भाषण तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहिए। ज्ञानार्णव में कहा है कि धूर्त (मायावी), कामी, मांस भक्षी, नास्तिकमती, चार्वाकादि से व्यवहार में लाई हुई भाषा तथा संदेह उपजाने वाली व पापयुक्त भाषा बुद्धिमानों के लिए त्याज्य है तथा वचनों के दस दोष (कर्कश, पुरुष, कटु, निष्ठुर, परकोपी, छेद्याकुरा, मध्यकृशा, अतिमानिनी, भयंकरी और जीवों की हिंसा करने वाली) रहित, साधु पुरुषों को मान्य ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के भाषा समिति होती है। ३. एषणा समिति मूलाचार के अनुसार उद्गम आदि ४६ दोषों से रहित, भूख आदि मेटना व साधना आदि से युक्त, कृत कारित आदि नौ विकल्पों से विशुद्ध ठंडा-गरम आदि भोजन में राग-द्वेष रहित, समभाव कर भोजन करना ऐसे आचरण करने वाले के एषणा समिति है । उद्गम, उत्पाद, अशन दोषों से आहार, पुस्तक उपधि, वसतिका को शोधने वाले मुनि के शुद्ध एषणा समिति है। राजवातिक में गुण रत्नों को ढोने वाली शरीररूपी गाड़ी को समाधि नगर की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाले साधु का जठराग्नि के दाह को शमन करने के लिए औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्नादि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करना एषणा समिति कही है। ज्ञानार्णव में कहा है कि उद्गम दोष १६, उत्पादन दोष १६, एषणा दोष १०, धुआं अंगार प्रमाण संयोजन—ये चार मिलाकर ४६ दोष रहित तथा मांसादिक १४ मलदोष और अन्तराय शंकादि से रहित, शुद्ध, काल में पर के द्वारा दिया हुआ, बिना उद्देशा हुआ और याचना रहित आहार करने वाले मुनि के उत्तम एषणा समिति होती है । ४. आवान-निक्षेपण समिति ज्ञान के उपकरण, संयम के उपकरण, शौच के उपकरण व अन्य सांथरे आदि के निमित्त इनका यत्नपूर्वक उठाना, रखना वह आदान-निक्षेपण समिति कही है । शीघ्रता से बिना देखे, अनादर से बहुत काल से रखे उपकरणों का उठाना रखना स्वरूप दोषों का जो त्याग करता है उसके आदान-निक्षेप समिति होती है। राजवार्तिक के अनुसार धर्मविरोधी और परानुपरोधी ज्ञान और संयम के साधक उपकरणों को देखकर और शोध कर रखना और उठाना आदान-निक्षेपण समिति है ।" ज्ञानार्णव में शय्या, आसन, उपधान, शास्त्र और उपकरण आदि को पहले भली प्रकार देखकर बड़े यत्न से ग्रहण करते तथा पृथ्वी तल पर रखते हुए साधु के अविकल (पूर्ण) आदान-निक्षेपण समिति होना कहा है ।१५ ५. उत्सर्ग समिति मूलाचार में एकान्त स्थान, अचित्त स्थान, दूर, छिपा हुआ बिल तथा छेद रहित चौड़ा और जिसकी निन्दा व विरोध न करे ऐसे स्थान में मूत्र विष्ठा आदि देह के मल का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति कही गई है ।" राजवार्तिक के अनुसार जहां स्थावर या जंगम जीवों का विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु स्थान में मल ३०६ तुलसी प्रज्ञा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्रादि का विसर्जन करना और शरीर का रखना उत्सर्ग समिति है ।" ज्ञानावर्ण में कहा है कि जीवरहित पृथ्वी पर मल-मूत्र श्लेष्मादि को बड़े यत्न से क्षेपण करने वाले मुनि के उत्सर्ग समिति होती हैं । १८ गुप्ति ___ मन-वचन-काय से उत्पन्न अनेक पाप सहित प्रवृत्तियों का प्रतिषेध करने वाला प्रवर्तन अथवा तीनों योगों का रोकना गुप्ति है ।१९ मन-वचन-काय गप्ति के लक्षण नियमसार तात्पर्यवृत्ति के अनुसार सकल मोह राग-द्वेष के अभाव के कारण अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूप में सम्यक रूप से अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है । समस्त असत्य भाषा का परिहार अथवा मौन व्रत वचन गुप्ति है। सर्वजनों की काय सम्बन्धी निवृत्ति कायोत्सर्ग है । वही काय गुप्ति है । ५ स्थावरों और बसों की हिंसानिवृत्ति कायगुप्ति है । परमसंयम धर परमजिनयोगीश्वर अपने (चैतन्य रूप) शरीर में अपने (चैतन्य रूप) शरीर से प्रविष्ट हो गये उनकी अपरिस्पन्द शरीर में मूर्ति हो निश्चय कायगुप्ति है ।२० ज्ञानावर्ण में कहा है कि राग-द्वेष से अवलम्बित समस्त संकल्पों को छोड़कर अपने मन को स्वाधीन करने वाले, समता भाव में स्थिर करने वाले तथा सिद्धान्त के सूत्र की रचना में निरन्तर प्रेरणा रूप करने वाले मुनि के सम्पूर्ण मनोगुप्ति होती है ।२१ वचनों की प्रवृत्ति को संवर रूप (वश) करने वाले तथा समस्यादि का त्याग कर मौन धारण करने वाले महामुनि के वचन गुप्ति होती है ।२२ परिषह आ जाने पर भी पर्यङ्कासन से ही स्थिर रहने वाले मुनि के ही कायगुप्ति होती है ।२३ खण्ड २३, अंक ३ ३०७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ : १. ईर्या भाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञकाः । सद्भिः समितयः पञ्च निर्दिष्टाः संयतात्यभिः ।।। -ज्ञानार्णवः १८।३ २. फासुयमग्गेण दिवा जवंतरप्पहेण सकज्जेण । जंतूण परिहरति इरियासमिदी हवे गमणे ।। -आ० वट्टकेर, मूलाचार, गाथा ११ ३. मग्गुज्जोवुप ओगालवण-सुद्धीहि इरियदो मुणिणो। सुत्ताणवीचि भणिया इरियासमिदीपवयणम्मि । इरियावह पडिवण्णेणबलोगतेण होदि गंतव्वं । पुरदो जुगप्पमाणं संयाप्पमत्तेण सत्तेण ।। -वही गाथा ३०२-३०३ ४. सिद्धक्षेत्राणि सिद्धानि जिन बिम्बानि वन्दितुम् । गुर्वाचार्यतपोवृद्धान्सेवितुं व्रजतोऽथवा ।। दिवा सूर्याकरैः स्पष्ट मार्ग लोकातिवाहितम् । दयार्द्रस्याङ्गिरक्षार्थं शनैः संश्रयतो मुनेः ।। प्रागेवालोक्य यत्नेन युगमात्राहितेऽक्षिणः । प्रमादरहितस्यास्य समितीर्या प्रकीर्तिताः ।। -ज्ञानार्णवः १८१५-७ ५. पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदाप्पसंसविकहादी । वज्जित्तासपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं । -आ० वट्टकेर, मूलाचार, गाथा १२ ६. मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्विविधम्स्वहितं परहितं चेति । मितमनर्थकबहुप्रलपनरहितम् । स्फुटार्थं व्यक्ताक्षरं चाऽसन्दिग्धम् । एवंविधमभिधानं भाषासमितिः । तत्प्रपञ्च:-मिथ्याभिधानासूयाप्रियसभेदाल्पसारशङि कतसंभ्रान्तकषायपरिहासाऽयुक्ताऽसभ्यनिष्ठुर धर्मविरोध्यदेशकालालक्षणातिसंस्तवादिवाग्दोषविरहिताभिधानम् । -आ० अकलङ्कदेव, राजवार्तिक, ९१५, पृ. ५९४।५ ७. धूर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकसेविता। शङ्कासङ्केतपापाढ्या त्याज्या भाषा मनीषिभिः ॥ दशदोषविनिर्मुक्तां सूत्रोक्तां साधुसम्मताम् । गढतोऽस्य मुनेर्भाषां स्याद्भाषासमितिः परा ॥ -ज्ञानार्णवः १८१८-९ ८. छाढालदोससुद्धं कारणजुत्तं विसुद्धणकोडी । सीदादो सम भुत्ती परिसुद्धा एषणासमिदी । -आ० वट्टकेर, मूलाचार, गाथा १३ तुलसी प्रज्ञा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. ठग्गम उप्पादणएसणेहिं पिंडं च उवधि सज्जं च । सोधं तस्स य मुणिणो परिसुज्झइ एषणासमिदी ।। -वही गाथा ३१८ १०. अनगारस्य गुणरत्नसंचयसंवाहिशरीरशकटि समाधिपत्तनं निनीषतोऽक्षम्रक्षणमिव __शरीर धारणमौषधमिव जाठराग्निदाहोपशमनिमित्तमन्नाद्यनास्वादयतो देशकाल सामर्थ्यादिविशिष्टमगर्हितमभ्यवहरतः उद्धमोत्पादनेषणा संयोजनप्रमाण कारणङ्गार धूमप्रत्ययनवकोटिपरिवजनमेषणासमितिरिति समाख्यायते ।। -राजवार्तिक ९।५, पृ. ५९४।६ ११. उद्गमोत्पादनसंज्ञस्तै—माङ्गादिगैस्तथा । दोर्मलविनिर्मक्तं विघ्नाशङ्कादिवजितम् ।। शुद्धं काले परैदेत्तमनुद्दिष्टमयाचितम् । अदतोऽन्नं मुनेशैंया एषणासमितिः परा ।। -ज्ञानार्णवः १८।१०-११ १२. णाणवहिं संजमुवहिं सोचुवहिं अण्णमप्पमुवहिं वा । पयदं गहणाणिक्खेवो समिदी आदाणणिक्खेवा ।। __-मूलाचार, गाथा १४ १३. सहसाणा भोइददुप्पमज्जिद अपच्चुवेक्खा दोसा । परिहरमाणसस्स हवे समिदि आदाणविक्खेवा ॥ -वही गाथा ३१९ १४. धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य प्रमृज्य प्रवर्तनमादाननिक्षेपणा समितिः ।। -राजवार्तिक ९।५, पृ. ५९४१७ १५. शय्यासनोपधानानि शास्त्रोपकरणानि च । पूर्व सम्यक्समालोच्य प्रतिलिख्य पुनः पुनः ।। गृह णतोऽस्य प्रयत्नेन क्षिपतो वा धरातले । भवत्यविकला साधोरादानसमितिः स्फुटं ॥ ज्ञानार्णवः १८।१२-१३ १६. एग्गंते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे । उच्चारादिच्चाओ पदिठावणिया हवेसमिदी ।। -मूलाचार, गाथा १५ १७. स्थावराणां जङ्गमानां च जीवादिनाम् अविरोधेनाङ्गमलनिहणं शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमितिखगन्तव्या।। --राजवार्तिक, ९।५, पृ. ५९४।८ १८. विजन्तुक धरापृष्ठे मूत्रश्लेषममलादिकम् । क्षिपतोऽतिप्रयत्नेन व्युत्सर्गसमितिर्भवेत् ।। -ज्ञानार्णवः १८।१४ बड २३, बंक ३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. वाक्कायचित्तजानेकसावधप्रतिषेधकं । त्रियोगरो धनं वा स्याद्यत्तद्गुप्तित्रयं मतम् ।। -वही १८६४ २०. सकलमोहरागद्वेष भावादखण्डाद्वैतपरमचिदूपेसम्यगवस्थिरेव निश्चयमनोगुप्तिः । हे शिष्यं त्वं तावन्न चलितां मनोगुप्तिसमिति जानीहि । निखिलावृत्त भाषापरिहतिर्वा मौनबृतं च....." इति निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुत्तम् । सर्वेषां जनानां कायेषु वह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः स एव गुप्तिर्भवति । पञ्चस्थावराणां हिंसानिवृत्तिः कायगुप्तिर्वा । परमसंयम धरः परमजिनयोगेश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वसुषा विवेश तस्यापरिस्पन्दमूर्तिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति । -आ० पद्मप्रभलमलधारिदेव, नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा ६०,७० २१. विहायसर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीनं कुरुते चेतः समत्वे सुप्रतिष्छितम् ।। सिद्धान्तसूत्र बिन्यासे शश्वत्प्रेरयतोऽयवा । भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ॥ -- ज्ञानार्णवः १८।१५-१६ २२. साधुसंवृत्तवाग्वृत्तेमों नारूढस्य वा मुनेः । संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामुनेः ॥ -वही १८११७ २३. स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यङ्कसंस्थितस्य वा । परीषहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुनेः ।। -वही १८१८ -~-डॉ० संगीता सिंघल ११/४१/१६४ जजी कॉलोनी जजी कम्पाउण्ड, बिजनौर-२४६७०१ तुलसी प्रज्ञा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज का भक्ति-संगीत जन-जन एवं प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला जैन धर्म प्राचीन काल से आज तक अपना विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। जैन समाज मुख्यत: दिगम्बर एवं श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध है । दोनों ही सम्प्रदायों का साहित्य गद्य एवं पद्य रूप में प्रचुर मात्रा में है । प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त पाण्डुलिपियों की संख्या का अन्दाज लगाना ही कठिन है । पाण्डुलिपियां विविध विषयों की हैं। इनमें संगीत के ग्रन्थ भी हैं । जयचन्द्र शर्मा कुछ वर्षों पूर्व चूरू नगर के बड़े उपाश्रय अढ़ाई हजार ग्रन्थों की सूची बनाने का कार्य सुराणा पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष को सौंपा गया था । मुझे बताया गया कि वहां कई महत्त्वपूर्ण संगीत ( म्यूजिक ) ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार बीकानेर में स्थित अगरचन्द जी नाहटा के ग्रन्थागार में भी विविध विषयों के हजारों ग्रन्थ हैं । जी ने मुझे अनेक बार कहा कि संगीत विषयक प्रतियां इनमें से छांट कर उन पर शोध कीजिये । समय बीतता गया । मैं उन ग्रन्थों को देख नहीं पाया। चूरू सभी ग्रन्थ पता नहीं कहां चले गये ? नाहटा - पुस्तकालय तक जाने के लिए अब शरीर साथ नहीं दे रहा है, जबकि मुझे इस दिशा में काम करने की विशेष रुचि पैदा हुई है । मैंने इस विषय पर कुछ लेख भी लिखे हैं । गीतों की प्रकाशित पुस्तकें देखी हैं और अनेक बार इन गीतों की धुनों को सुना है । ऐसे गीतों पर अन्य साधु-सन्तों, महात्माओं के गीतों की तरह "राग" शब्द अंकित हैं। “राग” के अतिरिक्त, देशी, ढाल, तर्ज, ढेर, लय आदि नाम भी पाये जाते हैं । प्रत्येक सम्प्रदाय के सन्त कवियों द्वारा विरचित गीतों पर अंकित " रागों" के नाम समान हैं । भले ही वे सन्त देश के किसी भी क्षेत्र अथवा समाज से सम्बन्धित रहे हों, जैसे – मीरां, नरसी, नामदेव, सूरदास, तुलसीदास, स्वामी हरिदास तथा पंजाब के सन्त आदि । शब्द एवं संगीत दोनों की उत्पत्ति नाद से है। आहत नाद से शब्द एवं स्वर उत्पन्न होते हैं । अनाहत नाद ज्ञान गोचर माना गया है, जिसका सम्बन्ध योगियों एवं सन्त-महात्माओं से है । तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्त-कवियों के गीत शास्त्रीय रागों से सम्बन्धित हैं। उन रागों को गाने-बजाने के लिए विधिवत् शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। उनका प्रयोग जब संत-कवि करते हैं तो वे धुनें सरल-सुगम होती हैं। उनका अनुकरण, उनके भक्त भी आसानी से कर आनन्द प्राप्त करते हैं। उन गीतों की गायन-शैली में कलाबाजी नहीं होती, फिर भी राग के स्वर-ताल को निभाने की दृष्टि से स्वर-समुदाय एवं आरोहावरोह, कोमल, तीव्र विश्रान्ति स्वर, न्यास, उपन्यास आदि स्वरों का ज्ञान साधारण है। ऐसा होना आवश्यक है, अन्यथा गीत पर राग नाम देने मात्र से कोई लाभ नहीं। ____ अनेक गायक राग न होने पर किसी भी गीत को गलत नाम दे देते हैं। श्रोता समझते हैं कि गायक ने राग को निभाया है। इस विषय में अनेक प्रमाण मिलते हैं। यहां उनका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं। गीत और संगीत के विषय परिचित न होने से गीत के भावों के विपरीत भाव वाली धुनें एवं रागें सामने आती हैं । वे कवि के भावों को प्रकट करने में बाधक होती हैं। कवि की रचना भक्ति-रस में है और राग वीर-रस का मिलता है, उपदेशात्मक गीतों को वियोग शृंगार की धुन में गाया जाता है। ऐसी धुनें एवं रागें "गीत" के मल लक्ष्य को प्रकट करने में सही नहीं उतरतीं और वह गीत समय पाकर सिनेमा के गीतों की तरह अनेक गीतों के नीचे दब जाता है। एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि सभी रागों का समय निश्चित है। समय पर गाने पर ही उनका प्रभाव श्रोताओं पर पड़ता है। जैन-सन्त कवियों के अनेक गीत ऐसे रागों पर हैं, जिनका समय रात्रि के द्वितीय प्रहर, तृतीय प्रहर एवं चतुर्थ प्रहर के रागों से सम्बन्धित है । उस समय संत गहरी निद्रा में होते हैं तथा उनका व्याख्यान (प्रवचन) देने का समय नहीं होता है। इस प्रकार उन गीतों को समय के विपरीत राग एवं धुनों में गाने का कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि गीत के भाव एक दूसरे के एकदम विपरीत होते हैं। तेरापंथ-सम्प्रदाय की "ढाले" नामक गीत राजस्थानी लोक गीतों पर आधारित होती हैं । उनका प्रभाव श्रावकों पर पड़ता है । वर्तमान गीतों की 'लय' आधुनिक धुनों पर आधारित होने से वे भावोत्पत्ति करने में बाधक हैं । राजस्थानी लोक-गीतों-जो मांगलिक एवं धार्मिक एवं आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत हैं, उनकी धुनें प्राकृतिक संगीत से सम्बन्धित हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए विचार बनता है कि गीत की शब्दावली के भावानुसार ही स्वर-लहरी एवं लय-ताल के भाव होने आवश्यक हैं। शब्द हृदय के भावों को उजागर करते हैं । स्वर भी हृदय में स्थित हैं, वे भावहीन नहीं हैं । दोनों का निवास स्थान हृदय है। फिर एक दूसरे के भाव विपरीत क्यों ? सन्तों ने शब्दों को प्रमुख माना और स्वर में अन्य व्यक्ति के कंठों को ग्रहण किया। वह व्यक्ति धार्मिक न होकर कलाबाजी पर जीवन व्यतीत कर रहा है। ऐसी स्वर एवं लय विषयक शिकायत को दूर करने के लिए अपनी आत्मा को ३१२ .. तुलसी प्रज्ञा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांगीतिक बनाना होगा । प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में सप्त स्वरों की हजारों स्वरलहरियों का भण्डार भरा है । उस भण्डार में से अपनी रुचि की धुनें चुनकर अपने गीत को गाना चाहिए । खंड २३, अंक ३ - डॉ. जयचन्द्र शर्मा निदेशक श्री संगीत भारती, बीकानेर । ३१३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अथ'--एक अर्थ-विश्लेषण ब्रजनारायण शर्मा संस्कृत, प्राकृत, पाली तथा हिन्दी भाषा में 'अथ' शब्द का विवेचन विविध अर्थों में उपलब्ध होता है । इस बहु-आयामी शब्द की अर्थतः तथा शब्दत: व्याख्या करना यहां अभीष्ट है। प्राय: सभी भाषाओं में 'अथ' की शब्दत: अव्यय के रूप में व्याख्या की गयी है। यहां उक्त चारों भाषाओं में मतैक्य है। किन्तु जब अर्थतः विश्लेषण का प्रश्न उठाया जाता है तब इस अव्यय पद के विभिन्न अर्थ प्रस्तुत किये जाते हैं । यहां कतिपय अर्थों का विवेचन प्रथमतः संस्कृत, तत्पश्चात् प्राकृत, उसके अनन्तर पाली और अन्त में हिन्दी भाषा के विविध दार्शनिक, भाषा सम्बन्धी अथवा कोश ग्रन्थों के आधार पर किया जा रहा है। अर्थविश्लेषण की प्रक्रिया प्रथमत: महर्षि पाणिनि से आरम्भ करने के पूर्व 'अथ' किन-किन संभावित अर्थों में प्रयुक्त किया जाता रहा है इसका किंचित् मात्र संकेत कर देना आवश्यक हैं । 'अथ' शब्द का प्रयोग निम्न अर्थों में प्राय किया जाता __ अधिकारार्थ या आरम्भ अर्थ में; मंगल सूचक अर्थ में; अनन्तर अर्थ में ; प्रश्न पूछते या आरंभ करते समय प्रश्नवाचक अर्थ में ; समष्टि या सम्पूर्णता अर्थ में; संदेह या अनिश्चितता अर्थ में; विकल्प अर्थ में; निश्चितार्थ द्योतित करने के अर्थ में; अपि (भी) अर्थ में; यदि के सह सम्बन्धी अर्थ में; आदि से अवसान तक बतलाने के अर्थ में आदि । अमरकोशकार ने भी अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से ही संभवतः 'मंगलानन्तरारम्भ प्रश्न कात्स्न्येनथो अथ' (अर्थात् मंगल, अनन्तर, आरम्भ, प्रश्न तथा सम्पूर्ण रूप) अथो तथा अथ के पांच पर्याय द्योतित किये हैं। अधिकारसूचक अर्थ महर्षि पतञ्जलि ने अपने सुविख्यात ग्रन्थ 'महाभाष्य' का श्रीगणेश 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र से किया है। महाभाष्यकार की भांति योग सूत्रकार भी योगसूत्र का आरंभ उसी प्रकार 'अथ योगानुशासनम्' सूत्र द्वारा करता है। दोनों ग्रंथों में 'अथ' शब्द अधिकार अर्थात् आरंभ अर्थ का वाचक है। योगसूत्र के भाष्यकार व्यास 'अथ' पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं अथ इति अयम् अधिकारार्थः । योगानुशासनं शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम्' (व्यास भाष्य पृ० २) अर्थात् योग सम्बन्धी समस्त विषयों का उपदेश करने वाला (व्याख्या करने वाला) शास्त्र यहां से आरम्भ होता है-ऐसा समझना चाहिये। तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ३ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अष्टाध्यायी' टीका 'काशिका' की 'पदमञ्जरी' टीका में भी इसी अर्थ की प्रतिध्वनि प्रसक्त होती है। यथा "अथेति । अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः । अधिकारः प्रस्ताव: प्रारम्भः । तम् अथ शब्दो द्योतयति । शब्दानुशासनमित्येतावत्युच्यमाने सन्देहः स्यात्-कि शब्दानुशासनं प्रारभ्यते ? उत् श्रूयते ? इति (पठ्यते ? श्रूयते वा ? इति) अथ शब्दे तु सति क्रियान्तरव्यवच्छेदेन प्रस्तूयत इति एषः अर्थ: निश्चीयते । विविक्ताः साधवः शब्दाः प्रकृत्यादिविभागतो ज्ञापयन्ते येन तत् शास्त्रम् अत्र शब्दानुशासनम् ।" (पृष्ठ ७) ____किंचित् हेरफेर से 'काशिका' की अन्य टीका न्यास (पृष्ठ ७) में शब्दश: यही व्याख्या दोहरायी गयी है। मात्र शब्दावली का थोड़ा-बहुत हेर-फेर है । अतः गुरु-शिष्य परम्परा से आगत अनादि शब्दशास्त्र तथा योगशास्त्र का 'अथ शब्दानुशासनम्' तथा 'अथ योगानुशासनम्' यहां से प्रारम्भ होता है, ऐसा अर्थ ध्वनित होता है। प्रश्न उपनिषद् (३।७) की ऋचा 'अर्थकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति ।' में इसी आरम्भ सूचक अर्थ की प्रतिध्वनि हुई है । मङ्गलसूचक अर्थ 'समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत्' अर्थात् समाप्ति की कामना रखने वाले व्यक्ति को मङ्गल करना चाहिए । इस शिष्टाचार अनुमित श्रुति तथा 'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्याणि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते' अर्थात् जिन शास्त्रों के आदि, मध्य तथा अन्त में मङ्गल किया जाता है, वे प्रख्यात होते हैं। इस महाभाष्य रूप स्मृति प्रमाण से ग्रन्थ के आदि में मङ्गल अवश्यमेव करना अभीष्टदायक समझा गया है। जिस प्रकार परदेश-गमन करने वाले व्यक्ति के लिए दही और जलपूर्ण कुम्भ दर्शनमात्र एवं मृदङ्गध्वनि श्रवण मात्र से मङ्गलप्रद माने जाते हैं उसी प्रकार ग्रन्थ के आदि में प्रयुक्त 'अथ' शब्द भी मङ्गलवाचक है । कहा भी गया है-- ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतो ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्वा विनिर्याती तस्मान्माङ्गलिकावुभौः ।। (उद्धृत काशिका टीका पृ. ७) अर्थात् (ॐ) ओङ्कार और अथ शब्द, ये दोनों, सृष्टि के आदि काल में ब्रह्मा के कण्ठ से प्रकट हुए हैं, इस कारण दोनों शब्द मङ्गलवाचक माने जाते हैं। सांख्यसूत्रकार महर्षि कपिल ने भी 'अथ' को मङ्गलवाचक मानकर 'सांख्यषडाध्यायीसूत्र' का आरम्भ 'अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिः अत्यन्त पुरुषार्थः' सूत्र से किया है । सूत्र के प्रवचनभाष्यकार आचार्य विज्ञानभिक्षु ने भी अपने भाष्य में अथ शब्द को यहां मङ्गल का वाचक ही माना है-- "अथशब्दोऽयमुच्चारणमात्रेण मङ्गल रूपः । अतएव मङ्गलाचरणं शिष्टाचारादिति स्वयमेव पञ्चमाध्याये वक्ष्यति ।". प्रसंगानुसार 'अनन्तर' अर्थ में प्रयुक्त 'अथ' शब्द की व्याख्या करने के पश्चात् ३१६ * तुलसी प्रज्ञा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य अर्थ के रूप में आचार्य शंकर ने 'अथ' को मङ्गलसूचक भी द्योतित किया है यथा"अर्थान्तरप्रयुक्तः अथ शब्द: श्रुत्या मङ्गलमाचरयति अथ निर्वचनम् ।" (शंकर भाष्य १।१।१) अनन्तरसूचक अर्थ ___ महर्षि कणाद, महर्षि जैमिनि तथा महर्षि बादरायण ने अपने-अपने सूत्र ग्रन्थों-(वैशेषिक सूत्र, मीमांसा सूत्र, ब्रह्मसूत्र) का सूत्रपात भी 'अथ' शब्द से किया अथातो धर्म व्याख्यास्यामः (वैशेषिक सूत्र १११।१) अथातो धर्म जिज्ञासा (मीमांसा सूत्र १११) अथातो ब्रह्म जिज्ञासा (ब्रह्म सूत्र ।।१।१) अथ -- शिष्यप्रश्नानन्तरम् अत:--श्रवणादिकुशलानां अनसूचकानाञ्च शिष्याणामुपसन्नेन धर्म व्याख्यास्यामः---तेभ्यो ज्ञानजनकं धर्म निरूपयिष्यामः । इस प्रकार अपनी उपस्कार टीका में शंकरमिश्र ने स्पष्टत: अंकित किया है कि शिष्य की आकांक्षा के अनन्तर ही धर्म की व्याख्या करना यहां अभीष्ट है । यहां 'अथ' शब्द अनन्तर का ही सूचक माना गया है । ___ इसी प्रकार 'अथातो धर्म जिज्ञासा' सूत्र में 'अथ' अनन्तर अर्थ का वाचक है यथा 'अथ- वेदाध्ययन अनन्तरम् अत:-वेदाध्ययनस्यार्थज्ञानरूप दष्टफलकत्वेन धर्मजिज्ञासा----धर्म विचार कर्त्तव्यः' अर्थात् बेदअध्ययन के पश्चात् इसके ज्ञान रूप दृष्ट फल की उपलब्धि हेतु धर्म की विवेचना और विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है। इसी तरह अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' सूत्र में भी आनन्तर्य का बोध होता है. अथ के द्वारा। यथा-'अथसाधनचतुष्टयसम्पत्त्यनन्तरम् अत:--यज्ञादिकर्मणोऽनित्यफलकत्वेन ब्रह्मजिज्ञासा ब्रह्मविचार कर्त्तव्यः' अर्थात् साधनचतुष्टय - १. नित्यानित्यवस्तुविवेक, २. एहामुत्रार्थफलभोगविराग, ३. शम, दम आदि षट् साधन एवं ४. मुमुक्षत्व की प्राप्ति के अनन्तर यज्ञ आदि कर्म अनित्य फल प्रदाता होने से (निष्फल होने के कारण) अब ब्रह्म का विचार-विमर्श करना चाहिए। उपनिषद् वाडमय में अथ शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में किया गया है। अतः हम उन्हीं से प्रमुखतः उदाहरण लेकर अपने मन्तव्य की पुष्टि करेंगे। अनन्तर अर्थ के उदाहरण केन, प्रश्न, छन्दोग्य एवं वृहदारण्यक उपनिषदों में प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त होते हैं यथा--- अथाध्यात्म यदेतदभच्छतीव च मनोऽनेनन चैतदुपस्मरत्यभीक्षणं संकल्पः । -केन उप० ४।५ यहां चतर्थ खण्ड के प्रथम चार मंत्रों में इन्द्र, अग्नि, वायु देव आधिदैविक शक्तियों से ब्रह्म श्रेष्ठ है यह संकेत देने के पश्चात् अगले पांचवें मंत्र से आध्यात्मिक शक्तियों से भी ब्रहा की श्रेष्टता ज्ञापित की गयी है। यहां अथ अनन्त र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । प्रश्न उपनिषद में तो कबन्धी कात्यायन (१।३) भार्गव वैदभि (२।१) खण्ड २३, अंक ३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशल्य आश्वलायन (३१२) सौर्यायिणी गार्ग्य (४११) शैक्य सत्यकाम (५॥१) एवं सुकेशा भारद्वाज (७।१) अपने-अपने प्रश्न एक के बाद एक महर्षि पिप्पलाद के सम्मुख रखते हैं। यथा ---अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य प्रपच्छ । अथ हेनं भार्गवो......."अथ हेनं कौशल्य........ अथ हैनं सौर्यायिणी.....अथ हैनं शैव्य० अथ हैनं सुके शा०". इति । छान्दोग्य उपनिषद् में देव और असुर दोनों प्रजापति की संतान घोषित की गयी हैं । इनमें से जब देवों ने ॐ प्रणव का जप कर जब यह सोचा कि अब हम इसके सम्बल पर असुरों पर विजय प्राप्त कर लेंगे तब असुरों ने एक के पश्चात् एक नासिका, वाक, नेत्र, श्रोत्र, मन और प्राण जहां-जहां से निर्गत होकर उद्गीथ उपासना संभव थी उसको दुषित कर दिया। यथा--"अथ ह वाच मुद्गीथमुवासांचक्रिरे .............." अथ ह य एवायं मुख्य: प्राणस्तमुदगीथमुपासांचक्रिरे । (२१३-७) यहां भी सभी मंत्रों में अथ अनन्तर अर्थ को द्योतित करता है । इस उपनिषद् में अन्यत्र भी कई मंत्रों में अथ शब्द का प्रयोग अनन्तर अर्थ में किया गया है (१।११।१,४; ४।५।१; ५।१३।१) बृहदारण्यक के विभिन्न मंत्रों में भी ऐसा ही प्रयोग हुआ है यथा --- अथ हैन मनुष्या ऊचुर्ब्रवीतु....... ......"अथ हैनमसुरा ऊचुर्ब्रवीत..............." (५।२।२-३) प्रजापति के पास जव देवता, मनुष्य और असुर जाते हैं तब उन्होंने एक के अनन्तर एक तीनों को 'द' अक्षर का उपदेश दिया जो तीनों के लिए क्रमशः दमन, दान और दया का परिचायक था। इसके पूर्व भी प्रथम अध्याय के तृतीय भाग के तीसरे से लेकर सातवें मंत्र में अथ शब्द अनन्तर अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसी तरह रघुवंश में “अथ प्रजानाधिपः प्रभाते वनाय धेनुं मुमोच" (२।१) इसकी आवृत्ति हुई है । प्रश्नार्थ सूचक प्रश्न आरम्भ करते हुए या पूछते हुए भी अथ शब्द का प्रयोग बहुधा प्रश्नवाचक शब्द के साथ हुआ है । प्रश्न उपनिषद् में महर्षि पिप्पलाद से प्रश्न करते हुए छः ऋषिकुमारों के प्रश्न इस संदर्भ में भी परिगणित किये जा सकते है जिनकी चर्चा हम उपर्युक्त स्थल में कर चुके हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में आरूणि पुत्र श्वेतकेतु जब पाञ्चाल नरेश जैर्बाल प्रवाहण की सभा में जाकर अपने पिता से सारी विद्याएं सीख लेने की बात करता है तब राजा उससे पांच प्रश्न करते हैं। इसी प्रसंग में मंत्र ५।३।४ में अथ शब्द का उपयोग प्रश्न अर्थ में किया गया हैं --'अथानु किमनुशिष्टोऽवोचथा'........। इसी प्रकार पञ्चम प्रपाठक के कैकेयराज अश्वपति तथा उपमन्युवंशी प्राचीनशाल, पुलुषवंशी सत्यप्रज्ञ, मल्लववंशी इन्द्रध्युम्न, शर्कराक्षवंशी जन, आश्वतरास्की वंशी बुडिल आदि श्रोत्रिय गृहस्थ पण्डितगण और महर्षि उद्दालक के वैश्वानर ब्रह्म के सम्बन्ध में जो वाद-विमर्श हुआ है उसमें भी मंत्र ५।१३।१, ५।१४।१, ५॥१५॥१, ५।१६।१, ५।१७।१, में अथ प्रश्नार्थक अर्थ में विवेचित किया गया है। इसी प्रकार बहदारण्यक उपनिषद् के मंत्रों-३।३।१, ३।४।२, ३।५।१, ३।६।१, ३७।१, ३।८।१, ३।९।१ एवं ३।९।२७ में भी इसी अर्थ की प्रतिध्वनि हुई है । शकुन्तला नाटक में भी इसकी प्रतिच्छवि मिलती है-'अथ सा तत्र भवती ३१८ तुलसी प्रज्ञा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमारव्यस्य राजर्षों पत्नी (७) । समष्टि या सम्पूर्णता वाचक अर्थ महर्षि पिप्पलाद कबन्धी कात्यायन की जिज्ञासा का उपशमन करते हुए कहते हैं कि रयि और प्राण के मिथुनोत्पादन से सृष्टि की रचना होती है। इसी प्रसङ्ग में वे 'अथ' शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं ... 'अथादिव्य उदयन्यत्प्राची दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान्प्राणान् रमिषु संनिद्यन्ते । यद्दक्षिणां.. . संनिद्यत्ते ।' (१६) अर्थात् सूर्य अपनी प्राणशक्ति किरणों में डालकर समस्त संसार तक पहुंचाता है। पूर्व, प्रतीची (पश्चिम) उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अध: वायव्य-नैऋत्य आदि अवान्तर दिशाओं अर्थात समस्त दश दिशाओं में जितने भी रूप प्रतिलक्षित होते है, भासित होते हैं सभी रवि-रश्मियों से प्रकाशित होते हैं। समष्टि अर्थ में ही वैशेषिक सूत्र 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' की विवेचना की जा सकती है जहां धर्म की समस्त विवरण सहित व्याख्या इस सत्र से आरंभ करने का संकेत किया गया है। संदेह या अनिश्चित अर्थ कभी-कभी अथ श द का प्रयोग संदेहमूलक तथ्य की अनिश्चितता ज्ञापित करने के लिए भी किया जाता है। जैसे नैयायिकों की दृष्टि से शब्द को अनित्य माना गया है जबकि मीमांसक उसे नित्य घोषिन करते हैं। अतः जब दोनों स्थितियां एकत्र संलग्न कर दी जाती है तब संदेह उत्पन्न होकर तत् पदार्थ को अनिश्चित बना देती है । यथा-- 'शब्दो नित्योऽथानित्यः' विकल्पसूचक अर्थ 'अथ' शब्द 'वा' के साथ संयुक्त होकर विकल्प का बोध कराता है। संस्कृत वाङ्मय में जहां-जहां भी विकल्प की चर्चा आयी है वहां-वहां 'अथवा' शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है । अथवा शब्द का प्रयोग महाकवि कालिदास ने स्थानस्थान पर पर्याप्त रूप से किया है । यहां रघुवंश के दो ही उद्धरण काफी होंगे (१) गमिष्याम्युपहास्यताम ... ..''अथवा कृतवागद्वारे वंशेस्मिन् (१।३-४) (२) अथवा मदु वस्तु हिंसितुम् (८।४५) बृहदारण्यक उपनिषद् में अथवा पद का प्रयोग कई स्थानों पर विकल्प अर्थ में में ही हुआ है । यथा- अथोऽयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः..."(१।४।१६) तथा 'अथेत्यभ्यमन्थत्स मुखाच्च योनेहस्ताभ्यां चाग्निमसृजत (१।४।६) उत्तर रामचरित्र में अथवा विकल्प अर्थ में व्यवहृत है यथा 'दीर्थे कि न सहस्रधाहमथवा रामेण किं दुष्करम्' (६।४०) निश्चितार्थद्योतक या व्याख्या अर्थ __संहिता-पंचक रहस्य की व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षावल्ली के तृतीय अनुवाक के दूसरे मंत्र से छठे मंत्र तक लोक, ज्योति, विद्या, प्रजा एवं शरीर के खण्ड २३, अंक ३ ३१९ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व-पर-सन्धि-सन्धायक रूप की विवेचना की गयी है यथा लोक पूर्व और पर (या उत्तर) रूप पृथिवी एवं छू लोक हैं, आकाश सन्धि तथा वायु संधायक है ............... अथाधिलोकम् । पृथिवीपूर्वरूपम् । धौरुत्तररूपम् । आकाश: सन्धिः वायु संधायक (१॥३॥२-६) छान्दोग्य उपनिषद् और बृहदारण्यक उपनिषदों में अथ शब्द का प्रयोग व्यारु [ या निश्चितार्थद्योतन हेतु प्रचुर मात्रा में किया गया है यथा - छान्दोग्य उपनिषद् में ऋग्वेद और सामवेद की ॐकार के लिए 'प्रणव' तथा उद्गीथ शब्द के प्रयोग एवं ब्रह्माण्ड और पिण्ड की अभिन्नता को निश्चयपूर्वक विवेचित करने के लिए प्रथम प्रपाठक के षष्ठ खण्ड के पंचम और षष्ठ मंत्रों में अथ शब्द का प्रयोग हुआ है यथा – 'अथ यदेतदादित्यस्य शुक्लं भा: संवर्गथ पन्नीलं परः कृष्णं तस्साम्....... .." साम गीयते । अथ यदेवैतदादित्य'.. ' एव सुवर्णः । सप्तम खण्ड के प्रथम, चतुर्थपंचम, सप्तम्-अष्टम मंत्रों में भी अध्यात्म रूप से पिण्ड तथा आधिदैवत रूप में ब्रह्माण्ड की अभिन्नता की व्याख्या की गयी है । इसी प्रकार पंचविध और सप्तविध सामग'नोपासना की विवेचना (२।१।३; २।२।२; २।८।१; २।९।१,३-८; २।१०।१) की गयी है। इसी प्रकार इस उपनिषद् में विभिन्न उपासनाओं की व्याख्या इसके तृतीय प्रपाठक. से लेकर अष्टम प्रपाठक के अनेक मंत्रों में अथ के द्वारा सम्पादित की गयी है । बृहदारण्यक के प्रथम अध्याय के चतुर्थ भाग में 'स्वलोक' अथवा 'आत्मलोक' की संकोच-विकासशील व्याख्या करते हुए अथ शब्द से आरम्भ कर विभिन्न देवलोक, ऋषिलोक, पितृलोक, मनुजलोक, पशुलोक, जन्तुलोक की व्याख्या करते हुए आत्मा के ब्रह्ममार्ग द्वारा आरूढ़ होने की मीमांसा की गयी है। अन्यत्र भी प्राणों की उत्कृष्टतमता बतलाने के लिए अथ शब्द व्याख्या अर्थ में प्रयोग हआ है (१।५।१२-१७; २१-२३) अन्य अध्यायों में अथ शब्द का प्रयोग विवेचना या निश्चितार्थद्योतन हेतु हुआ है यथा—२।३।३-५; ३।३।१; ३।४।१; ३१५११४।२।३; ४।५।१; ६।३।४-६ एवं ६।४।२४ यदि-तो; जो-वो; जहां-वहां; ज्यों-त्यों; जब-तब अब का सूचक उपनिषद् वाङ्मय और संस्कृत के साहित्य-ग्रंथों में 'अथ' शब्द का विविध अर्थों में उपयोग किया गया है । जैसे यदि-तो अर्थ में प्रश्न उपनिषद् में ॐकार की उपासना हेतु कहा गया है कि यदि साधक ॐकार का द्विमात्रक ध्यान करता है तो वह यजुर्वेद मंत्रों से अन्तरिक्ष के चन्द्रलोक में स्थान ग्रहण करता है यथा -- अथ यदि द्विमात्रेण मनसि .. ...." सोमलोकम् ।' (४।४) छान्दोग्य उपनिषद् में 'जो-वो या वही' अर्थ की सूचक यह पंक्ति है-- अथ खलु य उद्गीथ : स प्रणवो यः प्रणवः स उदगीथ इति (१५१) इस मंत्र की आवृत्ति पंचम मंत्र में भी हुई है । अर्थात् जो उद्गीथ है वही प्रणव है तथा जो प्रणव है वही उद्गीथ है । यदि-तो का प्रयोग भी इस उपनिषद् में अनेक स्थलों पर हआ है । जैसे ---४।१७।५-६; ५।२।४; ६।१६।२; ८।२।२-७,९ बृहदारण्यक में भी इसी अर्थ में अथ शब्द का प्रयोग हुआ है यथा-६।४।६,१०,११-१२, इसी उपनिषद् में अनेक बार जो-वो या जिसकी-उसे या जो-वही का प्रयोग अथ के लिए हुआ है ३२० तुलसी प्रज्ञा , Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा – ६।४।१३,१५-१८ इसी तरह छान्दोग्य उपनिषद् की इस ऋचा 'अथ यत्रेपाकृते प्रातरनुवाके .... हीयतेऽन्यतरा । ( ६ | १४|४) अथ यत्रैतदाकाशमनुविषण्णं चक्षुः स चाक्षुषः पुरुषो दर्शनाय चक्षुरथ यो वेदेदं ***(518218) प्राण और इन्द्रियों में श्रेष्ठ कौन है ? इसका बड़ा ही रोचक वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् के पंचम प्रपाठक के प्रथम खण्ड में किया गया है । इसी खण्ड में ज्योंही प्राण बाहर जाने का संकेत करता है त्योंहि इन्द्रियां मृतप्राय सी होकर प्राण की अभ्यर्थना करती हैं कि आप ही हम सबसे श्रेष्ठ हैं । यथा - अथ ह प्राण उच्चित्र मिषन्स यथ सुहयः त्वं नः श्रेष्ठोऽसि मोत्क्रमीरिति ( ५।१।१२ ) ज्यों-त्यों के साथ ही इसी उपनिषद् में जब-तब अर्थ में भी अथ का प्रयोग हुआ है यथा - अथ मे विज्ञास्यसीति' सहाशाथ हैनमुपससाद" । अब अर्थसूचक मंत्र इस प्रकार है 'अथ खलूद्गीथाक्षराण्युपासीतोद्गीथ इति' । अर्थात् अब उद्गीथ शब्द के अक्षर समूह की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है । अब अर्थ में ही आगे भी अथ का प्रयोग उपलब्ध होता है जहां साम और ऋक् ऋचाओं की ऐक्यता का परिचय दिया गया है । आदि अवसान सूचक अर्थ प्रायः अनेक स्थलों पर 'आरम्भ से समाप्ति' को सूचित करने के लिए भी 'अथ और इति' का प्रयोग किया जाता है । 'अथ से इति तक' 'आदि से अन्त तक' का सूचक माना गया है । पालि-ग्रन्थों में भी अथ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। निम्नाfarक्यों में अथ के विविध अर्थ अवलोकित किये जा सकते हैं १. अथ एक दिवस राजा (महावंश २७ ) -- अब एक दिन राजा । २. अथ एवं उपसंकम्म ( बही २४३ ) - तब उसके पास पहुंचा । ३. अथ उग्गहोसयि संघो ( वही २५२ ) - तब संघ जोर से बोला । ४. अथ नं सक्को एवं आह (जातक २) और सक्क ने इससे ऐसा कहा । ५. अथापरं ( अभिदानप्प दीपिका) और आगे । ६. अथ खो उत्तरो मानवो ( कच्चायन व्याकरण पृ० ७० ) - और उत्तर) ७. अथा सच्चे हि मन्तेत्वा ( महावंश ५३ ) इस तरह मंत्री के साथ परामर्श करके । ८. नदिन्दोऽथ ( वही १५७) एक दिवस राजा । ९. यदा... .... अथ ( दीघनिकाय ४९ ) जब-तब । १०. पढमं ...........अथ ( वही २९) प्रथम 'तब । ११. वन्दित्वा सम्मा सम्वुहं आदितो अथ धम्मं च संघं च ( वही ) प्रथमतः बुद्ध भगवान् को नमन करने के उपरान्त धर्म फिर संघ को नमन करे । १२. अथ किं करिस्ससि ( दीघ निकाय ९३ ) - आखिरकार आप करना क्या चाहते हैं ? १३. अथ च पन (जातक १७ ) - परन्तु दूसरी ओर । खंड-२३, अंक - ३ कि ३२१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. नोऽहं एतं भन्ते अथ खो नं मयं एव अभिवादेय्याम् (दीघ निकाय ४८) --ऐसा नहीं, भन्ते, नहीं मैं आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम करता हूं। १५. सता'ऽअथो दस खुद्दक निकाय १३)-एक सौ और दश । (महा० १४४) १६. अथो जातिक्खयं पत्तो (दीघ निकाय ७५)-उसने भी जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया। १७. अहो पि स वकच्च सुणन्तु (खुद्दक निकाय ६)-उन्हें भी सावधानीपूर्वक सुनना चाहिए। दीघ निकाय १५, २५, ४८ में अथवा (विकल्प के रूप में) अथो या अहो क्रियाविशेषण के रूप में भी अनेक स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार पालि भाषा में भी 'अथ' शब्द का प्रयोग-और, अब, तब या तो, उसके अनुसार, एक दिवस, (अनिश्चित अर्थ में) प्रथम-तब, 'यदा अथ', परन्तु, और फिर, विकल्प अर्थ आदि विविध अर्थों में किया गया है। प्राकृत भाषा में जैन विद्वानों ने अथ शब्द को 'अह' या 'अध' के रूप में प्रयुक्त किया है। प्राकृत हिन्दी कोश में अथ (अह) शब्द के निम्नांकित अर्थ दिये गये हैं(१) अब, बाद या अनन्तर (२) अथवा (३) और (४) मंगल (५) प्रश्न (६) समुच्चय या समग्र (७) प्रतिवचन (८) उत्तर विशेष (९) यथार्थता या वास्तविकता (१०) पूर्वपक्ष (११) पादपूर्ति हेतु (१२) वाक्यालंकार के रूप में। कुछ उदाहरण इस प्रकार दिये जा सकते हैं - . १. अह पुण एवं जाणेज्जा (आयार चूला १।२।२२, २५, २८) अब ऐसा जानना चाहिए। २. अह एसि विणासे उ (सूयगडो १।११८) इसके नष्ट होने के पश्चात् । ३. अह पास विवेगमुट्ठिए (वही २।१८)-अब देखो जो विवेक से उद्यत होता ४. (अह आहु) अहाहु से लोगे कुसील धम्मे (वही १७।५)-वह लोक में कुशील धर्म वाला है। ५. अह पास तेहि-तेहिं कुलेहि आयत्ताये जाया (आचारांग ६।८)-'देखो ! उसी-उसी कुल में आकर जन्म लेता है । ६. अह भंते (ठाणं ३।१२५; भगवई १।११३; २०।३।२०-वाक्यालंकार के __रूप में । ७. अह एत्तिओ हवई' दो सो (नाया० १११७॥३६॥२)-- इतना दोष होता ८. अह केरिसकं पुणाइ सच्चं तु भासियत्वं (पण्हावागरणाउ ७।१४)- तो किस प्रकार से सत्य बोलना चाहिए ? इनके अतिरिक्त आचारांग सूत्र १।६।२।१८३; दशवकालिक सूत्र ५१२९६ ६८ ३२२ तुलसी प्रज्ञा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावाश्यक भाष्य ११८, १३४; ज्ञाता धर्मकथा (णाणो धम्मकहाओ) १,८,१७, ३६,२; निशीथ सूत्र ९।१२, २०।११; व्यवहार सूत्र ६।२; वृहत्कल्प २।२; सूयगडो २'१११८, १।१६।६, १५१८; उत्तराध्ययन २।४१; पिण्ड नियुक्ति ५३; भगवती १।११३; उपासक दशा ११५७; अणुयोगद्वार ३।२५! प्रश्नव्याकरण ७।१४ में भी 'अथ' शब्द का उक्त अर्थों में बहुलता के साथ प्रयोग किया गया है । बृहत हिन्दी कोश (ज्ञानमण्डल, बनारस) में अथ शब्द के निम्नलिखित अर्थ दिये गये हैं--(अव्यय) (१) आरम्भ (२) मंगलसूचक (३) अब (४) तब (५) अनन्तर (६) अगर (७) आरम्भ आदि (८) अथ से इति तक अर्थात् आदि से अन्त तक। ___ अंग्रेजी कोशों में भी ये अर्थ दिये गपे हैं ---1. Now 2. Then 3. Moreover 4. Rather 5. Certainly 6. But 7. Else 8. What 9. Howelse 10. After. -डा० ब्रजनारायण शर्मा श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी र २३, अंक ३ ३२३ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? सागरमल जैन वर्तमान में 'प्राकृत विद्या' नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रह पूर्वक यह प्रतिपादन कर रहा है कि "जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जिसे कालान्तर में परिवर्तित करके अर्धमागधी बना दी गई। इस वर्ग का यह भी दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है, और अन्य सभी प्राकृतें यथा-मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित हुई हैं, अतः वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम में दिगम्बर-परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्ब रूपों को परिवर्तित कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों को दिगम्बर-परम्परा में मान्य आगम तुल्य ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की खाई गहरी होती जा रही है और इन सबमें एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय अध्ययन को पीछे छोड दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा। क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था? - यहां सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूंगा कि क्या जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया ? कुछ जैन विद्या के विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर, दिगम्बर किन्हीं भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो० टॉटिया के व्याख्यान के कुछ अंश उद्धृत करते हैं। डॉ० सुदीप जन ने प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है : "हाल ही में श्री लालबहादुरशास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो० नथमलजी टॉटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीनतुलसी प्रज्ञा, लारन : खंड २३ अंक ३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप, चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के आचारांगसूत्र, दशवकालिकसूत्र आदि हों अथवा दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका में एक बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी निबद्ध बौद्ध साहित्य के ग्रंथों को अग्निसाव कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका रूप क्रमश: अर्धमागधी में बदल गया । यदि हम वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य मानने पर जोर देगें, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को भी ५०० वर्ष ई० के परवर्ती मानना पड़ेगा ।" "उन्होंने स्पष्ट किया कि आज भी आचारांगसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती हैं, जबकि नये प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्द्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन साहित्य में ही शौरसेनी भाषा के प्राचीन रूप सुरक्षित उपलब्ध हैं।" निस्संदेह प्रो० टॉटिया जैन और बौद्धविद्याओं के वरिष्ठतम विद्वानों में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद प्रश्न हैं ? क्योंकि एक ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टॉटियाजी ने इसका खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून, ९३ खण्ड २२ अंक ४) में लिखते हैं कि "डॉ० नथमल टाटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन किया है कि महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।" दूसरी ओर प्राकृतविद्या के सम्पादक डॉ. सुदीपजी का कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उन्हें अविकल रूप से यथावत् दिया है । मात्र इतना ही नहीं डॉ० सुदीपजी का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे टॉटियाजी से मिले हैं और टॉटियाजी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं । टॉटियाजी के इस कथन को उन्होंने प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर ९६ के अंक में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया : "मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर पूर्णतया दृढ़ हूं तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।" (पृ. ९) यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और डॉ० टॉटिया का मूल मन्तव्य क्या है, इसका ३२६ तुलसी प्रज्ञा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्णय तो तभी संभव है जब डॉ० टॉटिया स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस संबंध में मौन हैं । मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डॉ० टॉटिया की उलझन समझता हूं एक ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें इक्यावन हजार का कुन्दकुन्द पुरस्कार देकर पुरस्कृत किया है तो दूसरी ओर वे 'जैन विश्वभारती' की सेवा में हैं, जब जिस मंच से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें ? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती है कि डॉ० टॉटिया जैसा गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दे । कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही है । डॉ० सुदीपजी प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर ९६ में डॉ० टॉटियाजी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला से है।" तात्पर्य है कि हरिभद्र ने योगशतक को धवला के आधार पर बनाया है । क्या टॉटियाजी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्रसूरि और धवला के कर्ता में कौन पहले हुआ है ? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि का योगशतक (आठवीं शती) धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है । मुझे विश्वास भी नहीं होता है कि टॉटियाजी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया जा रहा है। डॉ. टांटिया जी को अपनी चुप्पी तोडकर भ्रम का निराकरण करना चाहिए। वस्तुतः यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसे मान्य नहीं किया जा सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान ने क्यों नहीं कहा हो ? यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टॉटियाजी से भी वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन बौद्ध विद्याओं के महामनिषी और स्वयं टॉटियाजी के गुरु पद्म विभूषण पं० दलसुख भाई हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक मानकर 'प्राकृत विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा । खैर यह सब प्रास्ताविक बातें थीं, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या है, कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत संगोष्ठी की क्या आवश्यकता है ? हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी? और अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है ? भागमों को मूलभाषा-अर्धमागधी ..., (क) यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था, अतः यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी बर्थात् अर्धमागधी रही होगी। व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती है । पुनः श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध हैं, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि महावीर २३, बंक ३ ३२७ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मै अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिये थे। इस सम्बन्ध में अर्धमागधी आगम साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे है यथा : १. भगवं चणं अदमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। -समवायांग, समवाय ३४ सूत्र २२ २. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भभसारपुतस्स अद्ध मागहीए भासाए भासंति अरिहाधम्म परिकहइ ।- औपपातिक सूत्र ३. गोयमा ! देवाणं अद्धमागहीए भासाए भासंति सवियणं अद्धमागंहा भासा भासिज्जमाणी विसज्जति ।- भगवई, लाडनूं शतक ५ उद्देशक ४ सूत्र ९३ ४. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्त माहणस्स देवाणंदा माहणीए तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए""राव्व भासाणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ । -भगवई, लाडनूं शतक ९ उद्देशक ३३ सूत्र १४९ ५. तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खात्तियकुमारस्स"अद्धमागहाए भासाए भासद धम्म परिकहइ । -भगवई, लाडनूं शतक ९ उद्देशक ३३ सूत्र १६३ ६. सव्वसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहाए भासाए सुत्तं उवदिळें ।-आचारांग चूणि जिनदासगणि पृ. २५५ मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर-परम्परा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ मोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका में दिगम्बर आचाय श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिये उस टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है।- अर्ध मगघदेश भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान की ध्वनि खिरती है । शंका--अर्धमागधी भाषा देवकुल अतिशय कैसे हो सकती है, क्योंकि भगवान की भाषा ही अर्धमागधी है ? उत्तर-मगध देश के सान्निध्य से होने से । आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखा है-“एक योजन तक भगवान की वाणी स्वयमेव सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्य ध्वनि का विस्तार मगध जाति के देव करते हैं । अतः अर्धमागधी भाषा देवकृत है। (षट्प्राभूतम् चतुर्थ बोध पाहुड टीका पृ. १७६।३२) मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगम्बर-परम्परा के महान संत एवं आचार्य विद्यासागरजी के प्रमुख शिष्य मुनिश्री प्रमाणसागरजी अपनी पुस्तक जैनधर्मदर्शन प. ४० में लिखते हैं कि 'उन भगवान महावीर का उपदेश सर्वगाह्य अर्धमागधी' भाषा में हुआ। जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं यह मानकर चल रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा में उनके उपदेशों के माधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा ३२८ तुलसी प्रज्ञा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा है ? (ख) उपरोक्त आगमिक प्रमाणों की चर्चा के अलावा व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं १. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। अत: सिद्ध है कि आगमों की मूलभाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। २. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों में किसी एक भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं हैं, जिससे यह प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें मात्र यह उल्लेख है कि तीथंकर की जो वाणी खिरती है, वह सर्व भाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि उनकी वाणी जन साधारण को आसानी से समझ में आती थी। यह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय वोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। ३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहां की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है । प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा आचारांग, सूत्रकृतांग, इतिसभासियाई (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएं हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि महावीर ने बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया हो । अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी। ४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और दूसरी वाचना खण्डगिरी (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं, अतः कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक अर्थात् ई. पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का केन्द्र पाटलीपुत्र से हटकर लगभग ई. पू. प्रथम शती में मथुरा बना तो उस पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ हो । यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना यही सिद्ध करता है, जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र (दूसरी शती) के समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय परम्परा में मान्य आचरांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, निशीथ, कल्प आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं । यदि डॉ० टांटिया ने यह कहा है कि आचारांग आदि श्वेताम्बर बंर २३, बैंक ३ ३२९ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमों का शौरसेनी प्रभावित संस्करण भी था, जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है क्योंकि भगवती आराधना की टीका में आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो संदर्भ दिये गये हैं वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं । किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और वे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये । ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् हुई थी और उसमें जिन आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनियों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को मान्य किया था, किन्तु दिगम्बरों के लिये तो, वे आगम भी मान्य नहीं थे, क्योंकि उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ही आगम साहित्य तो विलुप्त हो चुका था। श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि तो ई. पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की रचनाएं हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य है कि मथुरा का जैन विद्या के केन्द्र के रूप में विकास ई. पू. प्रथम शती से ही हुआ है और उसके पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्रभाव आया होगा। आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन : कब और कैसे ? यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना के समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वलभी (गुजरात) में नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई थी और इसी काल में उस पर महाराष्ट्री प्रभाव भी आया। क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं । अतः इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा की चतुर्थ-पंचम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम ही थे। यहां भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था । वास्तविकता यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की क्षेत्रीय बोली से अर्थात उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता है, यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली शौरसेनी से प्रभावित हुए और जो पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ, उसके आगम पाठ इस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुनः यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, यही कारण है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में है और न वलभी वाचना के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में है, उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप तो उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी तुलसी प्रमा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ-साथ महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते हैं, यही कारण है कि भाषाविद् उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री कहते हैं । दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई दी जा रही है, उनमें से अनेक आगम ५० प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हैं । श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में प्राकृत के रूपों का जो वैविध्य हैं, उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने लेख 'जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श', सागर जैन विद्याभारती (भाग १ पृ. २३९-२४३) में की हैं। प्रस्तुत प्रसंग में उसका निम्न अंश द्रष्टव्य है :---- "जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी तथा शौरसेनी ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है । वस्तुत: इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर हम क्रमश: विचार करेंगे : १. भारत में, वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र रूप में मानकर उनके स्वर व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर अधिक बल दिया गया, उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्वपूर्ण रही और अर्थ गौण रहा । यही कारण है कि आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्द रूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना गया कि तीथंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है । अत: जैनाचार्यों के लिये अर्थ या कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द रूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्जन होते गये । इसी क्रम में ईसा की चतुर्थ शती में अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी प्रभावित और महाराष्ट्री प्रभावित संस्करण अस्तित्व में आये । २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्षु संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षु गण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती थी, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएं आ गयीं। ३. जैन भिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव भी पड़ता ही था, फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और उनमें तत् तत् क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता गया। उदाहरण के रूप में बण्ड २३, ३ For Private &Personal use only... .. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव आ जाता है । फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो गई । ४. सामान्यतया बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के २००-३०० वर्ष के अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही है। आज भी लंका, बर्मा, थाईलेण्ड आदि देशों के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका वह गुरुशिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा फलतः देशकाल - गत उच्चारण भेद से उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया । मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोली से प्रभावित हुए। श्वे ० आगमों की प्रतिलिपियां मुख्यतः गुजरात एवं राजस्थान में हुई, अत: उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया। ५. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या ताडपत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था । लगभग ई. सन् की ५ वीं शती तक इस कार्य को पाप - प्रवृत्ति माना जाता था तथा इसके लिये दण्ड की व्यवस्था भी थी । फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत परम्परा पर ही आधारित रहा । श्रुत परम्परा पर आधारित होने से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया । ६. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है । प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र का होता था, उस पर भी उस क्षेत्र की बोली / भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से वह अपनी प्रादेशिक बोलो के शब्द रूपों को लिख देता था । उदाहरण के रूप में चाहे मूलपाठ में " गच्छति" लिखा हो लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में "गच्छइ" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार "गच्छइ" रूप ही लिख देगा । ७. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थों में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं । सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र की प्रचलित भाषा और व्याकरण के आधार पर उनमें परिवर्तन भी कर दिया । यही कारण है कि अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं सम्पादित तुलसी प्रज्ञा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया, और जब बलभी में लिखे गये तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। वह अलग बात है कि ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्धमागधी के तत्व भी बनें रहे। अत: अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों में भाषिक स्वरूप का जो वैविध्य है वह एक यथार्थता हैं, जिसे हमें स्वीकार करना होगा।" क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एकरूपता है ? डॉ० सुदीप जैन का दावा है कि "आज भी शौरसेनी आगम साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं । उदाहरण स्वरूप शौरसेनी में सर्वत्र 'ण" का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है। जबकि अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ ण कार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में न का प्रयोग आगम भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर-साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता।" प्राकृत विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ पृ० ७ __ यहां डॉ० सुदीप जैन ने दो बाते उठाई हैं, प्रथम शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी 'ण' कार और 'न' कार की । क्या सुदीप जी, आपने शौरसेनी आगम साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन किया है ? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते ? आप केवल णकार का ही उदाहरण क्यों देते हैं-वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में सामान्य हैं। दूसरे शब्द रूपों की चर्चा क्यों नहीं करते हैं ? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा है, जिनसे उनके भाषिकतत्व की एकरूपता का दावा कितना खोखला है-यह सिद्ध हो जाता है । मात्र यही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी प्रभावित हैं : १. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा, आदि शब्द रूपों के प्रयोग उपलब्ध हैं, जबकि शौरसेनी में "द" श्रुति के कारण "आदा" रूप बनता है। समयसार में "आदा" के साथ-साथ "अप्पा" शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार प्रयोग में आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपित नियमसार (१२०, १२१, १८३) आदि में भी "अप्पा" शब्द का प्रयोग है। २. श्रुत का शौरसेनी रूप "सुद" बनता हैं। शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर "सुद" "सुदकेवली" शब्द के प्रयोग भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला) गाथा ९ एवं १० में स्पष्ट रूप से "सुयकेवली" "सुयणाण" शब्द रूपों का भी प्रयोग मिलता है। जबकि ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं और परवर्ती भी हैं। अर्धमागधी में तो सदैव सुत शब्द का २३, अंक ३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग होता है । ३. शौरसेनी "द " श्रुतिप्रधान हैं साथ हो उसमें "लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अत: उसके क्रिया रूप "हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि, कुत्तदि, परिणमदि, दि, पस्सदि आदि बनते हैं, इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता हैसमयसार, वर्णी ग्रन्थमाला (वाराणसी) - जाण (१०), हवई (११, ३२५, ३८४, ३८६), मुणइ (३२), बुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१,२८६, ३१९, ३२१,३२५, ३४०), परिणमइ ( ७६,७९, ८० ), ( ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७,७८,७९ में परिणमदि रूप भी मिलता है) इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप जैसे वेयई (८४), कुणई ( ७१,९६, २८९,२९३,३२२,३२६), होइ (९४, १९७,३०६, ३४२, ३५८), करेई ( ९४, २३७,२३८, ३२८,३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२९), जाणई (१८५, ३१६, ३१९,३२०,३६१), बहइ (१८९), सेवई (१९७), मरइ ( २५७,२९० ), ( जबकि गाथा २५८ में मरदि है), पावइ ( २९१, २९२ ), घिप्पर (२९६), उप्पज्जइ ( ३०८ ), विणस्सइ ( ३१२,३४५), दीसइ (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं । ऐसे अनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं । न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की भी यही स्थिति है । बारहवीं शती में रचित वरानन्दीकृत श्रावकाचार ( भारतीय ज्ञानपाठ - संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर हैं, उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में ४०% क्रिया रूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं । इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उन पर महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीपजी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहां से आता ? प्रो० ए० एम० उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टत: यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो० खडबडी ने तो षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है । 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीपजी, आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार दोनों पाये जाते हैं । किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमी के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था । "ण" की अपेक्षा न का प्रयोग प्राचीन है । ई० पू० तृतीय शती के अभिलेख अशोक एवं ई० द्वितीय शती के खारवेल के शिलालेख से लेकर मथुरा के ३३४ तुलसी प्रा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेख (ई० पू० दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में एक भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा "णमो' "अरिहंताणं' और 'णमो वड्ढमाणं' का सर्वथा अभाव है। यहां हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धत कर रहे हैं, जिनमें इन शब्दों का प्रयोग हुआ है :-ज्ञातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेख, संग्रह, भाग २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं :--- १. हाथीगुफा बिहार का शिलालेख --प्राकृत, जैन सम्राट खारवेल, मौर्यकाल १६५ वां वर्ष पृ० ४ लेख क्रमाक २–'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं" २. वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरी, बिहार-प्राकृत, मौर्यकाल १६५ वां वर्ष लगभग ई० पू० दूसरी शती पृ० ११ ले० क० 'अरहन्तपसादन' ३. मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके ८१ वर्ष का पृ० १२ क्रमांक ५ 'नम अहरतो वधमानस' ४. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ० फ्लीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई० पूर्व प्रथम शती का होना चाहिए पृ० १५ क्रमांक ८ -'अरहतो वर्धमानस्य' ६. मथुरा प्राकृत सम्भवतः १३-१४ ई० पू० प्रथमशती पृ० १५ लेख क्रमांक १०, 'मा अरहतपूजा' ७. मथुरा प्राकृत पृ० १७ क्रमांक १४ 'मा अहतानं श्रमण श्रविका' ८. मथुरा प्राकृत पृ० १७ क्रमांक १५ 'नमो अरहंतानं' ९. मथुरा प्राकृत पृ० १८ क्रमांक १६ 'नमो अरहतो महाविरस' १०. मथुरा, प्राकृत हुविष्क संवत ३९- हस्तिस्तम्भ पृ० ३४, क्रमांक ४३ 'अयर्यन रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये। ११. मथुरा प्राकृत भग्न वर्ष ९३ पृ० ४६ क्रमांक ६७ 'नमो अर्हतो महाविरस्य' १२. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं० ९८ पृ० ४७ क्रमांक ६० 'नमो अरहतो महावीरस्य' १३. मथुरा, प्राकृत पृ० ४८ क्रमांक ७१ 'नमो अरहंतानं सिहकस' १४. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ४८ क्रमांक ७२ 'नमो अरहंतान' १५. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ४८ क्रमांक ७३ 'नमो अरहंतान' १६. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ४८ क्रमांक ७५ 'अरहंतान वधमानस्य' १७. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ५१, क्रमांक ८० 'नमो अरहंतान'द्वन' शूरसेन प्रदेश, जहां से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहां के शिलालेखों में दूसरी, तीसरी शती तक णकार एवं "द श्रुति" के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् ई० पू० तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ खण्ड २३, अंक ३ ३३५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में हुआ है । दिगम्बर मान्य आगमों की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर अपनी विषय वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पांचवी शती के पूर्व की नहीं है। ___यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा की तीसरी चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बड़ली का अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं है। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रिय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। अतः उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही प्राचीन हैं, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी नमो अरहंतानं, नमो वधमानस आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ को तो प्राकृतविद्या में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है (प्राकृत विद्या, अक्टूबर-दिसम्बर ९४ पृ० १०-११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हई है। शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आचारांग आदि द्वादशांगी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेखित करती हैं, वे सभी मूलत: अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर-परम्परा में नन्दीसूत्र में उल्लेखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी टीकाओं में या तत्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लेखित आगम हों, अथवा अंगपण्णति एवं धवला के अंग और अंग बाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हां इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित सस्करण माथुरी वाचना के लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य आगमों के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और जिनका भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वे. मान्य आगमों में समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने "जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहां देख सकते हैं। वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैं :अ. यापनीय आगम १. कषाय पाहुड लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर तुलसी प्रज्ञा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. खण्डागम, ईसा की पांचवी शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और भूत वली ३. भगवती आराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य ४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, - वट्टकेर ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थः मूलतः यापनीय परम्परा रहे हैं और इनमें अनेकों गाथाएं श्वे० मान्य आगमों, विशेष रूप से निर्युक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं | ब. कुन्दकुन्द, ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ : ५. समयसार ६. नियमसार ७. प्रवचनसार ८. पच्चास्तिकायसार ९. अष्टपाहुड ( इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध हैं, क्योंकि इनकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द हैं) । स. अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् : १०. तिलोय पण्णति -- यतिवृषभ ११. लोकविभाग १२. जंबुद्वीप पण ति १३. अंगपण्णति १४. क्षपणसार १५. गोम्मटसार (दसवीं शती) इनमें से कसा पाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है, जो पांचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पांचवी शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है | श्वेताम्बर आगमों में समवायांग और आवश्यकनिर्युक्ति की दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि षटखण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इसकी चर्चा पायी जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र - मूल और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएं गुणस्थान की विस्तृत चर्चाएं प्रस्तुत करती हैं । उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है । अतः यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धान्त पांचवी शती में अस्तित्व में आया है । अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पांचवी शती के पूर्व का नहीं है । प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टतः गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है, अतः वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, खंड-२३, अंक - ३ ३३७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनका उल्लेख आचारांगनिर्युक्ति और तत्वार्थसूत्र में हैं, से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमणकाल की रचना है, अतः उसका काल भी चौथी से पांचवी शती के बीच सिद्ध होता है । शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला जाता है कि यह क्योंकि इन दोनों शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया नारायण कृष्ण और तीर्थंकर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, महापुरुषों का जन्म शूरसेन में हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक्व्यवहार करते थे । डॉ० सुदीपजी के शब्दों में " इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव से शूरसेन जनपद में जन्गी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावृत में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था ।" ( प्राकृतविद्या - जुलाई - सितम्बर ९६, पृ० ६ ) यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें तो प्रश्न उठता है अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, यही नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या में जन्मे थे । यह सभी क्षेत्र तो मगध का ही निकटवर्ती क्षेत्र है, अतः इनकी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीपजी के अनुसार यदि शौरसेनी, अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अतः शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन ही है । यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलने थे किन्तु ईसा की चौथी, पांचवी शती से पूर्व का कोई भी जैन ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध क्यों नहीं होता है ? पुनः नाटकों में भी भास के समय से अर्थात् ईसा की दूसरी शती से ही शौरसेनी के प्रयोग ( वाक्यांश) उपलब्ध होते हैं । नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रता पूर्वक पूछना चाहूंगा कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का है ? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दे, जो अर्धमागधी आगमों और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल आदि के अभिलेखों से प्राचीन हो । अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें हाल की गाथासप्तशती लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से प्राचीन है । पुन: मैं डॉ० सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहूंगा, वे प्राकृतविद्या, जुलाई सितम्बर ९६ लिखते हैं कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में है, जिससे 'मागधी' आदि प्राकृतों का जन्म हुआ । इस सम्बन्ध में मेरा उनसे ३३८ तुलसी प्रशा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन है कि मागधी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः शौरसेनी' (-प्राकृत प्रकाश ११/२) इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं, वह भ्रान्त है और वे स्वयं भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्'-प्राकृत प्रकाश १२/२, इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृति:' का जन्मदात्री-यह अर्थ अस्वीकार कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पष्ठों में की है। इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृतग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई तो उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है ? श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी संदर्भ दिखा दें, जिनमें भगवती आराधना, मूलाचार, षटखण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि जी (तेरहवीं शती) ने मात्र समयपाहुड का उल्लेख किया है, इसके विपरीत मूलाचार, भगवती आराधना और षटखण्डागम की टीकाओं में एवं तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवातिक आदि सभी दिगम्बर टीकाओं में इन आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख है। भगवती आराधना की टीका में तो आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये हैं। मूलाचार में न केवल अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएं भी हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, दशर्वकालिक आदि की अनेक गाथाएं अपने शौरसेनी शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं। दिगम्बर-परम्परा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध है, उसमें ज्ञातासूत्र के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर-परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं । शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो सकता है ? आदरणीय टॉटियाजी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि मूलतः आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अत: आवश्यकता हुई अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी आगमों के अर्धमागधी रूपान्तर की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी या महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी आगम अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए, अत: ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना कर मात्र कुतर्क करना कहां तक उचित बार २१, मंक ३ ३३९ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध वचनों की मूल भाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी शौरसेनी को मूलभाषा एवं मागधी से प्राचीन सिद्ध करने हेतु आदरणीय प्रो० नथमलजी टॉटिया के नाम से यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि "शौरसेनी पालि भाषा की जननी है-यह मेरा स्पष्ट चिन्तन है। पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे उनको जला दिया गया और पालि में लिखा गया।"..--प्राकृत विद्या--- जुलाईसितम्बर ९६ प० १० ।। ___टॉटियाजी जैसा बौद्धविद्या का प्रकाण्ड विद्वान् ऐसी कपोल कल्पित बात कैसे कह सकता है ? यह विचारणीय है। क्या ऐसा कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है ? जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है, कि मूल बुद्ध वचन शौरसेनी में थे । यदि हो तो आदरणीय टॉटियाजी या भाई सुदीपजी उसे प्रस्तुत करे, अन्यथा ऐसी आधारहीन बातें करना विद्वानों के लिये शोभनीय नहीं है। यह बात तो बौद्ध विद्वान् स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्ध वचन 'मागधी' में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित करके पालि में लिखा गया। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार मागधी और अर्धमागधी में किंचित् अन्तर है, उसी प्रकार 'मागधी' और 'पालि' में भी किंचित् अन्तर है, वस्तुतः तो पालि भगवान् बुद्ध की मूलभाषा 'मागधी' का एक संस्कारित रूप ही है, यही कारण है कि कुछ विद्वान् पालि को मागधी का ही एक प्रकार मानते हैं, दोनों में बहुत अन्तर नहीं है। पालि, संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या मागधी का ही साहित्यिक रूप है । यह तो प्रमाण सिद्ध है कि भगवान बुद्ध ने मागधी में ही अपने उपदेश दिये थेक्योंकि उनकी जन्मस्थली और कार्यस्थली दोनों मगध और उसका निकटवर्ती प्रदेश ही था । बौद्ध विद्वानों का स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस सम्बन्ध में बुद्धघोष का निम्न कथन सबसे बड़ा प्रमाण है-- सा मागधी मूल भासा नरायाय आदिकप्पिका । ब्रह्मणों च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे । अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी इसी भाषा में बोलते हैं (See-The preface to the childer's Pali Dictionary)। - इससे यही फलित होता है मूल बुद्ध वचन मागधी में थे। पालि उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में बुद्ध वचन लिखे गये । वस्तुतः पालि के रूप में मागधी का एक ऐसा संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत के विद्वान् और भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग भी आसानी से समझ सके। अत: बुद्ध वचन मूलतः मागधी में थे, न कि शौरसेनी में । बौद्ध त्रिपिटक की पालि और जैन आगमों की अर्धमागधी में कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और इसिभासियाई के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन पालि ग्रन्थों की एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थ रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा । ३४० तुलसी प्रज्ञा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी । शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का नहीं है-जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई० पू० तीसरी-चौथी शती में निर्मित हो चुके थे। 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थ ___ जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से परवर्ती एवं उसी से विकसित मानते हैं वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृत प्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२ वीं शताब्दी) के प्राकृत व्याकरण के निम्न सूत्रों को बताते अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी (१०।२१) अस्याः पैशाच्या: प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची-लक्षणं प्रवर्तत्तितव्यम् । २. प्रकृतिः शौरसेनी (११।२१) अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । -वररुचिकृत 'प्राकृतप्रकाश' ब. १. शेष शौरसेनीवत् (८।४।३०२) मागध्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छोरसेनीवद् द्रष्टव्यम् । २. शेष शौरसेनीवत् (८।४।३२३) पैशाच्यां यदुक्तं, ततो अन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । ३. शेष शौरसेनीवत् (८।४।४४६) अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति । अपभ्रंशभाषायां प्रायः शौरसेनीभाषातुल्य कार्य जायते; शौरसेनी-भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते । -हेमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण' । अतः इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। यदि हम यहां प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित होता है कि मागधी या. पैशाची का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भुत मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई . गयी है यथा-"शौरसेनी–१२।१ टीका-शूरसेनानां भाषा शौरसेनी साच लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते इति वेदितव्यम् । अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेद समाप्तेः १२॥१ प्रकृति: संस्कृतम्-१२।२ टीका-शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् ॥-प्राकृत प्रकाश (१२।२)" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि कर-२३, मंक-1 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई । इस प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी 'प्राकृत प्रकाश' के आधार पर यह भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न हुई । क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार ? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृति: शौरसेनी' के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी 'प्रकृति: संस्कृतम् - प्राकृत प्रकाश १२।२' के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है । वे स्वयं लिखते हैं "आज जितने भी प्राकृत व्याकरण शास्त्र उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित हैं । अतएव उनमें 'प्रकृतिः संस्कृतम्' जैसे प्रयोग देखकर कतिपयजन ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृत भाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई ऐसा अर्थ कदापि नहीं है, प्राकृत विद्या, जुलाई - सितम्बर ९६, पृ० १४ । भाई सुदीप जी जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप प्रकृति का आधार / मॉडल करे और जब मागधी का प्रश्न आये तब आप 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई ऐसा करेयह दोहरा मापदण्ड क्यों ? यह केवल शौरसेनी को प्राचीन और मागधी को अर्वाचीन बताने के लिये । वस्तुतः प्राकृत और संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन है ? संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है । प्राकृत शब्दों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है। जिसे संस्कारित न किया गया हो वह संस्कृत कैसे होगी ? वस्तुतः प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है । इस दृष्टि से प्राकृत मूलभाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है । हेमचन्द्र के पूर्व मिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है । वे लिखते हैं सकल जगज्जन्तुनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सेव वा प्राकृतम् । आरिसवयणे सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम् - वालमहिलादि सुबोधं सकल भाषा निबन्धनभूत वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरुपं तदेव च देशविशेषात् संस्कार करणात् च समासादित विशेषं सत् संस्कृतातुत्तर भेदोनाप्नोति । काव्यालंकार टीका, नमिसाधु २।१२ अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि संस्कार से रहित सहज वचन व्यापार है उससे निःसृत भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि के लिये भी सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से ( प्राक् + कृत) सभी भाषाओं की रचना का आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है उसी का देश प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत और उसके विभिन्न भेद अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं । सत्य यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और संस्कृत उनका ३४२ तुलसी प्रज्ञा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कारित रूप है-- वस्तुत: संस्कृत विभिन्न प्राकृत बोलियों के बीच सेतु का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक भाषा के रूप में अस्तित्व में आई। यदि हम भाषा-विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर चर्चा करें तो भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित, सुव्यवस्थित और व्याकरण के आधार पर सुनिबद्ध भाषा है। यदि हम यह मानते हैं कि संस्कृत से प्राकृतें निर्मित हुई हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि मानव जाति अपने आदिकाल में व्याकरण शास्त्र के नियमों से संस्कारित संस्कृत भाषा बोलती थी और उसी से अपभ्रष्ट होकर शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट होकर मागधी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएं निर्मित हुई । इसका अर्थ यह भी होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से अपभ्रष्ट होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ, किन्तु मानव जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का वैज्ञानिक इतिहास इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के संस्कार द्वारा ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएं अस्तित्व में आईं अर्थात् विभिन्न बोलियों से ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ है । वस्तुतः इस विवाद के मूल में साहित्यिक भाषा और लोक भाषा अर्थात् बोली के अन्तर को नहीं समझ पाना है । वस्तुतः प्राकृतें अपने मूलस्वरूप में भाषाएं न रहकर बोलियां रही हैं। यहां हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई एक बोली नहीं, अपितु बोली-समूह का नाम है। जिस प्रकार प्रारम्भ में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य वैदिक भाषा का निर्माण हुआ, उसी प्रकार कालक्रम में विभिन्न बोलियों को अलग-अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक प्राकृतों का निर्माण हुआ। अत: यह एक सुनिश्चित सत्य है कि बोली के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और उन्हीं से संस्कृत का विकास एक 'कामन' भाषा के रूप में हुआ। प्राकृते बोलियां और संस्कृत भाषा है । बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एकरूपता देने से भाषा का विकास होता है । भाषा से बोली का विकास नहीं होता है। विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों से संस्कारित किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकतों का जन्म हुआ। जैसे मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद तत् तत् प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत विशेष से। यहां भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग मॉडल अपनाये हैं। वररुचि के लिये शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत है जबकि हेमचन्द्र के लिये शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) प्राकृत है, अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेष प्राकृतवत् (८.४.२८६) का अर्थ होगा शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा। र २३, बंक ३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या अर्धमागधो मागम मूलतः शौरसेनी में थे ? प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ. सुदीप जैन ने प्रो० टॉटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि "श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका स्वरूप क्रमश: अर्धमागधी के रूप में बदल गया।" इस सन्दर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य शौरसेनी प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगम्बर-परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो० ए० एन० उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएं उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। इसमें स्वर परिवर्तन, मध्यवती व्यंजनों के परिवर्तन 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर-परम्परा के विद्वान् प्रो० खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार यहां एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है वहां यह कैसे माना जा सकता है कि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित हए । वरन इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी में रूपान्तरित हए हैं। पुन: अर्थमागधी भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहें हैं। यही कारण है कि उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं ? जबकि वह मूलतः महाराष्ट्रीप्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी तो 'त' श्रुति प्रधान है। यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णतः मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वल्लभी वाचनाओं के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित हुए हैं। टॉटियाजी जैसा विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए-यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टॉटिया जी का यह कथन कि 'पाली त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मलतः शौरसेनी में थे और फिर पाली और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' सत्य है, तो उनसे या सुदीपजी को इसके प्रमाण प्रस्तुत करने को कहना चाहिए। ३४४ तुमसी प्रशा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जाता है, तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं । विभिन्न प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो, उनके लिये भी व्याकरण के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यत: संस्कृत से गुहीत किये गये । जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बताई जाती है तब वहां तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं ? उदाहरण के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़ कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्द रूप हैं । किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है जब साहित्यिक भाषा बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते है, ये व्याकरण के नियम जिसके भाषा शब्द रूप के आधार पर उस भाषा के शब्द रूपों को समझाते हैं वही उसकी प्रकृति कहलाते हैं । यह सत्य है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है । शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने हैं वे संस्कृत शब्द रूपों के आधार पर बने हैं। यहां पर भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये नहीं बनाया गया, अपितु, उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते या बोलते थे । यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्द रूप कैसे निष्पन्न हुआ है । इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्द रूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द या शब्द रूपों की व्याख्या करते हैं । संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने का इतना ही तात्पर्य है । इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को शौरसेनी शब्दों को आधार मानकर समझाया गया है। प्राकृतप्रकाश की टीका में वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् (१२।२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं । यहां यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्द रूप मिलते हैंतद्भव, तत्सम और देशज । देशज शब्द वे हैं जो किसी देश विशेष में किसी अर्थ में प्रयुक्त हैं । इनके अर्थ की व्याख्या के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है । तद्भव शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित है। जबकि संस्कृत के समान शब्द तत्सम हैं । संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और प्रत्यय । इनमें मूल २३, अंक ३ ૪૫ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से जो शब्द रूप बना है वह तद्भव है । प्राकृत व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता है । अतः यहां संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या माडल मानकर यह व्याकरण लिखा गया है। अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है । संस्कृत शब्द रूप को मॉडल आदर्श मानना इसलिये आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीपजी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण लिखा गया हैइससे यह सिद्ध नहीं होता है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है अतः इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई। प्राचीन कौन ? अर्धमागधी या शौरसेनी इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि "यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही ५०० ई० के परबर्ती मानना पड़ेगा।" ज्ञातव्य है कि यहां भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रधान पाठ चूणियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं उससे निःसंदेह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति प्रधान थी और उसमें लोप की प्रवृति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री जिसे दिगम्बर विद्वान भ्रांति से अर्धमागधी कह रहे हैं बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति के स्थान पर 'द' श्रुति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी की विशेषता है । इस प्रसंग में डॉ० टॉटिया जी के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी आचारांग सूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटिया जी से और भाई सुदीप जी से साग्रह निवेदन करूंगा की वे आचारांग, ऋषिभाषित, सूत्रकृतांग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में 'द' श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के हैं। यह एक अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में समान हैं। वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रुति देखी जाती है और न "न" के स्थान पर "ण" की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता तुमसी प्रमा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा है । सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है न कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण । यह सत्य है कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है । जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं । पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था ? डॉ० सुदीप जी द्वारा टॉटिया जी के नाम से उद्धृत यह कथन कि ' १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णतः भ्रान्त है । आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई० पू० तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है । क्या उस समय ये आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे ? ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और 'ण' कार की प्रवृति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी की जन्मभूमि है) के अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ठ्य वाले शब्द रूप उपलब्ध होना चाहिए थे ? क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई० पू० में लिखा गया हो ? सत्य तो यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा की चौथी पांचवी शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ नहीं था । जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई० पू० तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान ले तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन हाल की गाथासप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई० पू० प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित हैं । पुन: यह एक संकलन ग्रन्थ है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएं संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे । कालिदास के नाटक जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं । कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से अपितु परवर्ती 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की पांचवी छठी शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं । षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र ( लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध करती हैं, क्योंकि इनमें ये अवधारणायें अनुपस्थित हैं । इस सम्बन्ध में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुण स्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है । इस प्रकार सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम ईसा० की ५वीं शती के पश्चात् २३३ ३४७ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व में आये । अच्छा होगा कि भाई सुदीप जी पहले मागधी और पाली तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को एवं इनके, प्रत्येक के लक्षणों को तथा जैन आगमिक साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाणसहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलाये, व्यर्थ की आधारहीन भ्रान्तियां खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें। प्रो० सागरमल जैन निदेशक पार्श्वनाथ विद्या पीठ वाराणसी ३४० तुलसी प्रज्ञा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यकालीन जैन-स्थापत्य के तीन भव्य जैन मंदिर ० परमेश्वर सोलंकी सन् १९९१ में मार्च ९-१० को नागौर किले में एक अखिल भारतीय स्तर का सेमीनार आयोजित हुआ था । उस सेमीनार में स्थानीय इतिहास को तत्स्थान में प्राप्त ऐतिहासिक संदर्भो से देखने का प्रयास हुआ। प्रस्तुत लेखक ने उस सेमीनार में "लाडनूं-ऐतिह्य का पुरश्चरण" शीर्षक से एक आलेख पढ़ा था। ___ उस आलेख में सं० ११३६ आसाढ सुदि ८ को माथुर संघ के आचार्यश्री गुणकीत्ति द्वारा प्रतिष्ठापित लाडनूं नगर के शांतिनाथ मंदिर (बड़ा जैन मंदिर) का परिचय और उसमें प्राप्त १३ शिलालेखों का मूलपाठ प्रस्तुत कर उनसे प्राप्त ऐतिह्य का पुरश्चरण किया गया था। शिलालेखों का मूलपाठ तुलसी प्रज्ञा (१६।४) में छपा है। इस पुरश्चरण में बताया गया था कि लाडनूं (तत्कालीन खण्डिल) में साहू देल्ह के पुत्र बहुदेव के ज्येष्ठ पुत्र महीपति के गीणगणोदेवर क्षेत्र में बना साहू देल्ह का 'वरद' नामक उद्यान था। उसमें गणादित्य पुत्र सूत्रधार अमल द्वारा बनाया गया देवकुल था और उस देवकुल में युग विशिष्ट जिन मंदिर है जिसमें भगवान् शांतिनाथ की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है। संयोग से और पुरजनों के सुरक्षा-उपायों से यह जैन मंदिर पूरी तरह अक्षत एवं अपने मूल स्वरूप में ज्यों का त्यों वर्तमान है। केवल इसके देवकुल का दक्षिणी भाग संभवतः अभी भी भूमिगत अथवा अदृष्ट लोप हो गया है। इस जैन मंदिर में सं० १२०१ में स्थापित पादुका-युगल भी अदृष्ट हो गए हैं किन्तु सं० १२१९ में स्थापित तोरण और इसी संवत्सर में स्थापित सरस्वती प्रतिमा तथा सं० १२२६ में बनी जिन बिम्बों की चतुर्विशितिका वर्तमान है । और भी अनेकों जिन प्रतिमायें यहां विराजमान हैं जो संभवतः अन्यत्र से एकत्र की गई हैं । लाडनूं में बनी ईदगाह में पुराविद् श्री गोविन्द अग्रवाल ने एक फलक पर सं० ११६२ का लेख देखा था। वर्तमान गढ़ के बाहर बने मंदिर में गुम्बज पर सं० १४२४ का लेख है और श्वेताम्बर जैन मंदिर (सेबकों का चौक) में पुनरुद्धार का एक त्रुटित लेख सं० १३५२ का लगा है । इसलिए सिद्धसेन सूरी के 'सकल तीर्थ स्तोत्र' के अनुसार सांभर देश के छह तीर्थों में एक खंडिल्ल (लाडनूं) में अनेकों जैन मंदिर रहे होंगे। तुलसी प्रज्ञा, लाग्नं : खंड २३ अंक ३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पिछले दिनो अहमदाबाद (गुजरात) के निकट उमटा गांव में भी एक जैन मंदिर का सम्पूर्ण स्थापत्य एक टीले को हटा कर उजागर किया गया है। गांव के बीचों बीच बने एक मिट्टी के टीले पर कभी गांव की चौकी हुआ करती थी। बाद में वहां प्राथमिक शाला का भवन बना दिया गया। दो वर्ष पूर्व ग्राम समिति ने अपनी आय बढ़ाने के लिए उस प्राथमिक शाला के निकट ही कुछ पक्की दुकानें बनाने का विचार किया और उनके लिए नींव खोदी तो उन्हें ईंटों की एक पक्की दीवार नजर आई। उसे निकाल कर उसी के सहारे दुकानों की नींव भरी जाने लगी किन्तु दीवार के साथसाथ और खाली जमीन पाने के लिए दीवार के पीछे अधिक स्थान निकालने की नियत से दीवार को तोड़ा गया तो उसके पीछे मिट्टी भरी मिली और मिट्टी हटाने पर वहां पत्थर की सुन्दर मूर्तियां और कलाकृतियां दृष्टिगत हुईं। इस पर तुरन्त अधिकारियों को सूचना दी गई और पूरी सावधानी से दीवार हटाकर एक भव्य जैन मंदिर का स्थापत्य उद्घाटित कर लिया गया। इस प्रकार मोटी दीवार बना कर पूर्वजों द्वारा अपने मंदिर-स्थापत्य को सुरक्षित रखने को उसे जमींदोज कर देने की यह दिलचस्य कहानी उजागर हो गई। यद्यपि इस मंदिर-स्थापत्य में स्थापित कोई जिन प्रतिमाएं वहां नहीं मिलीं तथापि इस स्थापत्य में अनेकों तीर्थंकर, शासन देवता और सुन्दर अलंकरण विद्यमान हैं और बड़ा समृद्ध परिकर और बेजोड़ शिल्पालंकन उपलब्ध है। ३. अभी हमें बाड़मेर (राजस्थान) के निकट पर्वतों की उपत्यका में एक और बेजोड़ मंदिर के अवशेष मिले हैं। यह मंदिर-स्थापत्य राजमार्ग पर स्थापित था, इसलिए इसे तोड़-फोड़ दिया गया; किन्तु आवासीय स्थानों से दूर होने से अभी तक भग्नावशेष रूप में यह भी सुरक्षित है। इस मंदिर-स्थापत्य के बारे में अध्ययन और शोध की जानी अपेक्षित है। हमें उस स्थल पर प्राप्त कतिपय शिलालेखों के फोटोग्राफस् मिले हैं जिनका मूलपाठ नीचे प्रस्तुत है (१) प्राचीन लेख पंक्ति-१. ॥९०॥ संवत् १३५२ वैशाख सुदि ४ श्री बाहडमेरी महारा " -२. ज कुलश्री सामंतसिंहदेव कल्याण विजयराज्ये तन्नियु। " --३. क्त श्री२ करणे मं० वीरासेल वेलाउल भा० गिगन प्रभृतयो " ---४. धर्माक्षराणि प्रयच्छति यथा । श्री आदिनाथ माथसति" -५. ष्ट यान श्री विघ्नमर्दनक्षेत्रपाल श्री चउंडराजदेवयो" -६. उभय माग्रीप समायात सार्थ उष्ट्र १० वष २० उभयादपि अद्धं " -७. साथ प्रति द्वयोर्देवयो पाइलापदे तीस प्रियदशं विशोपका० " -८.--न ग्रहीतव्याः । आसो लागा महाजनेन मनिता ।। यथोक्तं " -९. बहुभिः वसुधा भुक्ता राजभिः सागरादिभिः । यस्य यस्य यदा भू० " - (मी) तस्य तस्य तदाफलं ॥१ ॥ ३५० तुलसी प्रज्ञा . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) दूसरा लेख पंक्ति--१.७०।। संवत् १३५६ कात्तिक्यां श्री युगादिदेव विधि " -२. चैत्ये श्री जिनप्रबोधसूरि पट्टालंकार श्री जि. " -३. न चन्द्र सूरि सुगुरुपदेशेन । सा० गाल्लण सु " --४. त सा० नागपाल श्रावकेण सार्थग्रहणादि " --५. पुत्र परिवृतेन (संघ) चतुष्टिका सुपुत्र ० " ~~-६. सा० मूलदेव श्रेयार्थं सर्व संघ प्रासादा " -७. थं कारिता । आचन्द्राक्र्कनं-दतात् । शुभं (३) तीसरा लेख पंक्ति--१. ७०॥ संवत् १३५६ कात्तिक्यां श्री युगादिदेवविधि " -२. चैत्ये श्री जिनप्रबोधसूरि पट्टालंकार श्री जि. " --३. न चन्द्र सूरि सुगुरुपदेशेन । सा० आल्हण सुत " -४. सा० राज --सा० संतोषेण श्रावके-- " -~-५. ण सा० मोकसिंह सिहणसिंह परिवतेन " -६. (सुमातुः) श्री० पउमिणिसुश्राविकाया श्रेये " -७. (र्थ) सर्व संघ प्रासादार्थ (पर्व) वत्ति चतुष्किका द्व " -८. य कारितं । छ । चन्द्राक्क नं दतात् ॥ शुभमस्तु (४) चौथा लेख पंक्ति-१. संवत १६५८ : । सद्धा " -२. ऋसना (समण) पवा " -३. इण लिषतं (सब संत) " ---४. सुजण प० कमलसी (५) पांचवा लेख पंक्ति-१. संवत १६९३ वर्षे मग सुद १० षरतर " -२. गछे पं० गणनंदगणिभिः पं० वी " -३. र राज मुनि पं० गिर राज मुनि " --४. पं० हीराणंद प्रमुख (साधु) सहि " -५. तपं शकृतासं वर्षावास कारि आशा है, अधिकारी विद्वान् इन तीनों- मध्यकालीन जैन स्थापत्य के भव्य जैन मंदिरों का अध्ययन एवं अनुसंधान करेंगे और जैन-स्थापत्य के तत्कालीन स्वरूप को रेखांकित करेंगे। -डॉ. परमेश्वर सोलंकी संपादक, तुलसी प्रज्ञा ३५१ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक-विद्या के चमत्कार १ को वै पुरुषस्य प्रतिमा .प्रताप सिंह अंक गणित की प्रत्येक प्रारम्भिक गिनती, पहाड़े की पोथी में १ से ९ अंक ही लिखे मिलते हैं । कहीं पर भी शून्य ० की चर्चा नहीं है । यद्यपि ० का उपयोग १ के साथ करके १० बना लिया जाता है । इस परिपाटी पर ११ से ९९ बना । फिर ९९ वें के फेर में पड़े रहने के बाद पुन: ० का सहारा लेकर १० पर उसे लगाकर १०० बना देते हैं । हर पोथी में गिनती १०० तक ही होती है । परन्तु होती अनन्त है, कहीं सीमा नहीं है। अथर्ववेद मन्त्र (५-१६) पर एक वृषः, द्विवषः, ""दशवृष: कहकर अंकों को १ से १० तक सीमित कर दिया है । अथर्ववेद का दूसरा मन्त्र (१५-४) परमात्मा को एक वृत्तम्, न द्वितीयो, न तृतीयो...."न दश वृत्तम् कहकर, अंकों को भी दस मानने का आदेश है । अजुर्वेद मन्त्र (१८-२४) में योग द्वारा १+२=३, ३+२=५७ ५+२=७..........."आदि करके विषम संख्याएं (odd Numbers) १, ३,५,७,....... तथा २+२=४, ४+२=६,६+२=८,........ सम संख्याएं आदि बताकर १,२,३. ४,५,६,७,८"....'को प्राकृत अंक (Natural Numders) कहा है । अरब देश इन्हें हिन्दसा कहते हैं क्योंकि यह वहां हिन्द-भारत से पहुंचे हैं। गिनती की सारिणी प्रत्येक प्रारम्भिक पोथी में लिखी होती है । देखने पर स्पष्ट होता है कि प्रत्येक सारिणी में अंक ९ की ही सर्वव्यापकता होती है। जिधर से देखो उधर से ९ ही ९ है । प्रथम स्थंभ में तो १ से ९ स्पष्ट है दूसरे स्थंभ के दाहिने बार्श्व में भी १ से ९ है। इस प्रकार हर स्थंभ के दाहिने पार्व में भी ऐसा ही है। किसी भी क्षतिज रेखा के हर अंक के बाएं पार्श्व में शुरू से अन्त तक १ से ९ हैं। जैसे ८ की रेखा में हर संख्या के बाएं पार्श्व में १,२,३....९ ही है । अन्तिम क्षैतिज रेखा १०, २०,३०....हैं । यहां पर भी शून्य के साथ ९ ही है। इसी प्रकार ऊपर से नीचे, बाएं से दाएं जिधर देखो उधर ९ ही ९ है। ऋग्वेद मन्त्र (१७-२) १,१०,१००,१००.........१०६ तक संख्याओं के नाम दिए हैं । १० को परार्द्ध कहा है जिसमें १ पर १९ शून्य लगे हैं । इस गणना में प्रत्येक संख्या अपने से पूर्व संख्या से दस गुणा है । इस कारण से इस पद्धति को दशमलव प्रणाली कहते हैं। तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : अंक २३ खण्ड २ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकों की आकृतियां अंक तो ९ ही है क्योंकि शून्य ० को कहीं पर भी अंक नहीं लिखा है। शून्य को ०, एक को १, दो को २, तीन को ३ किसने कब और क्यों यह आकृति दी है। ० तथा १ आकृति का यह रूप मेरी समझ में नीचे लिखे अनुसार आया है। शेष २,३,४.........."९ की आकृति मैंने स्वयं खोजने का प्रयास किया है। ___ रोटी, पुरी, लड्डू, रुपया, छल्ला, सूर्य, पृथ्वी आदि की गोल आकृति से शून्य को • आकृति देना, समझना सरल है । ० को अनन्त, आकाश का प्रतीक मान लेना भी सरल है। ० में जहां पर अथ है वहीं पर इति भी है । जो प्रारम्भिक बिन्दु है वही अन्तिम बिन्दु भी है। ० को त्रीविभीय (Three dimensional) गोलाकार (Sphere) मानकर इन तीनों अक्षों का विस्तार वेद मन्त्रों से लिए संध्या की छः दिशाओं में हैं। यदि इस त्रीविभीय गेंद को फुलावें प्रसारित करें तो अनन्त रूप में मुनि यास्क के खं ब्रह्म और ॐखं ब्रह्म समान यत्र तत्र सर्वत्र सर्वव्यापी स्थिति हो जाएगी। अतः . को अनन्त आकाश (Space) का प्रतीक सरलता से मान सकते हैं। ० से १ बनना तो मेरे लिए एक चमत्कार सा ही है । कोई ८० वर्ष पहले पाठशाला से छुट्टी के बाद हम कई बालकों ने तालाब के किनारे बैठे घास में मेंढ़क के नवजात शिशुओं को पानी में पूंछ हिला-हिला कर भागते देखा कि उनके बिन्दुवत् सिर में एक जरा सी पूंछ है। कोई और अंग दिखाई नहीं देता है । कई वर्ष बाद कॉलेज में जब सूक्ष्मदर्शी में मानव वीर्य के शुक्राणु (Sperm) को तालाब में मेंढ़क के नवजात शिशुओं के समान आकृति वाल पूंछ हिला हिला कर समान रूप से भागते देखा तो मुझे यह चमत्कार सा ही लगा। जीव विज्ञान की पुस्तक में गर्भाधान (Fertilisation) का सचित्र अध्ययन किया तो • रूपी स्त्री डिम्ब (Ovum) में मेंढ़क शिशु के समान पुरुष शुक्राणु (Sperm) को सिर के बल टक्कर मार डिम्ब में प्रवेश कर एकाकार हो ० बन जाना देखा जिसे भ्रूण (Zygote) कहते हैं । जो ऋग्वेद मन्त्र (१०-१८४-३) तथा निरुक्त सूत्र (१४-६) अनुसार मादा की बच्चेदानी को दीवार से चिपक रस लेकर नौ माह में पूर्ण शरीर पाकर दसवें मास में हम आप सब जन्म लेते हैं। यह ० से १ आकृति बनना मुझे चमत्कार सा ही लगा। शतपथ ब्राह्मण कहता है-पुरुषो वै सहस्र स्वप्रतिमा, पुरुष ही परमात्मा की प्रतिमा, कापी, प्रतिरूप है । अंग्रेजी में भी इसी का अनुवाद God created man in his own image तभी मुझे आकाश वाणी हुई–१ को वै पुरुष स्व प्रतिमा, १ ही मानव की आकृति है, कापी है, प्रतिमा है । किसी तरुण को सावधानी की मुद्रा (Attention position) में ज़रा पैर उठाए पार्श्व से देखें तो मानव अंक १ की ही सी आकृति का लगता है । मानो वह गतिशील मानव (man is action) चरैवेति चरैवेति श्रुति का पालन कर रहा है । गणित कहता है ९+२=११ तो साहित्य इसे कहता है कि वह नौ दो ग्यारह हो गए । चोर भाग गए। अंक ११ से यह भावना कितनी स्पष्ट है कि यह जोड़ी दो मानवों के भागते हुए का दृश्य है। यह सुन्दरता सुमसी प्रमा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक १ की ही आकृति से सम्भव है । अंग्रेजी उर्दू के अंक 1 एक तो ठूठ सा लगता है। परन्तु खेद है कि अब टाइप में अंक १ की आकृति विकृत कर दी है (१), आकृति छप रही है जिसका उठा हुए पैर गायब है केवल टांग रह गई है। इसे सुधारना होगा। एक अंक को पहले वाली आकृति मानव आकृति १ ही छापना समाचार पत्रों, प्रकाशनों का दायित्व है । अंक ९ एवं ६ में आकृति अन्तर जैसा नहीं छप रहा है, वह भ्रम उत्पादक है । एक और नौ की आकृति ठीक करनी होगी। दो की २, तीन की ३......."आदि आकृतियां कहां से टपक पड़ी। मैंने तो . का ही सहारा लेकर सन्तोष कर लिया है • को मध्य से कटने पर चूल्हे की आकृति C आ जाती है जो गह में लगा होता है । यह चल्हा ही गृहस्थी का प्रतीक है। न्यायाधीश दण्डनायक कहलाता है। कचहरी, राजदरवार आदि सब दण्डधारी होते हैं । दण्ड डण्डा शासन अनुशासन (Authority discipline) का प्रतीक है। इन्हीं दो आकृतियों C और I से देवनागरी और अंग्रेजी के समस्त अंक और अक्षर सुगमता सरलता से शिशुओं को लिखना सिखाया जा सकता है । देवनागरी के अक्षर अंग्रेजी के बड़े अक्षरों से सीखने में काफी कठिन हैं । A अज्ञर को केवल डण्डे से I,A,A करके तीन भागों में लिखना अति सरल है । B को डण्डा I फिर चूल्हा b फिर दूसरा चूल्हा B लगाना कितना सरल होता है । बड़ी बीबी के दो घर तो छोटी बीबी के एक घर कह कर मनोरंजन भी होता है। देवनागरी का प्रथम अक्षर अ ही शिशु को प्रथम दिन ही कठिनाई में डाल देता है । परन्तु एक चूल्हे पर दूसरा छूल्हा 01, फिर डण्डे लगा दो उ,उा,अ सरलता से लिखना सिखाया जा सकता है । देवनागरी के अंक लिखना तो और सरल है । चूल्हे पर पूंछ लगा दो २ बन गया चूल्हे पर चूल्हा लगाकर पूंछ लगा दोa,३ तीन बन गया। चुल्हे पर चूल्हा चढ़ा दो U,४ चार बन गया । समझदार शिक्षक ज़रा से प्रयत्न से सरलता भर देता है । इस प्रकार चूल्हे और डण्डे से गणित तथा साहित्य की दृढ़ नींव डाली जा सकती है। यही चूल्हा गृहस्थी तथा संस्कृति शब्दों में भी उपस्थित है। मानव सब योनियों में श्रेष्ठ बुद्धिमान, शक्तिमान् है । उसमें हाथी, शेर आदि सब को अपने अधीन कर लिया है । अंक १ की आकृति मानव आकृति है । जिसका सिर बड़ा, सीना चौड़ा, उभरा, पैर उठा मानो चलने को तैयार कर्म करने में चुस्त (man in action) है । इस आकृति १ का संरक्षण करना होगा, यह मानव संस्कृति की धरोहर है। अथर्ववेद मन्त्र (५-१५) कहता है १ से १०, २ से २०, ३ से ३०......"१५ से १५........६० से ६०० आदि में १० का रूप है। गिनती १० से १०० पर ही छोड़ दी जाती है । भारतीय संस्कृति में योग, और दान की बहुत महिमा है। इन संख्याओं में योग से १०+१=११, २०=२=२२, ३०+३=३३ ....... १५.+१५= १६५......."६००+६०-६६......."से ११,२२,३३.......१६५...""६६०......" में ११ का पहाड़ा है। इसी प्रकार दान करने पर १०-१-९, २०-२=१८, ३०-३ २७,.......१५०-१५-१३५.......६००----६.+५४०....... में ९ का पहाड़ा आता है। खण्ड २३, अंक ३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामवेद मन्त्र १७-९ तथा ९-२३ और अथर्ववेद मन्त्र ( १ - ८४ - १३ ) कहता हैजघन नवतीर्नव – ९० को ९ मारता है, छिन्न भिन्न करता है । यहां पर नौ के पहाड़े की चर्चा है - ९, १८, २७, ३६ असीम हो सकता है । इस नौ के पहाड़े की प्रत्येक संख्या १८=१+८=९, २७=२+७=९, ३ + ६ =९ ही रहती है । अर्थात् के पहाड़े की प्रत्येक संख्या ९ से विभाजित ९ से मारी जाती है । ३६ और ६३ में भी ९ घुसा बैठा है क्योंकि ३६ = ३ + ६ = ९, ६३=६ + ३ = ९ ही रहता है । साहित्य में अंक साहित्य वाले भी ० के ऋणी हैं, वे कहते हैं ... लोग कहत बिन्दी दिए, अंक दस गुनी होत । तिय लिलाट बिन्दी दिए अगनित हो उदोत ॥ देवनागरी अंक ३ की सरल आकृति में कितना विज्ञान तथा अध्यात्म भरा है कि ३ का ही दर्पण प्रतिबिम्ब ( mirror image ) ३ / ६, अर्थात् ३६ बन जाता है । इसी प्रकार ६ का दर्पण प्रतिबिम्ब ( mirror image ) ६ / ३ अर्थात् ६३ हो जाता है ! अतः दर्पण ३६ को ६३ और ६३ को ३६ बना देता है । विज्ञान इस चमत्कार को पार्श्व परिवर्तन ( Lateral inversion) कहता है । मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, हाथ कंगन को आर्सी क्या, दर्पण का चमत्कार आप प्रतिदिन देखते हैं परन्तु विज्ञान का यह चमत्कार देखते हुए मानव नहीं देखता है, नहीं जानता है । ऋग्वेद मन्त्र ( १०६१-४) कहता है-उत त्वः पश्यन्न दर्दश कि मानब देखते हुए भी नहीं देखना, नहीं जान पाता है । डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी यही कहते हैं कि Eges have they but they see not | क्योंकि जब मन कहीं और अटका होता है तब ऐसा ही होता है । वैशेषिक दर्शन सूत्र (१-१-२) मानव को इधर उधर दोनों तरफ देखकर चलने की नेक सलाह देता है— यतो अभ्युदय निः श्रेयस सिद्धि स धर्मः । मानव का हित भौतिक उन्नति इधर और उधर आध्यात्मिक उन्नति दोनों तरफ देखकर चलने में है । प्रकृति के साथ ६३ और परमात्मा की तरफ भी ६३ होकर चलना मानव हित में है । प्रकृति के साथ ६३ होना प्रकृति के अनुकूल आचरण करना जीवन बिताना है । यही आधिभौतिक उन्नति अर्थात् सांसारिक सुख सुविधाओं का योग करना है । परमात्मा की तरफ ६३ होने से निःश्रेयस अर्थात् आध्यात्मिक उन्नति कर परमानन्द मोक्ष की प्राप्ति है । प्रकृति के साथ ६३ हो कर रहने में यजुर्वेद मन्त्र (४०- १) सचेत करता है - तेन त्यक्तेन भुंजीथा मागृधः योग तथा भोग का अधिकार परमात्मा वेद द्वारा तुझे देता है कि त्याग भाव से भोग कर क्योंकि दूसरे को भी भोग का समान अधिकार है | अतः तू लालच मत कर, दूसरों को भी अपने समान भोगने दे । जो भोग तेरे कर्मानुसार परमात्मा तुझे देता है उस पर सन्तोष कर, दूसरे की थाली में घी अधिक मत देख । पराई पत्तल का भात मीठा लगता है, यह समझना भ्रम है, अशांति का कारण है । इस पर विभिन्न कोणों से मनन कर मोहभंग होगा। शांति और सन्तोष पाएगा । क्योंकि कस्यस्विद धनम्, यह धन किसका है, यह तो ईशावास्यमिदम् सर्वम् है । सबके ३५६ तुलसी प्रज्ञा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगार्थ है। सब यही पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बन्जारा-मत भूल याद रख कि तू मुट्ठी बांधे आया था पसारे हाथ जायेगा। महान कहलाने वाले सिकन्दर की अर्थी को याद रख लाया था क्या सिकन्दर दुनियां से ले चला क्या । ये दोनों हाथ खाली बाहर कफन से निकले ॥ चेतन का आदर्श चेतन होता है, न कि जड़ । प्रकृति जड़ है, तू चेतन है। जड़ प्रकृति से ६३ होना भोग करना उचित है । परन्तु अविद्या है, अज्ञान है । इसमें फंसे मत, लिप्त मत हो परन्तु परमात्मा के साथ ६३ होना विद्या है, ज्ञान है, मोक्ष है, परमानन्द है । तेरा आदर्श जीने के लिए खा (Eat to Live) परन्तु खाने के लिए मत जी (Live to eat) नहीं है। हजारों संख्याओं से कागज़ रंगने पर महीनों प्रयास करने पर मुझे एक सूत्र और मिला, मेरे हाथ लगा कि कोई भी संख्या हो, उसमें एक या एक से अधिक शून्य हों, कहीं पर भी हों तो शन्यों का परित्याग कर बनी संख्या को प्रथम में से दान करने जो संख्या शेष रहेगी वह सदा ९ से विभाजित होगी । ३००५२ संख्या में से शून्य भगाने से ३५२ नई संख्या बनी। इसे जनक संख्या में से दान करो ३००५२--३५२= २९७०० आई। यह ९ से विभाजित है (२) ४०६०२१०० में से शून्य हटाने पर ४६२१ बनी इस को प्रथम में से दान करो। ४०६०२१००-४६२१=४०५९७४७९ आई यह भी ९ से विभाजित है । (३) ३५००१९० में से शून्य भगाने पर ३५१९ बनी इसे ३५००१९०-३५१९ =३४९६६७१ यह भी ९ से विभाजित है । अब योग करो ३०५२+३५२=३०४०४ आई यह भी ९ से विभाजित है। ४०६०२१००+४६२१=४०६०६७२१ यह ९ से विभाजित नहीं है। ३५०० १९०= ३५१९=३५०३७०९ यह भी ९ से विभाजित है । यह तीनों उदाहरण अनायास लिए हैं जहां दान करने में ९ से विभाजित है । परन्तु जहां योग है वहां सब १ से विभाजित नहीं है । अतः दान का योग-संग्रह परिग्रह पर महत्व है। कोई भी संख्या आप लें परन्तु उसमें एक शून्य अवश्य हो, अधिक हो तो भी ठीक है । जैसे २६९०७०५ लें तो शून्य हटाने पर २६९७५ रहा इसको प्रथम में से दान कर दो। २६९०७०५ २६९७५ २६६३७३० यह संख्या जघन नवतीनव वेद मन्त्र के अनुसार ९ से विभाजित है। इसमें फिर एक शून्य है तो पुनः प्रक्रिया करें तो शून्व हटाने पर २६६३७३ रहा पुनः दान किया तो २६६३७३० २६६३७३ २३९७३५७ यह भी ९ से पूर्ण विभाजित है। यदि इसमें शुरू से योग क्रिया करें तो खंड २३, मंक ३ ३५७ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१७६८० यह ९ से विभाजित नहीं अर्थात् यहां योग नहीं बैठता दान बैठता है । २६९०७०५ के अंकों का योग ९ से विभाजित नहीं है । यदि इसके स्थान पर २६८०६०५ लें तो यह ९ से विभाजित है । इसमें दान व योग दोनों क्रियाएं ठीक बैठती हैं । ३५८ योग २६९०७०५ २६९७५ पुनः दूसरी बार भी क्रिया हो सकती है -- २६५३७४० २६५३७४ २६८०६०५ २६८६५ २६५३७४० यह ९ से विभाजित है। २३८८३६६ यह भी ९ से विभाजित है २६८०६०५ २६८६५ २७३५२१७ यह भी ९ विभाजित है। ऐसे अनेकों उदाहरण लेकर मैं कागज काले करता रहा तो पाया कि जघन नवतीर्नव मन्त्र सर्वव्यापी है । परन्तु योग से अधिक महत्व दान को आता है । योग के लिए एक शर्त है परन्तु दान के लिए कोई शर्त नहीं है । अत: दान सदा योग से श्रेष्ठ है । अथर्ववेद [ ७-२६-८) मन्त्र कहता है कि द्यौ, पृथ्वी, अन्तरिक्ष से अंजुली भर भर जमा कर दोनों हाथों से खुलकर दान कर । अथर्ववेद का दूसरा मन्त्र ( ३-३४-५ ) कहता है - शतहस्त समाहरः सहस्र हस्त सिंकर । यदि इस वेद आज्ञा का साक्षर पालन करेगा तो अवश्य दिवालिया हो जाएगा । समाधान यह है कि यहां मन्त्र से भावना का अधिक महत्व है । भोग व योग से दान श्रेष्ठ है । भोग तो पशु वृत्ति है, दान देव वृत्ति है | तू मनुष्य है देवता बन यही तेरा आदर्श है । २७०७४७० यह भी ९ से विभाजित है । २७०७४७० योग २७७४७ - प्रोफेसर प्रतापसिंह २२, सुभाषनगर अजमेर रोड़, जयपुर (राज.) तुलसी प्रज्ञा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टोत्पल : समय और रचनाएं 18 वेद प्रकाश गर्ग ज्योतिष विषयक ग्रंथों के रचयिता भट्टोत्पल महान् ज्योतिर्विद वराहमिहिर की कृतियों के सफल टीकाकार के रूप में विशेष प्रसिद्ध हैं । किंतु दुर्भाग्य से उनके वैयक्तिक जीवन के बारे में जानकारी का एक प्रकार से अभाव ही है । उत्पल कश्मीरनिवासी थे, ऐसा अनुमान विद्वानों ने किया है। कारण यह है कि ब्रह्मगुप्त रचित खण्डखाद्य की इनकी टीका की प्रति कश्मीर में मिली है और शाके १५६४ की खण्डखाद्य की एक अन्य टीका एवं शाके १५६७ का पंचांग- कौतुक - कश्मीर में विरचित इन दोनों ग्रंथों से ज्ञात होता है कि उत्पल की यह टीका कश्मीर में बड़ी प्रसिद्ध थी । उत्पल ने अपनी रचनाओं में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है, जो कश्मीर में प्रचलित थे । खण्डखाद्य - टीकाकार वरुण ( शाके ९६२ ) ने तो इन्हें स्पष्ट ही कश्मीरवासी कहा है ।' अलवेरुनी ने भी इन्हें कश्मीरी लिखा है ।' उत्पल के पूर्वजों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। लाघुजातक टीका के मंगल- श्लोक से स्पष्ट है कि उत्पल शैवधर्मानुयायी थे । उत्पल का काल भी अभी तक पूर्णतया निश्चित नहीं हो सका है, जबकि उसका निश्चय किया जाना अनेक संस्कृत एवं प्राकृत लेखकों के काल-निर्णय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जिनके ग्रंथों का उल्लेख उन्होंने किया है । प्रस्तुत लेख में ऐसा ही प्रयास है । वराहमिहिर के वृहज्जातक ग्रंथ की टीका का काल भट्टोत्पल ने शाके ८८८, चैत्र शुक्ला पंचमी, गुरुवार दिया है चैत्र मासस्य पञ्चम्यां सितायां गुरुवासरे । वस्वष्टाष्टमिते शाके कृतेयं विवृतिर्मया ॥ और वराहमिहिर की ही रचना बृहत्संहिता की टीका का काल शाके फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, गुरुवार दिया है । फाल्गुनस्य द्वितीयायामसितायां गुरोर्दिने । वस्वष्टाष्टमिते शाके कृतेयं विवृतिर्मया ॥ यदि इन्हें शक संवत् ( ई० सन् ७८ से आरम्भ होने वाला) मानें, जैसा कि ‘शाके' शब्द से आभास होता भी है, तो इन दोनों की रचना ई० सन् ९६६ में होना माना जायेगा, किंतु कुछ विद्वानों ने इस तिथि की विचित्र व्याख्या करने का प्रयास किया है । उनके विचारानुसार ईरानी सम्राट् कुरुष द्वारा अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना के स्मारक रूप में ईसा पूर्व ५५१-५५० में एक नवीन काल-गणना का तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ किया गया, जिसे शक - काल कहा गया। भट्टोत्पल ने 'शाके' शब्द से इसी शक काल का उल्लेख किया है । इसके अनुसार टीका की रचना ई० सन् ३३८-३७ में हुई । किन्तु यह मत पूर्णतया निराधार है, क्योंकि इस संबंध में पुष्ट प्रमाणों का अभाव है । अतः कुरुष ने किसी संवत् की स्थापना नहीं की। यहां यह भी ध्यातव्य है कि कुरुष एवं उसके वंशजों के अभिलेखों में केवल राज्य वर्षों का उल्लेख है, किसी संवत् का नहीं । दूसरी ओर भारतीय परम्परा इस विषय में एक मत है कि शालिवाहन शक का आरम्भ ई० सन् ७८ में हुआ था । भट्टोत्पल ने वृहज्जातक की अपनी टीका में भास्कर का उल्लेख किया है और उसके ग्रंथ 'भास्कर सिद्धान्त' नामक ग्रंथ से कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं, जो प्रसिद्ध भास्कराचार्य रचित 'सिद्धान्त शिरोमणि' के श्लोकों से अभिन्न हैं ।' भास्कराचार्य ने सिद्धान्त - शिरोमणि की रचना शाके १०७२ (११५० ई०) में की थी । अतः एक विचित्र उलझन सामने आती है । यदि उत्पल ने वास्तव में ये श्लोक भास्कर के सिद्धान्त शिरोमणि नामक ग्रंथ से ही लिए हैं, तो उनका काल १९१५० ई० के बाद ही होना चाहिए, पहिले नहीं । किंतु यह तथ्य वृहज्जातक एवं बृहत्संहिता की उनकी टीकाओं के रचना-काल-सूचक श्लोकों के विपरीत है । इस विरोधात्मक स्थिति को दूर करने के लिए कुछ लोग 'वस्वष्टाष्ट मिते' के स्थान पर 'वस्वष्टाष्टिमिते' पाठ का अनुमान करते हैं, जिसके अनुसार टीकाओं की रचना शाके १६८८ में माननी पड़ेगी, किन्तु यह अनुमान निरर्थक है । कारण यह है कि अलवेरूनी ने १०३० ई० में लिखे अपने भारत - विवरण में बार-बार उत्पल का उल्लेख किया है ।" इसी प्रकार कश्मीरी लेखक वरुण भट्ट (१०४० ई०) ने भी ब्रह्मगुप्त के 'खण्ड खाद्यकरण' की अपनी टीका में उत्पल की चर्चा की है ।" इससे स्पष्ट है कि उत्पल उक्त दोनों से पूर्व का है । जहां तक प्रश्न सिद्धान्त शिरोमणि के उक्त श्लोकों का है, तो उसके संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि संभव है भास्कराचार्य ने उक्त श्लोक सीधे भास्कर नामक पूर्ववर्ती लेखक के ग्रंथ 'भास्कर सिद्धान्त' से ही लिए हों।" उत्पल ने तो जिस ग्रंथ के उद्धरण दिए हैं, उसका नाम स्पष्ट रूप से 'भास्कर सिद्धान्त' बतलाया ही है, सिद्धान्त शिरोमणि नहीं। इससे प्रतीत होता है कि भास्कराचार्य तथा भट्टोत्पलदोनों ने एक ही आधार सूत्र से श्लोकों को ग्रहण किया है । इसीलिए श्लोकों की यह समता हुई इस प्रकार उत्पल का समय ई० सन् की १०वीं शताब्दी का मध्य ठहरता है । किंतु इस समय को स्वीकार करने में एक और कठिनाई सामने आती है । वह यह है fe अरबी लेखक अबू मशर ने, जिसका देहान्त सन् ८८६ ई० (९४३ वि० ) में हुआ, उत्पल की वृहज्जातक - टीका से एक उद्धरण दिया है । यदि सन् ८८६ के पूर्व हुए एक लेखक ने उत्पल को उद्धृत किया है, तो निश्चय ही उत्पल का काल इससे पहले होगा । अतः इस बारे में यह सोचा जा सकता है कि उत्पल की टीकाओं के रचे जाने की तिथि ( शाके ८८८) अशुद्ध है ।" किंतु ऐसा सोचना समीचीन नहीं है, क्योंकि ३६० तुलसी प्रज्ञा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाओं के उक्त श्लोक, जिनमें इन तिथियों का उल्लेख है, अधिकांशतया पाण्डुलिपियों में प्राप्त हैं, इसलिए इन्हें प्रक्षिप्त या जाली भी नहीं कह सकते ।। ___ अब प्रश्न यह है कि यदि उत्पल ने अपनी टीका शाके ८८८ (९६६ ई०) में लिखी तो सन् ८८६ के पूर्व अबू मशर ने उसका कथन कैसे उद्धृत किया ? किंतु यह विरोधाभास स्वतः ही दूर हो जाता है , जब हम 'शाके' शब्द पर गम्भीरता से विचार करते हैं। वास्तव में यहां 'शाके' शब्द से उत्पल का अभिप्राय ५७ ई० पूर्व से शुरू होने वाले विक्रम-संवत् से है, न कि सन् ७८ से आरम्भ होनेवाले शक काल से । विक्रमाब्द के लिए भी 'शक' या 'शाक' शब्दों का प्रयोग अभिलेखों में प्राप्त होता है। स्वयं उत्पल 'शक' एवं 'शाक' पदों का प्रयोग विक्रमाब्द के लिए करते हैं। शक काल के संबंध में बहत्संहिता ८।२० की व्याख्या द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है ---- 'शका नाम म्लेच्छाजातयो राजानस्ते यस्मिन् काले विक्रमादित्यदेवेन व्यापादिताः स कालो लोके शक इति प्रसिद्धः । तस्माच्छकेन्द्रकालात् शक नृप वधकालादारभ्य...... ।' अर्थात् 'शक' म्लेच्छ राजाओं की संज्ञा है। जिस समय विक्रमादित्य ने उनका संहार किया था, वह काल लोक में 'शक' के नाम से प्रसिद्ध है। शकेन्द्र काल" शक नृपवध काल से अभिन्न है। इस प्रकार उत्पल शकेन्द्र काल का अर्थ किसी शक राजा के अभिषेक या राज्यारोहण से शुरू हुई गणना नहीं मानते, अपितु शकों का शासन मिटाकर विक्रमादित्य ने जिस गणना का आरम्भ किया, उसी विक्रमाब्द का ग्रहण करते हैं। यहां उत्पल ने शकेन्द्र काल के बदले शाके (शक) शब्द का प्रयोग किया है। अतः उत्पल का ८८८ शाके, विक्रमाब्द है, जिसका तात्पर्य ८३१ ई० सन् से है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सन् ८८६ के पूर्व अबू मशर द्वारा उत्पल का वचन-उद्धरण का तथ्य उक्त विक्रमाब्द काल मानने पर बाधक नहीं। __ भट्टोत्पल ने कुल कितने ग्रंथों की रचना की, यह तो बता पाना अत्यन्त कठिन है, किंतु संप्रति उनके नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, उनका उल्लेख किया जा रहा है-- उत्पल, ज्योतिर्विद वराहमिहिर के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं। इन्होंने उनके ग्रंथों में से बृहज्जातक, बृहत्संहिता, लघुजातक की टीकाएं की हैं।" बृहत्संहिता की टीका में उत्पल ने लिखा है-'यात्रायां व्याख्याम्'। इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने 'यात्रा ग्रंथ' की भी टीका की थी, जो बृहत्संहिता से पहिले की है, किंतु यात्रा की यह टीका स्यात् इस समय उपलब्ध नहीं है। उन्होंने वराह के शेष ग्रंथों की भी टीका की थी, इसका प्रमाण नहीं मिलता। वराह के पुत्र पृथुयशा" के 'षट् पंचाशिका' नामक ग्रंथ पर भी इनकी टीका है, जिसमें शुभाशुभ प्रश्न पर विचार किया गया है। ब्रह्मगुप्त के 'खण्ड खाद्य' की टीका के समय का तो पता नहीं चलता, किंतु बृहत्संहिता-टीका (अध्याय ५॥१९) के 'खण्ड खाद्य करणे अस्मदीय-वचनम्' उल्लेख से ज्ञात होता है कि उसकी टीका इन्होंने इसके पहिले की थी। ७२ आर्याओं का 'प्रश्न बण्ड २३, बंक ३ ३६१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान १ नामक इनका एक प्रश्न ग्रंथ है । यह उनका स्वतंत्र ( मौलिक ) ग्रंथ है । 'आर्या सप्तति', 'प्रश्नार्या', 'प्रश्नार्या सप्तति', 'प्रश्न ग्रंथ' आदि इसके अन्य प्रचलित नाम रहे हैं । इस ग्रंथ का वर्ण्य विषय प्रश्न विद्या है। कुछ हस्तलिखित पोथियों की पुष्पिकाओं से ज्ञात होता है कि यह उत्पल के 'ज्ञानमाला' नामक बृहत्तर ग्रंथ का अंश था बृहत्संहिता के प्रथमाध्याय में इन्होंने एक स्थान पर 'अस्मदीयवचन' कहकर एक आर्या लिखी है । इससे अनुमान होता है कि गणित स्कन्ध पर इनका स्वतंत्र ग्रंथ रहा होगा । यह वचन उनकी खण्ड खाद्य की टीका का भी हो सकता है। इसी प्रकार बृहत्संहिता के ही ५२ / ५७ पर तथा 'चास्मदीय वास्तु विद्यायाम्' इस परिचयात्मक वाक्य के बाद वास्तु विद्या विषयक एक ग्रन्थ से दो श्लोक उद्धृत है । ये ग्रंथ सम्प्रति उपलब्ध नहीं है । इनके अतिरिक्त अलबेरूनी ने इनके नाम से कुछ अन्य कृतियों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है- १. राहुन्नाकरण, २. करण पात, ३. मनु रचित बृहन्मानस की टीका, ४. प्रश्न -चूड़ामणि और ५. श्रुधव । " ज्योतिषियों में प्राय: एक ही करण ग्रन्थ लिखने की प्रथा थी । अतः उत्पल द्वारा भी दो करण ग्रन्थों की रचना संभव नहीं है और इनके नाम भी विचित्र हैं । प्रतीत होता है वेरूनी को इनके विषय में कुछ भ्रम हुआ है। प्रश्न चूड़ामणि, प्रश्न ज्ञान नामक ग्रन्थ से अभिन्न होना चाहिए, क्योंकि प्रश्न चूड़ामणि और प्रश्न ज्ञान एक ही ग्रन्थ के दो नाम प्रतीत बेरूनी ने कालादिमान लिखे हैं । इसके नाम में कुछ अशुद्धि है । उसका कथन है कि श्रूधव नाम के और भी ग्रन्थ हैं। वैसे यह नाम है विचित्र । श्रूधव के विषयों का स्वरूप थोड़ा सा बेरूनी ने दिया भी है। उससे ज्ञात होता है कि वे शकुन या प्रश्न के ग्रन्थ होंगे । होते हैं । श्रृधव से भट्टोत्पल ने कल्याण वर्मा द्वारा रचित 'सारावली' नामक अपूर्ण ग्रन्थ को भी पूर्ण किया था । उसके हस्तलेखों के अन्त में दिए गए एक श्लोक से यह तथ्य ज्ञात होता है ।" वादरायण प्रश्न पर भी चिंतामणि नामक उनकी टीका पाई जाती है । 'उत्पल', वराहमिहिर के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं । मौलिक ग्रन्थों की अपेक्षा वे अपनी पाण्डित्य पूर्ण टीकाओं के लिए अधिक विख्यात हैं । यद्यपि यह सत्य है कि बृहत्संहिता और बृहज्जातक ग्रन्थ स्वयं महत्त्वयुक्त होने के कारण आज तक प्रचलित हैं तथापि उनके प्रचार का प्रमुख कारण उत्पल की टीका है, ऐसा कह सकते हैं । वास्तविकता तो यह है कि वराहमिहिर को समझने के लिए उत्पल की टीकाओं का वही महत्व है, जो कालिदास के लिए मल्लिनाथ की टीका का है । अतः उसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । बृहत्संहिता टीका से ज्ञात होता है कि उत्पल ने प्राचीन ग्रन्थों का गहरा अध्ययन किया था । वराहमिहिर ने जिन प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर वृहत्संहिता की रचना की थी, उन सब ग्रन्थों के अवतरण देकर इन्होंने अपनी टीका की रचना की है । उन्होंने तद् विषयक प्राचीन संहिताकारों के आधार भूत वचन उद्धृत ३६२ तुलसी प्रज्ञा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किए हैं। कहीं-कहीं तो एक विषय पर आठ-दस प्राचीन संहिताकारों के वचन दिए हैं । २५ इससे यह स्पष्ट है कि वे सब संहिताएं उस समय उपलब्ध थीं । वास्तव में यह टीका उनकी असाधारण विद्वत्ता और आश्चर्यजनक स्मरण शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है । उन्होंने इस टीका में संस्कृत और प्राकृत के बहुसंख्यक ग्रंथों को उद्धृत किया है, जिनमें से अधिकांश आज अप्राप्य है ।" यह टीका बड़ी विस्तृत है । उपर्युक्तोल्लिखित दोनों टीकाओं के रचनाकाल १७ विषयक दोनों श्लोकों से ज्ञात होता है कि यह टीका केवल ११ मास में लिखी गई थी। इतनी विशद टीका इन्होंने इतने थोड़े समय में लिखी, यह आश्चर्य की ही बात है । उक्त टीका से ज्ञात होता है कि उत्पल प्राचीन ग्रन्थों के सफल शोधक भी थे । उन्होंने पाठों का निर्णय करने तथा ग्रंथ की प्रामाणिक व्याख्या के लिए वैज्ञानिक शैली का आश्रय लिया है । अनेक स्थलों पर उन्होंने पाठ भेदों और पूर्ववर्ती टीकाकारों के विचारों का उल्लेख किया है। उन्होंने गर्ग, पराशर आदि के संहिता ग्रंथों से उद्धरण दिए हैं, जो अब अप्राप्य हैं । इस प्रकार नष्ट प्रायः ग्रन्थों के विषय में जानकारी का एक मात्र आधार उत्पल की टीका ही है । उन्होंने बृहत्संहिता के कुछ अध्यायों एवं पद्यों को सकारण प्रक्षिप्त घोषित किया है ।' अतः बृहत्संहिता के मूल पाठ के निश्चय तथा उसे अच्छी प्रकार से समझने के लिए उत्पल की टीका का विशेष महत्व है । २८ खण्ड २३, अंक ३ ३६३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-संकेत : १. दे० भारतीय ज्योतिष (ले० शंकर बालकृष्ण दीक्षित) हिन्दी-अनुवाद, (प्र. ___ सं०), पृ० ३२७-२८ । २. वही, पृ० ३२८ । ३. अलबेरूनी का भारत (सचाऊ), खं० १ पृ० १५७,२९८,३३४,३३६,३६७ । ४. प्रणिपत्य महादेवं भुवन गुरुं च लोकेशम् । भट्टोत्पलो लघुतरां जातक टीका करोति शिष्यहिताम् ।। ५. बृहज्जातक की एक-दो प्रतियों में 'वस्वष्टाश्वमिते' पाठ भी मिला है, जिससे किसी किसी ने इसका काल शाके ७८८ का उल्लेख किया है (दे० हिन्दी विश्व कोश-सं० नगेन्द्रनाथ वसु, प० ७०६, भा० १५), किंतु यह सही नहीं है। इसी प्रकार 'वस्वश्वाश्व मिते' (शाके ७७७) पाठ का अनुमान भी अनावश्यक है । ६. दे० जर्नल आफ इंडियन हिस्ट्री, खं० २८ (१९५० ई०) पृ० १०३-११० । ईरानी शासक कुरुष से संबंधित एक शक काल का होना डॉ० देव सहाय त्रिवेद भी मानते थे। ७. वही, खंड २८ (१९५० ई०) पृ० १०६ । एक विद्वान् ने उत्पल की तिथि सन् ३४० दी है। ८. दे० सि० शिरो० प्र० अध्याय, श्लोक ९-१२ तथा इसी ग्रन्थ से एक अन्य श्लोक बृहज्जातक २१ की टीका में उद्धृत है। ९. दे० सि० शि० प्रश्नाध्याय श्लोक २८ । १०. दे० पं० सीताराम मा का बहज्जातक का उत्पल-टीका सहित संस्करण, जिसमें उक्त पाठ दिया गया गया है । इसी प्रकार श्री विद्या भूषण सुब्रह्मण्य शास्त्री का यह कथन कि उत्पल, मुगल-सम्राट जहांगीर के काल में हुआ, अशुद्ध है । दे० कल्याण वर्म-रचित सारावली, भूमिका पृ० १-२ (बम्बई-संस्करण)। ११. दे० अलबेरूनी का भारत (सचाऊ) खं० १, पृ० १५७-५८,२९७,३३४,३३६ ३७,३६१,३६८ आदि । पृ० २९८ पर तो उसने बहत्संहिता की उत्पल-टीका से एक वक्तव्य भी उद्धृत किया है। १२. दे० भारतीय ज्योतिष (शंकर बाल कृष्ण दीक्षित) हिन्दी-अनुवाद (प्र० सं०) पृ० ३२८ । शाके १५६४ में लिखित खण्ड खाद्य की एक अन्य टीका में तथा शाके १५६८ में रचित 'पंचांग कोतुक' में भी उत्पल का उल्लेख है। दे. वही, पृ० ३३७ । १३. पूर्ववर्ती भास्कर, जिसे भास्कर प्रथम कहा गया है, के 'महाभास्करीय', 'लघु भास्करीय' तथा 'आर्य भट तंत्र-भाष्य' (६२९ ई.) नामक ग्रंथ मिलते हैं, किंतु इनकी रचना के रूप में 'भास्कर सिद्धान्त' का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। प्रतीत होता है कि यह किसी अन्य पूर्ववर्ती भास्कर की रचना है । भास्कराचार्य के पूर्वजों में 'भास्कर भट्ट' नामक एक विद्वान् हुए हैं, जो उत्पल के समकालीन थे । संभव है-'भास्कर सिद्धान्त' उन्हीं की रचना हो। 'भास्कर सिद्धान्त' और उसके रचयिता के संबंध में खोज की जानी आवश्यक है। तुलसी प्रशा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. दे० रायल एशियाटिक सोसाइटी, बम्बई की पत्रिका (१९५८, पृ० १४७ ____ आदि) में प्रकाशित महामहोपाध्याय डॉ. पांडुरंग वामन काणे का लेख । १५. टीकाओं के रचे जाने की यह तिथि शाके ८८८, उस तिथि-'शाके ८९०' से केवल दो वर्ष पूर्व है, जो कोल ब्रुक द्वारा प्रकाशित सूची में दी गई है। यह तिथि उज्जैन के ज्योतिषयों द्वारा प्रदत्त सूची में दी हुई थी। १६. यथा-(अ) अकलंक चरित में विक्रमाब्द के लिए --शकाब्द का प्रयोग हुआ है -विक्रमाङ्क शकाब्दीय शत सप्त प्रमाजुषि । (आ) कात्यायन-स्मार्त मंत्रार्थ दीपिका में भी शाके का प्रयोग विक्रमाब्द के लिए हुआ है- शाके वसु वसु षट्क् प्रथमाङ्ग परमिते । ग्रन्थोऽयं निर्मितः काश्यामनन्ताचार्य धीमता ॥ इस ग्रन्थ का हस्तलेख कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह में है, जिसका लिपिकाल सं० १७२१ वि० है। अत: १६८८ शाके का अर्थ १६८८ विक्रमाब्द ही संभव है। (इ) अनन्ताचार्य के ही 'काण्वयजु भाष्य' में भी रचना-काल संबंधी श्लोक में विक्रमाम्द के लिए शक का प्रयोग हुआ है त्रिपर्वत रसैकश्च मिते विक्रमे शके । एषोधि काश्यनन्तेन प्रणीतोऽयं ग्रन्थमुत्तमः ।। यहां विक्रमाब्द के लिए 'शक' का प्रयोग स्पष्ट है। इसी प्रकार धारा के देवपाल देव के चारवा शिलालेख में भी 'शाका' शब्द का प्रयोग विक्रमान्द के लिए किया गया है। इस प्रकार के कुछ और उदाहरणों के लिए 'इंडियन एण्टिक्वेरी' खं० १९ (१८९० ई०) द्रष्टव्य है। १७. बृहत्संहिता के आठवें अध्याय के बीसवें श्लोक में वराहमिहिर ने 'शकेन्द्र काल' पद का प्रयोग किया है, जो उत्पल की टीका के अनुसार विक्रमाब्द का ही सूचक है। १८. बहत्संहिता और बृहज्जातक की टीका का नाम 'विवृत्ति' है, जो टीका-काल सूचक श्लोकों से स्पष्ट है, किंतु बृहज्जातक-टीका 'चिंतामणि' और 'जगच्चन्द्रिका' नाम से भी प्रसिद्ध है । लघुजातक-टीका का नाम 'हिता' या 'शिष्या हिता' है । उत्पल ने 'राहुचार' की टीका में और दो-तीन अन्य स्थानों में भी लिखा है --'अन्ये एवं व्याचक्षते'-- इससे ज्ञात होता है कि उनके पहले भी 'बृहत्संहिता' की कुछ टीकाएं थीं, किंतु उक्त टीकाओं में से एक भी इस समय उपलब्ध नहीं है । प्रतीत होता है उत्पल की टीका की श्रेष्ठता के आगे वे टिक न सकी । 'उत्पल परिमल' (ले० काश्यप गोत्री भास्कर) नामक उत्पल की टीका का एक संक्षिप्त संस्करण हस्तलिखित-ग्रंथ रूप में प्राप्त होता है। १९. बृहत्संहिता के ४४ वें अध्याय की टीकान्तर्गत (नीराजन विधि विषय में)। २०. कुछ हस्त लेखों के अन्त में उल्लिखित यह उल्लेख अत्यन्त भ्रामक है कि उत्पल, खण्ड २३ बंक ३ ३६५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराहमिहिर के पुत्र और पृथुयशा के पिता थे । पृथ यशा, वराह मिहिर का पुत्र था, उत्पल का नहीं (दे० षट्पंचाशिका, श्लोक-१) । २१. 'वक्ष्येऽहंस्पष्टतरं 'प्रश्न ज्ञानं' हिताय देव विदाम् ।'' "आर्यासप्तत्येदं 'प्रश्न ज्ञानं' समासतो रचितम् ।" २२. इतिश्री भट्टोत्पल विरचितायां ज्ञान मालायां प्रश्न ग्रन्थः समाप्तः । २३. दे० अलबेरूनी का भारत (सचाऊ) खं० १, पृ० १५७-५८, ३३४,३३६,३६१ । वराहमिहिर के 'विवाहपटल' पर भी उत्पल की टीका का उल्लेख मिलता २४. वर्ष शतानां मध्यं न केनचित् पूरिता वृता च जनः । भट्टोत्पलस्तु पूर्णां चकार सारावलीं सकलाम् ।। २५. इससे ज्ञात होता है कि वराहमिहिर के पहले भी संहिता पर ८-१० आचार्यों ने ग्रन्थ लिखे थे। २६. अनेक प्राचीन ग्रंथों की जानकारी के लिए उत्पल की टीका एक बहुत बड़ा साधन है । उत्पल की टीका में सूर्य-सिद्धान्त के जो वचन उद्धृत किये गये हैं, वे इस समय के सूर्य-सिद्धान्त में नहीं मिलते हैं। इसी प्रकार अलबेरूनी द्वारा उत्पल-टीका से उद्धत एक वक्तव्य (खं०१, प० २९८) आजकल प्रचलित टीका में प्राप्त नहीं होता । अत: लगता है, बाद के प्रतिलिपिकारों ने संहिता पर उत्पल की टीका में थोड़ा-बहुत हेरफेर किया है । २७. पं० शंकर बाल कृष्ण दीक्षत ने इन पर शंका की है। उन्होंने शक-संवत् के रूप में इनकी गणना करने की चेष्टा की (दे० भारतीय ज्योतिष, लखनऊ, १९५७, पृ० ३२७) किंतु उनके ध्यान में यह बात नहीं आयी कि उत्पल 'शक' का क्या अर्थ मानते थे। उत्पल को रचनाकाल की तिथि और दिन का शुद्ध ज्ञान नहीं था, यह बात विश्वसनीय नहीं। विक्रमाब्द संवत् के रूप में दोनों तिथियां गणनात्मक दृष्टि से सही हैं । २८. जैसे-उत्पल ने व० सं० के २५।६; २७।९-१०; २८।१७ को अनार्ष माना है। उनके अनुसार अध्याय २७; ५०; ५१ वराहमिहिर रचित नहीं हैं और अध्याय १०२ विन्ध्यवासी का है। व० सं० २८।२३-२४ पर उन्होंने टीका नहीं की है। -वेद प्रकाश गर्ग १४, खटीकान, मुजफ्फर नगर-२५१००२ (उत्तर प्रदेश) तुलसी प्रज्ञा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्रों की वर्तमान भाषा बसमणी चिन्मय प्रज्ञा आगम सूत्रों की मूलभाषा अर्धमागधी रही है। भ० महावीर ने अपनी धर्मदेशना इसी भाषा में दी। इस भाषा का अपना वैशिट्य है। विविध भाषा-भाषी श्रोतृगण अपनी-अपनी भाषा में उसे समझ लेते हैं । जैन वाङ्मय में अनेक स्थलों पर ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। समवायांग सूत्र के ३४वें समवाय में तीर्थंकर चौतीस अतिशयों का वर्णन है, वहां उनके भाषातिशय के सम्बन्ध में कहा गया है-'तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं। उनके द्वारा भाष्यमाण अर्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप आदि जीवों के हित, कल्याण और सुख के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है। औपपातिक सूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने जिस प्रकार काव्यानुशासन के मंगलाचरण में जैनी वाक्, जिसकी उन्होंने स्वयं अर्द्धमागधी भाषा के रूप में व्याख्या की है, की 'सर्वभाषापरिणताम्' पद से प्रशस्तता प्रकट की है, उसी प्रकार अलंकार तिलक के रचयिता वाग्भट्ट ने सर्वज्ञाश्रित अर्द्धमागधी भाषा की स्तवना करते हुए भाव व्यक्त किए हैं..-"हम उस अर्द्धमागधी भाषा का आदरपूर्वक ध्यान-स्तवन करते हैं, जो सबकी है, सर्वज्ञों द्वारा व्यवहृत है, समग्र भाषाओं में परिणत होने वाली है, सार्वजनीन है, सब भाषाओं का स्रोत है। भगवती सूत्र में इसे देव भाषा एवं पण्णवणा में इसका प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा है। भाषा-प्रयोग की अनेक विधाएं होती हैं। जहां श्रद्धा, प्रशस्ति तथा समादर का भाव अधिक होता है, वहां भाषा अर्थवाद-प्रधान हो जाती है। इसे दूषणीय नहीं कहा जाता । पर जहां भाषा का प्रयोग जिस विधा में है, उसे यथावत् रूप से समझ ले, तो कठिनाई पैदा नहीं होती । इसी दृष्टि से ये प्रसंग ज्ञेय और व्याख्येय हैं। भगवान् महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थंकर थे। इस समय उपलब्ध अर्धमागधी आगम वाङ्मय उन्हीं की देशना पर आधृत हैं। अर्धमागधी, प्राकृत का ही एक रूप है । अर्धमागधी के सम्बन्ध में दो अवधारणाएं हैं। पहली यह है कि यह भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती थी। इसलिए अर्धमागधी है। दूसरी अवधारणा यह है कि इसमें मागधी के आधे लक्षण पाए जाते हैं। मागधी के मुख्य लक्षण तीन हैं-अकारान्त पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति में ए होना, र का ल तथा ष, स का श होना। इनमें से अर्धमागधी में पहला लक्षण पाया जाता है एवं कदाचित् र तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ल भी हो जाता है। इसलिए यह अर्धमागधी है। किन्तु अर्धमागधी में अकारान्त पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति में ए एवं ओ दोनों दिखलाई पड़ते हैं। जिनदास महत्तर के अनुसार अर्धमागधी में मागधी शब्दों के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है । इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है। भगवान महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग एवं जाति के थे। इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है। अतः 'मागधी एवं देश्य शब्दों का मिश्रण अर्धमागधी कहलाता है'-- यह निशीथ चूणि का मत संभवत: सबसे प्राचीन है। तत्त्वार्थ की वृत्ति के अनुसार अर्धमागधी भाषा वह होती है जिसमें आधे शब्द मगध देश की भाषा के हों और आधे शब्द भारत की अन्य सभी भाषाओं के इसलिए समवायांग में अगले तेवीसवें अतिशय की व्याख्या में कहा गया है कि भगवान् की भाषा सभी के लिए सुबोध्य हो जाती है। समवायांग के वृत्तिकार ने प्राकृत आदि छह भाषाओं-प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश में मागधी को गिनाया है और यह कहा है कि 'असमाश्रितसमग्रलक्षणा' मागधी ही अर्धमागधी है। इसके लक्षण का निरूपण करते हुए उन्होंने 'रसोर्लशो मागध्याम्' का उल्लेख किया है अर्थात् मागधी में र का ल और स का श हो जाता है। डॉ० पिशेल के अनुसार आर्ष और मागधी भाषा एक ही है। किन्तु, निशीथचूर्णिकार के अनुसार अर्धमागधी में केवल मागधी की ही नहीं किन्तु अठारह देशी भाषागत विशेषताएं उपलब्ध हैं। जैन वाङ्मय में अनेक स्थानों पर देशी भाषा सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ नायाधम्म कहाओ में सम्राट् श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार के वर्णन के प्रसंग में कहा गया है--तब वह कुमार"....'अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में प्रवीण हुआ। राजप्रश्नीय" और औपपातिक" में प्रसंग है-वह दृढप्रतिज्ञ बालक.... ..अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद था। विपाकसूत्र१२ में आया है ....."वाणिज्यनाम में कामोद्धता नामक वेश्या थी, जो...... अठारह देशी भाषाओं में कुशल थी। पर वे अठारह देशी भाषाएं कौन सी थीं ? नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत पाठ पर विवेचन करते हुए अष्टादश लिपियों का उल्लेख किया है, पर अठारह देशी भाषाओं का नहीं । जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूणि में मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड़, गौड और विदर्भ इन आठ देशों की भाषाओं को देशी कहा है । बृहत्कल्पभाष्य" में आचार्य संघदासगणी ने भी इन्हीं भाषाओं का उल्लेख किया है। कुवलयमाला" में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरू, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताणिक), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। डॉ० ए० मास्टर५ का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में ओड्र और द्राविड़ भाषाएं मिला देने से जो अठारह भाषाएं देशी हैं, वे हो जाती हैं । इसलिए जिसे उत्तरवर्ती व्याकरणों ने आर्ष तुलसी प्रज्ञा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा है, वह व्याकरण के नियमों से सर्वथा अनियन्त्रित भी नहीं है और लौकिक संस्कृत की भांति बहुत नियन्त्रित भी नहीं है। आर्ष-प्रयोग प्राचीन व्याकरण से नियन्त्रित है। उन नियमों की जानकारी वैदिक व्याकरण के नियमों के सन्दर्भ में की जा सकती है। आचार्य हेमचन्द्र एवं त्रिविक्रम ने आर्ष का विवेचन किया है। वस्तुतः जैन परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अर्द्धमागधी (जो जैन आगमों की भाषा है।) के प्रति विशेष आदरपूर्ण भाव था, अतएव उन्होंने इसे आर्ष नाम से अभिहित किया।" इस आर्ष शब्द का मूल आगम का ऋषिभाषित शब्द है ।" आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में आर्ष-विधियों को वैकल्पिक बताया है।८ इस नियम के अनुसार उन्होंने आगम-सूत्रों के उन स्थलों का निर्देश किया है, जो उनकी दृष्टि में 'व्याकरण-सिद्ध नहीं थे। उदाहरण के रूप में कुछ प्रयोग प्रस्तुत हैं 'पच्छेकम्म' 'असहेज्ज' ये दोनों आर्ष प्रयोग हैं। इनमें जो 'एकार' है, वह व्याकरण सिद्ध नहीं है। 'आउंटणं'--इस प्रयोग में जो 'चकार' को 'टकार' वर्णादेश है, वह व्याकरणसिद्ध नहीं हैं।" 'अहक्खाय', 'अहाजायं'-प्राकृत व्याकरण के अनुसार आदि के 'यकार' को 'जकार' वर्णादेश होता है। किन्तु आर्ष-प्रयोग में 'य' का लोप भी हो जाता है। ये दोनों प्रयोग इसके उदाहरण हैं ।२१ 'दुवालसंगे'-प्राकृत व्याकरण के अनुसार इस प्रयोग में लकार वर्णादेश प्राप्त नहीं हैं, किन्तु आर्ष में ऐसा प्रयोग मिलता है ।११ _ 'इक्खू, खीरं, सारिक्खं'-ये आर्ष प्रयोग हैं। प्राकृत व्याकरण के अनुसार अक्ष्यादि गण के संयुक्त 'क्ष' को 'छकार' आदेश होता है। जैसे उच्छू, छीरं, साहिच्छं।" प्राकृत भाषा में सामान्यत: 'क्ष' को 'ख' कार आदेश होता है । आर्ष प्रयोगों में प्रायः वही मिलता है। - आर्ष प्रयोग में 'ध्य' को चकार आदेश होता है। जबकि प्राकृत व्याकरण से उसे छकार आदेश किया गया है । प्राकृत व्याकरण में 'श्मशान' का 'मसाण' रूप बनता है। आर्ष प्रयोग में इसके दो रूप मिलते हैं-सीआण, सुसाण ।" प्राकृत में स्रोत शब्द का सोत्तं रूप बनता है किन्तु आर्ष में 'पडिसोओ', 'विस्सोअसिआ'-रूप भी मिलते हैं।" आर्ष-प्रयोग में संयुक्त वर्ण के अन्त्य व्यञ्जन से पूर्व 'अकार' होता है । तथा 'उकार' भी होता है।" आर्ष-- प्रयोग में 'किरिया' पद का 'किया' रूप भी मिलताहै।" आर्ष--प्रयोग में द्रह शब्द का 'हरए' रूप मिलता है। 'कटु'-यह आर्ष प्रयोग है।" निपात प्रकरण में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि आर्ष प्रकरण में जो प्रयोग बंड-२३, अंक-३ ३६९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध हैं, वे सब अविरूद्ध हैं। __ आर्ष-प्रयोग में संस्कृत-सिद्ध रूपों के प्रतिरूप भी मिलते हैं। शौरसेनी में ‘णं' ननु के अर्थ में निपात है, किन्तु आर्ष प्रयोगों में वह वाक्यालंकार में भी प्रयुक्त होता है । आगम-सूत्रों के व्याख्याकार व्याकरण से सिद्ध न होने वाले आर्ष प्रयोगों को अलाक्षणिक और सामयिक कहते हैं । 'वत्थगंध-मलंकारं' (दसवेआलियं २।२) इस पद में 'मलं कार' का 'म' अलाक्षणिक है। हरिभद्रसूरी ने लिखा है- अनुस्वार अलाक्षणिक है । मुख-सुखोच्चारण के लिए इसका प्रयोग किया गया है।" प्राकृत व्याकरण में पकार के लुक् का विधान है" और पकार को वकार वर्णादेश भी होता है।" इन दोनों की प्राप्ति होने पर क्या करना चाहिये, इस जिज्ञासा के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है - जिससे श्रुतिसुख उत्पन्न हो, वही करना चाहिए।" 'दंतसोहणमाइस्स' (उत्तरा० १९।२७) इस पद में भी मकार अलाक्षणिक माना जाता है । किन्तु इन सबके पीछे सुखोच्चारण तथा छंदोबद्धता का दृष्टिकोण है। 'वत्थगंधालंकारं' तथा 'दंतसोहणा इस्स'- इन प्रयोगों में उच्चारण की मृदुता भी नष्ट होती है और छंदोभंग भी हो जाता है । हरिभद्र सूरी ने 'गोचर' शब्द को सामायिक (समय या आगमसिद्ध) बतलाया है । प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार 'गोचार' होना चाहिए था।" आगमिक प्रयोगों में विभक्तिरहित पद भी मिलते हैं । गिण्हाहि साहगुण मंचडसाह (दस० ९।३।११) यहां 'गुण' शब्द द्वितीया विभक्ति का बहुवचन है। पर यहां इसकी विभक्ति का निर्देश नहीं है। 'इंगालधूमकारण'---इस पद में विभक्ति नहीं है। आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार के विभक्ति लोप का हेतु आर्षप्रयोग बतलाया है ।।१।। आर्ष या सामयिक प्रयोग के प्रतिपादन का हेतु काल का अन्तराल है। आगम सूत्रों के कुछ प्रयोग व्याकरण सिद्ध नहीं हैं, इस धारणा के पीछे दो हेतु थे १. प्राकृत व्याकरणकारों के समय जो व्याकरण उपलब्ध थे या उन्हें जो नियम ज्ञात थे, उनसे वे प्रयोग सिद्ध नहीं होते थे । २. प्राकृत व्याकरणकार प्राकृत की प्रकृति संस्कृत मानकर चले । आगम सूत्रों में बहुत सारे देशी भाषा के प्रयोग हैं, जिनका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है । __ इन धारणाओं से उन्होंने उन प्रयोगों को अलाक्षणिक, आर्ष या सामयिक कहा। थदि हम काल के अन्तराल पर ध्यान दें तो कुछ नए तथ्य उद्घाटित होंगे। निशीथ भाष्य २ में आगमसूत्रों को 'पुराण' कहा गया है । उनका विषय भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित और उनका संकलन गणधरों द्वारा कृत है, इसलिए वे पुराणप्राचीन है। उनकी भाषा 'प्राकृत अर्द्धमागधी' है और उसमें अठारह देशी भाषाओं का सम्मिश्रण है। ___आगम सूत्रों की मूलभाषा अर्द्धमागधी रही है। देवद्धिगणी ने आगमों का नया संस्करण वल्लभी में किया था। महाराष्ट्र में जैन श्रमणों का विहार होने लगा। उस स्थिति में आगमसूत्रों की अर्धमागधी भाषा महाराष्ट्री से प्रभावित हो गई। आचार्य तुलसी प्रज्ञा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्र का विहार स्थल भी मुख्यत: गुजरात था। वह महाराष्ट्र का समीपवर्ती प्रदेश है। उन्होंने महाराष्ट्री के प्रचलित प्रयोगों को अपने प्राकृत व्याकरण में प्रमुख स्थान दिया । अर्धमागधी के उन प्राचीन रूपों, जो उस समय तक आगमों में सुरक्षित थे, को आर्ष प्रयोग के रूप में उल्लिखित किया। मूलतः प्राचीन आगम-सूत्रों (आयारो, सूयगड, उत्तरज्झयणाणि आदि) की भाषा महाराष्ट्रीय नहीं थी, किन्तु उत्तरकालीन आगमों तथा उनके व्याख्या ग्रंथों की भाषा महाराष्ट्री हो गई। सभी जैनागमों की भाषा न अर्धमागधी है और न महाराष्ट्री। आर्ष प्राकृत का अध्ययन करते समय यह तथ्य विस्मृत नहीं होना चाहिए । ! सन्दर्भ स्थल : १. समवाओ, ३४।२२.२३ जैन विश्व भारती लाडन, राजस्थान, १९८७ भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्माइक्खइ। सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खिसिरिसिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहदाभासत्ताए परिणमइ । २. ओवाइयं, सूत्र ८१ पृ० ४६, जैन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान, १९८७ । ३. अलंकार तिलक, १११ सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सार्वीयां सर्वतोवाचं सावंज्ञी प्रणिदध्महे । ४. भगवई, ५१९३ देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति । ५. पण्णवणा, १९९८ से किं तं भासारिया ? भासारिया जे णं अद्ध मागहाए भासाए भासिति । जत्थ वि य ढं बंभी लिवी पवत्तइ । ६. निशीथचूणि मगदद्ध विसयभासणिबद्ध अद्धमागहं अट्ठारसदेसीभासाणियतं वा अद्धमागहं । ७. षट्प्राभृतटीका, पृ० ९९ सर्वाद्धं मगधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अद्धं भगवद्भाषाया मगधदेशभाषा त्मकं, अद्धं च सर्वभासात्मकम् । ८. समवायांगवृत्ति, पत्र ५९ प्राक्रतादीनां षण्णां भाहाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा 'रसोर्लशो' मागध्यामित्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितस्वकीयसमग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते । ९. नायाधम्मकहाओ, ११११८८ जन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान, वि० सं० २०३१ । खण्ड २३ अंक ३ ३७१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. रायपसेणियं, सूत्र ८०९ जैन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान, १९८७ । ११. ओवाइथं, सू० १४८ जैन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान, वि० सं० २०३१ । १२. विवागसूयं २७ जैन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान, वि० सं० २०३१ । १३. बृहत्कल्पभाष्य, द्वितीय भाग, १२२९ की वृत्ति । १४. कुवलयमाला, पृ० १५२-५३ । १५. A Master B, SOAS XIII-2 1950 pp. 41315 १६. हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण ८।२८७ । १७. ठाणं ७ ४८ । १० सक्कता पागता चेव, दुहा भणितीओ आहिया सरमंडलंमि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिता ॥ १८. हेमशब्दानुशासन, ८।१।३ आर्षो हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते । १९. हेमशब्दानुशासन, ८।१।७९ : आर्षे अन्यत्रापि । पच्छेकम्मं । असहेज्ज देवासुरी । २०. वही, ८।१।१७७ : आर्षे अन्यदपि दृश्यते । आकुञ्चनम् आउण्टणं । अत्र चस्य टत्वम् । २१. वही, ८।१।२४५ : आर्षे लोपोपि । यथाख्यातम् अहखायं । यथाजातम् - अहाजायं । २२ वही, ८।१।२५४ : अर्षे दुवालसंभे इत्याद्यपि । २३. वही, ८।२।१७ : आर्षे इक्खू, खीरं, सारिक्खमित्याद्यपि दृश्यते । २४. वही, ८।२।३ : क्षः खः क्वचितु छ- भो । २५. वही, ८।२।२१ : आर्षे तथ्ये चोऽपि तच्चं । २६. वही, ८।२।९६ : आर्षे श्मशानशब्दस्य सीआणं सुसाणमित्यपि भवति । २७. वही, ८।२।९६८ : आर्षे पडिसोओ विस्सोअसिआ । २८. वही, ८।२।१०१ : आर्षे सूक्ष्मेऽपि, सुहमं । २९. वही, ८।२।११३ : आर्षे सूक्ष्मेऽपि, सुहुमं । ३०. वही, ८।२।१०४ : किरिया, आर्षे तु हयं नाणं कियाहीणं । ३१. वही, ८।२।१२० : आर्षे हरए महपुण्डरिए । ३२. वही, ८।२।१४६ : कट्टु इति तु आर्षे । ३३. वही, ८।२।१७४ : आर्षे तु यथादर्शनं सर्वमविरुद्धम् । ३४. वही, ८।३।१६२ : आर्षे देविन्दो इणमब्बवी इत्यादौ सिद्धावस्थाप्रयणात् ह्यस्तन्याः प्रयोगः । ३५. वही, ८।४।२८३ : आर्षे वाक्यालंकारेऽपि दृश्यते । ३६. दशवैकालिक हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र ८६ अनुस्वारोऽलाक्षणिक, मुखसुखो - उच्चारणार्थं । ३७. हेमशब्दानुशासन, ८।१।१७६ : क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक् । ३८. वही, ८।१।१३१ : पो वः । ३९. वही, ८।१।२३१ : वृत्ति-- एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपविकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः । ३७२ तुलसी प्रशा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. दशवकालिक, हरिभद्रीया, वृत्ति पत्र १९ : सामयिकत्वात् गोरिव चरणं गोचरः अन्यथा गोचारः। ४१. पिण्डनियुक्ति, गाथा १, वृत्ति-सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात् । ४२. निशीथ भाष्य, गाथा ३६१८ पोराणमद्धमागहभासाणिययं हवति सुत्तं ॥ चूणि-तित्थयरभासितो जस्सऽथो गंधो य गत्रधरणिबद्धो तं पोराणं । अहवा पाययबद्धं पोराणं, मगहऽद्धविसय भासणिबद्धं अद्धमगहं । अधवा-अट्ठारसदेसीभासणियतं अद्धमागधं भवति सुतं । -समणी चिन्मयप्रज्ञा मैन विश्व भारती संस्थान मान्य विश्वविद्यालय Jain, Education International Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक- समीक्षा १. पियंकर कहा - लेखक : मुनिश्री विमलकुमार, प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं । प्रथम संस्करण : १९९७ मूल्य २० रुपये 'पियंकर कहा ' मुनिश्री विमलकुमार की प्राकृत भाषा में लिखित गद्य कृति है । इसमें राजा प्रियंकर के जीवन से सम्बन्धित विविध घटनाएं और उपसर्ग हर स्तोत्र का महात्म्य प्रतिपादित है । यह प्राकृत कथा ग्रन्थ सात उच्छ्वासों में निबद्ध है। इसमें प्रियंकर कथा के साथ अशोक सेन, पास दत्त, प्रियश्री, धनदत्त, पल्लीपति, धरणेन्द्र देव आदि की प्रासंगिक कथाएं भी हैं । घटनाओं का वर्णन कुतूहल भरा है । भविष्यवाणी, अनेक प्रकार के निमित्त, स्वप्न, हार का गले में गिरना, देव द्वारा विविध रूप धारण कर प्रियंकर की सहायता करना आदि अनेक लोक - विश्वासों का प्रसंगोचित गुम्फन हुआ है । प्रस्तुत कथा की भाषा सरल और सुबोध है। साथ में हिन्दी अनुवाद दे देने से उसकी पठनीयता बढ़ गई है। साथ ही प्राकृत शब्द सिद्धि के लिए प्राकृत व्याकरण के सूत्र दे दिए हैं और अन्त में अर्थ सहित प्राकृत शब्द सूची भी दी गई है जा प्राकृत सीखने में उपयोगी है । सर्वांश में प्राकृत भाषा की यह कृति लोक प्रिय होगी और प्राकृत भाषा प्रेमियों द्वारा मुनिश्री की दूसरी कृतियों की तरह ही पसंद की जाएगी - ऐसी पूर्णाशा है । २. स्वराज और जैन महिलाएं -लेखक : डॉ. श्रीमती ज्योति जैन, प्रकाशक : श्री कैलाशचन्द जैन स्मृति न्यास, कुन्दकुन्द जैन महाविद्यालय, खतौली – २५१२०१, मूल्य : २५ रुपये आजादी की स्वर्ण जयन्ती के उपलक्ष्य में प्रकाशित डॉ. ज्योति जैन की पुस्तकस्वराज और जैन महिलाएं उनके द्वारा दस वर्ष तक किए श्रम की पहली प्रतिकृति है । सूचनानुसार उन्होंने अपने पति डॉ. कर्पूरचन्द जैन के साथ मिलकर 'स्वतंत्रता संग्राम में जैन' - विषय पर गहन शोध की है और लगभग तीन हजार जैन जेल यात्री, बीस शहीद और पांच क्रांतिकारी एवं अनेकों आजाद हिन्द फौज में योगदान करने वाले जैनों की पहचान की है । प्रस्तुत कृति में डॉ. जैन ने ३८ जैन महिलाओं का परिचय दिया है जिनमें श्रीमती कमला जैन (अलवर), सरदार कुंवर लूणिया ( अजमेर) और प्रेमकुमारी विशारद ( कोटा ) के नाम भी शामिल हैं। नमक सत्याग्रह में कोतवाली पर धरणा तुलसी प्रज्ञा, लाडधूं : खण्ड २३ अंक ३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देने वाली अगूरीदेवी (छह माह की सजा भोगने वाली) जैन वाला आश्रम, आरा की स्थापना करनेवाली ब्रह्मचारिणी पण्डिता चन्दाबाई, भारत छोड़ो आंदोलन (सन् १९४२) में ८ माह १८ दिन जेल काटनेवाली श्रीमती नन्हीबाई, सन् १९३३ के नागपुर झंडा आंदोलन में दो वर्ष जेल यातना सहन करने वाली श्रीमती माणिक गौरी और विधायिका रही श्रीमती विद्यावती देवड़िया जिनके नागपुर सेन्ट्रल जेल में ६ माह और जबलपुर जेल में एक वर्ष का कारागारवास भोगने आदि का विवरण बहुत रोमांचकारी है। पुस्तक के अन्त में लेखिका ने ५० संदर्भ ग्रंथों के नाम आदि का सम्पूर्ण विवरण दिया है जिनके आधार पर यह इति वृत्त लिखा गया है । पुस्तक संग्रहणीय है और महिला संगठनों में वितरण-योग्य है। ३. सर्वोवयी जैन तंत्र-लेखक : डॉ. नन्दलाल जैन, प्रकाशक : पोतदार धार्मिक एवं पारमार्थिक न्यास, पोतदार निवास, टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) मूल्य-२५/रुपये । प्रस्तुत कृति सन् १९९३ में प्रकाशित 'जैन सिस्टम इन नटशैल' का हिन्दी अनुवाद है जो 'निज ज्ञान सागर शिक्षा कोष, सतना, के प्रोत्साहन पर मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई थी। 'जैन सिस्टम इन नटशल' को देश-विदेश में समादर मिला और अमेरिका के प्रो. डेविड एम. बुकमैन, प्रो. नोएल. एच. किंग और प्रो. काम्बल क्राफोर्ड तथा ब्रिटेन के प्रो. के. ही. मरडिया जैसे विद्वानों ने उसे अत्यन्त उपयोगी माना । मुनिवर्य नंदिघोषविजय एवं एलाचार्य ने श्री नेमीसागरजी ने इस कृति को अपना मंगल आशीर्वाद दिया। इसीलिए पोतदार धार्मिक एवं पारमार्थिक ट्रस्ट ने रत्नत्रय धर्म की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ ,रत्नकरण्डक श्रावकाचार' के प्रकाशन बाद इस सर्वोदयी जैन तन्त्र को प्रकाशित करने का निर्णय लिया और यह लघु परन्तु अतीत महत्त्वपूर्ण कृति पाठकों को उपलब्ध हुई है। जैन सिद्धांत क्या हैं ? सुख-दुःख क्यों हैं ? जैन सिद्धांत की दृष्टि अर्थात् १४ गुण, ८ कर्म, ७ तत्त्व, ४ कषाय और ३ रत्न आदि पर इस लघु कृति में संक्षिप्त पर सटीक विवरण है । कुछ एक जैन मान्यताओं को तो गणितीय रूप दे दिया गया इस प्रकार सर्वोदयी जैन तन्त्र में जैन जगत् के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक जीवन का निष्पक्ष विहगावलोकन हो गया है । वस्तुत: लेखक ने धर्म शब्द की जगह तन्त्रशब्द का प्रयोग करके अपनी नीर क्षीर विवेकिनी दृष्टि को उजागर किया है और जैनेतर लोगों को आकर्षित करने को अनायास ही सफल प्रयोग कर दिया है। आशा है कति लोक प्रिय होगी और इसके अनेकों संस्कारण होंगे। तुलसी प्रमा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. शिक्षण की वैज्ञानिकता-लेखक : रामनरेश सोनी, प्रकाशक-कलासन प्रकाशन, कल्याणी भवन, बीकानेर, मूल्य-१२०/- रुपये। पिछले वर्षों में जॉन टॉल्ट, कार्ल रोजर्स, फ्लैण्डर्स, ज्यॉ पियाजे, विलियम जेम्स, कोनराड लॉरेंज, मार्शल मेक्लुहान, माकारेको, एरिक एरिक्सन, बैंजामिन ब्लम, पारलोफे रे, वसीली सुखोम्लीन्स्की, गिजुभाई बधैका, वर्जीनिया एक्सेलाइन, थोर्नडाइक जिरोन ब्रूनर, ए. एस नील, जे. कृष्णमूर्ति, मार्गरेट डोनाल्डसन, हर्बर्ट थेलन तथा रोबीकिड जैसे मनीषियों ने शिक्षा जगत् को काफी क्रांतिकारी विचार दिए हैं जिनको आत्मसात् करके अध्यापक अपने शिक्षण को जीवन्त, प्रभावशाली तथा वैज्ञानिक बना सकता है । प्रस्तुत ग्रन्थ के लेख उपर्युक्त विद्वानों के चिन्तन की ही परिणति हैं। इन निबंधों तथा कहानीनुमा लेखों के लेखक श्री रामनरेश सोनी हैं जो राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ शिक्षक व सिद्धहस्त सम्पादक हैं। आपको दो दशकों से अधिक 'शिविरा' (मासिक) व 'शिक्षक' (त्रैमासिक) के संपादन का अवसर मिला है । पुस्तक का मेक-अप, छपाई, भ्रूफ संशोधन आदि सभी पूर्ण योग्यतापूर्वक किए गए हैं । यथास्थान रेखा चित्र (कार्टून) भी दिए जाते तो पाठकों की रुचि और भी ज्यादा बढ़ती । कुल मिलाकर पुस्तक संग्रहणीय तथा जिज्ञासु अध्यापकों के लिए मननीय है। ५. स्मारिका, १९९५-९६, संपादक-डॉ. किरण नाहटा, डॉ. धर्मचंद जैन एवं श्री उदय नागौरी, प्रकाशक-श्री जैन पाठशाला सभा, बीकानेर । प्रस्तुत स्मारिका में शुभकामना संदेश, श्री जैन पाठशाला सभा के बढ़ते चरण, चित्र वीथी, उदार मना सहयोगी, दर्शन, दृष्टि, दृश्य-इत्यादि खंडों के रूप में प्रभूत् सामग्री दी गई। __ मूलतः यह जैन पाठशाला सभा की सन् १९०७ से सन् १९९६ तक की गतिविधियों का परिचय देने को प्रकाशित की गई स्मारिका है किन्तु सम्पादकों ने इस अवसर का लाभ उठाकर दृश्य खंड में प्राकृत ग्रन्थों में प्रकृति संरक्षण के सूत्र, बीकानेर अंचल का पुरातात्त्विक वैभव और लोक कथाओं का शैक्षणिक महत्त्व तथा दृष्टि खंड में शिक्षा का माध्यम, भारतीय संकृति के केन्द्र, स्त्री शिक्षा, जीवन विज्ञान : अहिंसा केन्द्रित शिक्षा का प्रयोग, शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, धर्म और शिक्षा और अहिंसा का अर्थशास्त्र जैसे लेख तथा दर्शन खंड में गणाधिपति तुलसी, श्रीमद् जवाहराचार्य, आचार्य श्री विजय वल्लभसूरि, आचार्य विनोवा भावे, डॉ. छगनलाल मोहता, श्री सिद्धराज बढा, श्री स्वामी संवित् सोमगिरि जैसे चिंतकों के विचारों को भी प्रकाशित कर दिया है। इसलिए यह स्मारिका संग्रहणीय होने के साथ साथ पठनीय ही गई है। ६. जैन सिद्धांत भास्कर भाग ४९ अंक १-२, सम्पादक-डॉ. राजाराम जैन, प्रकाशक- श्री देवकुमार जैन ओरियण्टल रिसर्च इंन्टीच्यूट, आरा (बिहार), मूल्य५० रुपये। जैन पुरातत्त्व सम्बन्धी वार्षिक शोधपत्र अथवा दी जैन एण्टीक्वेरी नाम से यह बण्ड २३, बंक ३ ३७७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्नल लगातार प्रकाशित हो रहा है। भाई अजयकुमार जैन के सद् उद्योग से जैन जगत् का यह प्राचीन जर्नल निरन्तर अतीत महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रकाश में लाने का संवाहक बना है। प्रस्तुत अंक में जैन संस्कृति के विकास में नारी की भूमिका, जैन दर्शन के तीन अकार : अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह; Reference to Buddhist Philosophical Problems in Jain Anga Agamas; The Jain concept of Liberation as depicted is the Uttaradhyayana sutra आदि लेख और जर्नल में छपे लेखों की (भाग ३७ से ४५ तक) सम्पूर्ण सूची तथा मां श्री ब्रह्मचारिणी पं. चन्दाबाई एवं महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्बन्धी परिचयात्मक जानकारी पठनीय ७. शोधादशं (३३) सम्पादक-डॉ. शशिकांत एवं रमाकांत जैन, प्रकाशक-- श्री तीर्थंकर महावीर स्मृति केन्द्र समिति, उत्तर प्रदेश, लखनऊ-४, मूल्य-१५/रुपये। ____डॉ. शशिकांतजी राज्यसेवा से सेवानिवृत होने के बाद शोधादर्श के सम्पादनप्रकाशन में दत्तचित्त हैं और उन्होंने शोधादर्श के पिछले अंकों में जैन जगत् से जुड़े अनेकों संवेदनशील प्रश्नों को उठाने के अलावा शास्त्रीय चिन्तन और मनन के अनेकों सारगभित लेख प्रकाशित किए हैं । यह बहुत श्रेयस्कर पक्ष है कि इन वर्षों में अनेकों विद्वान् शोधादर्श से जुड़े हैं। प्रस्तुत अंक में भी जैन समाज को अल्पसंख्यक की मान्यता, आवश्यकों की प्राचीन परम्परा, राजा चन्द्रगुप्त और आचार्य भद्रबाहु और भारतीय इतिहास के पुननिर्माण में जैन सामग्री के उपयोग की आवश्यकता जैसे विचारोत्तेजक लेख हैं। वृद्धों की समस्या, नास्तिक क्यों ? और जिज्ञासा जैसे शीर्षक भी शोधादर्श की जीवंतता को प्रदर्शित करते हैं। पन्द्रह रुपये के स्वल्प व्यय में शोधादर्श अच्छी सामग्री प्रदान करता है। इसलिए प्रत्येक जैन पाठक को इसे आवश्यक क्रय करना चाहिए । -परमेश्वर सोलंकी ३७८ तुलसी प्रमा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ English Section Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WHAT IS YOGA ? Chandramouli S. Naikar Yogena cittasya padena vācam malaṁ sarirasya ca vaidyakena / Yo' Päkarot tam pravaram muninam patanjaliñ prānjalirānatosṁi /! - Bhojadeva in Patañjali's Yoga Sūtravštti "I must humbly bow down to patañjali, the best of all ascetics who cleansed the mind by composing Yogasūtras. the speech by Mahābhāşya (on Panini) and the physical body by a work on medicine." Etymologically the Sanskrit word 'Yoga' derived from the root Yuj' meaning 'to bind together', 'holdfast', 'yoke', 'join', 'unite', 'union', and so on. This term in Indian context or religion, serves in general to designate any ascetic technique and any method of meditation. The "Classical" form of Yoga is a Darsana (View, Doctrine i.e. system of Philosophy) expounded by patañjali through his Yoga Yütras. Side by side, with this classical system of Yoga, we find many forms of sectarian, popular (Magical) and non-Brahmanic yogas such as Buddhist and Jain forms also. Some scholars hold that the word yoga has two meanings in India. 1) Contemplation raised to a formal art. 2) One of the six systems of Brahmanic Philosophy. Patañjali is not the creater of Yogadarsana because he himself has administered that he has merely edited and integrated the doctrinal and technical practices or traditions of Yoga and hence held : Atha yogānušāsanam (I. 1). But even the Hindus unanimously regard patañjali as the founder of the system. The word 'yoga' occurs in the Rgveda in various senses such as yoking or harmonizing, achieving the unachieved, connection etc, etc. In various Upanişads also we find this word yoga in the same sense employed in the Yogasūtras; The Kathopanişad says : Tam Yogamiti manyante sthiramindriya dhāraṇam (VI. 11). i.e. "The wise man reflecting on God by means of Yoga, by concentrating the mind on the inner spirit, becomes free from joy and grief (Adhyatmayogadhigamena'). Tulst-Prajña. Ladoun : Vol. 23 No. 3 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 TULSI-PRAJNE We get many details in other Upanişads as well. The Taittiriyo panișad spoke of 'Vijnanamaya Atma', Svetāśvataropanişad and Prašno pantsad spoke of pratyāhāra viz. Ātmani Sarvendriyāni Pratisthāpya". Brhadaran yakopani şad spoke of Prānāyāma ie. "Tasmādekameva Vrtant caret prānyaccaiva apanyäcca' etc. Now, I try to focus on the essence of the meaning of the word yoga The word yoga means union between Jivātma and paramātma. The science which teaches the way of acquiring this (ccult knowledge (Rahasya Vidyā) is called yogaśāstra As this knowledge leads directly to the fusion of the jivātma and the Paramātma, it is considered to be very sacred and sublime-Sresthavidyā, Pavitra Vidyā. According to the Sāstras, no knowledge stands higher in impor. tance than the yagaśāstra and the Vedas call it, hence the Vidya. Lord Shiva described it in the 'Siva Samhită' thus: Alokya Sarvasästrāņi Vicārya ca punaḥ punaḥ Idamekaṁ Sunispannam yogaśāstram paraṁ matam 1.17 On studying all the Šāstras and constantly meditating on them, I have come to the conclusion that no Sastra, is so worthy of study as the yoyaśāstra. Therefore, yoga is the best of all sciences through the Ages, as there is no any bar to all to practice, yoga isrespective of gender, age and caste. This is the only secular (Jātyatīta) practice in India to be undertaken by all. Yuvävsddho tiyrddho vă vyādhito durbalo' pi vå Abhyāsät Siddhimāpnoti Sarvarogeșvatandritaḥ // Any person who is not lethargic in the persuit of different forms of yoga, attains siddhi through practice, be he young old or even very old, sickly or weak said Svåtmarama about Hathayoga in his Hashayogapradipika To achieve anything, in life, one should have a firm desire namely 'manonirdhāra' for which 'manonigraha' is essential. So manos is every thing. The following sentence endorses this : 'Mana eva manuşyāņāṁ karaṇam baņdha mokşayoh.' Mind is the only reason to lead one to bondage or liberation. But it is very fickle and needs to be harnessed or controlled. The Bhagavadgitā says thus about the fickleness of the mind. Cañcalam hi manah krşņa pramathi belavad dựdham / Tasyahań nigraha manye vāyoriva suduşkaram II (VI. 34) Oh Lord Krishna, the mind is verily restless, turbulent, dogged and difficult to bend. I think its control is as difficult as that of the wind. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 99 Patanjali the great sage held in his yoga sūtras that this mind needs to be 1 arnessed: Yogah Cittavṛtti nirodhaḥ. (I. 11) meaning yoga is bringing to contemplate cessation of the functional modifications of Citta. The control of the mind is not the complete aim of yoga but achieving the Supreme goal of it. Sivädvaita-oneness with the Goal or Almighty. The Sacred Bhagavadgītā gave the following three sentences wherein yoga is explained thus: Yogaḥ karmasu kausalam. yoga is the very dexterity of work. Samatvam yoga uccyate. Even mindedness is yoga. Duḥkha Samyogaviyogaṁ yoga samjñitam. Disentanglement from contact-born misery is known as yoga. All these explain that yoga is possible through the control of mind i.e. Cittavṛtti nirodha. The Sivasamhita-a text on yoga explains as follows: jnānam yogātmukaṁ viddhi yogaścästänga samrutaḥ Samyogo yogaḥ ityukto Jivātmā paramātmanoh II I-43. Yoga is the soul af fnāna and yoga is in the form of Aṣṭānga and the union of Jivātma and Paramātma is yoga. Yogo is a practical science to be undertaken. It is justified in Ste the following verse. Kriyauktasy siddhiḥ Syadakriyasya katham bhavet Na sastrapathamāireṇa Yogasiddhiḥ paajāyate. One who intends to practice (yoga) will obtain Siddhi, but not one who is idle. Yogasiddhi is not obtained by a mere reading of the ästras. I am reminded of three famous sentences said by a great yoginShri Ramachandra Maharaja of Shahajahanpur of the present century. Hence to undertake yoga, one needs a guide or a teacher or preceptor, Svātmārama has also held this view and recorded it in his work: 'Gurupadiṣṭa mārgeṇa yogameva Sadābhyaset' (H.P. 114) When one undertakes yoga he will become self perfect. 'Self F 'Philosophy is (the way of) thinking' Yoga is (the way of) doing' and Realization is (the way of) undoing'. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 TULSI-PRAJRA VAL perfection is the goal in life and yoga is the means to it' said a great philosopher of yoga. Everybody wants to be happy under all circumstances but no body is happy. It is said that there are only two persons who are happy. One is died and the other is to take birth. But what about of him who is born and yet not died ? This means after the birth and before the death one should do something and to do something sumtuous he has to fight, because "Life is a struggle and one has to fight" said Lord Shri Kțsbņa in the Bhagavadgitā. We have two free ourselves from bondage and get liberationMokşā,, one of the four human goals of our life, and the other being dharma, artha, and kāma. There are many yogas namciy karmayoga, jñānayoga, fainyoga, Bauddhayoga, Japayoga, Tapayoga, Mantrayoga, Layayoga, Hathayoga Rajayoga. But four are very important as per this (following) sentence : Mantro layo hatbo rajayogasceti caturvidham' Here, Hathayoga leads to physical development and Rajayoga leads to psychological development. Therefore, tbe basic and elementary Asanas are undertaken for any beginner of yoga. Patañjali preached Aşçãnga yoga namely. Yama, Niyama, Asana, Prāņāyāma. Pratyahāra, Dhyana Dhäranā and Samadhi. This is also known as Rajayoga. To achieve this, one has to undertake Hathayoga. Here 'Ha' means 'Pingala'- Sürya' or right oostril. 'Tha' means 'Ida'-Candra or left nostril, controlling the breath through 'ha' and 'tha is Hathayoga. To say in other words pränäyāma through these nädis is Hatha yoga which leads to Rajayoga. Asanas, kriyas. präņāyāma, mudras and laya or Samadhi or Nadamu sandhāna from the integral part of 'yoga'. Padmasana, Svastikāsana. Gomukhāsana, Virāsana, Kurmāsana, Bhujangäsana, savāsana etc , are the Asanas. Dhauti, Basti, Neti, Trätaka, Nauli and Kapalabhāti are the Sakriyas which purify the body. The techniques and the are to be explained by the practical preceptor. After these, Prānávame is to be undertaken. Süryabhedana, Ujjāyi, Sitkāri, Sitali. Bhastrika, Bhramari, Mürcha. and Plāvint are the eight kumbhakas which purify the whole nervous system. i.e. 72000 nädis. By practicing these, a Sadhaka becomes very attractive even to the female ascetics viz. Yoginicakra Sammanyah When a Sådhaka or an aspirant performs these, the pränaväyu enters in the column of Suşumnā by which Kundalini will be aroused. Mahamudrā, Mahābardha, Mahāvedha, Khecari, Uddiyāna, Mülabandha, Jalandharabandha, Viparitakarani. Vajroli and Sakticălana-thesc ton Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 101 munras leed to the arousal of Kundalint. Uapuḥ krsatvaṁ vadane prasannată Náda sphutatvar nayane sunirmale Arogată bindujayo'gnidipanam Nādi viếuddhirnafhasiddhilaksanam. Slimmacss of body, brightness of the face, manifestation of the inner souad (nåda), very clear eyes, freedom from disease, control over the seminal fluid, stimulation of the digestive) fire and complete purification of the Nādis These are the signs of perfection in Hatha yoga through which one would attain Raja yoga i.e. Ltberation or Emancipation. We live only once and hence we have to do it beautifully. --Dr. Chandramouli S. Naikar Head, Dept. of Sanskrit, Prakrit and Yoga Karnataka Arts College. DHARWAD. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ON PRASTARA AND NUMBER OF S'RUTAJNANAKSARA OF NEMICANDRA (1) Prastara: The Jaina saint, philosopher and mathematician Acaraya Sri Nemicandra Siddharthcakravarti of tenth century has given the five combinatorial terms in Gommatasara (Jivakanda) viz. Samkhya, Prastara, Parivartana, Nasta and Uddista. In his view Prastara is of two types. Here our efforts are to illustrate that Prastara is the complete device to do the carfesion product of sets. Let us suppose that A, B and C are candra's view set represents itself axis'. sets are in order i.e. the ordinal number second and third respectively. A=(a1, a2) B=(b1, b2, b3) and C (c1, c2) (1.1) First Prastara : Dipak Jadhav Anupam Jain ordered sets. In NemiThat's why we also say that of A, B and C are first, पढमं पमदपमांणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च । पिडं पडि एक्केकं, णिक्खित होदि पत्थारो ॥ This Gatha, in particular, says that Prastara is to place respectively each one of the elements of the first Pramades and then cover each of these with each one of the elements of the succeeding ones. This Gatha, in general, says that (First) Prastara is to place respectively each one of the elements of the first set and then cover each one of these with the second set. Again cover each one of the tuples of the set just obtained which is already placed with the third set. Do their process till the last set. Example: Place respectively each one of the elements of A. al, a2 cover each of these with B. alb a2b Tulsi-Prajña, Ladnun: Vol. 23 No. 3 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 TULSI-PRAJNA or al bial b2 al 13 a2 b1 a2 b2 a2 63 This is equivalent to the cartesion product of A and B. AXB=[(al, b1), (al, 62), (a1, 63), (a2, bl), (a2. 62), (a2, (63) ] Again cover each one of these ordered pairs with C. (a1 b1)* (al b2)(al 63) (a2 61)c (a2 b2) (a2 b3). or albici, alb1c2, alb2c1, alb2c2, alb3c1, alb3c2 a2b1cl, a2b1c2, a2b2cl, a2b2c2, a2b3c1, a2b3c2 This is equivalent to the cartesion product of (AXB) and C. (AxB) x C=[(al,b1.cl), (a1.b1,c2). (a1,b2.ci), (a1,b2.c2) (a1.b3.ci). (a1.63.c2). (a2.b1.cl), (a2.b1.c2) (a2,b2.c1), (a 2,b2,c2), a2,63,cl). (a2,63,c2) (1.2) Second Prastara : णिक्खित्तु विदियमेनं, पढ़म तस्सुवरि विदियमेक्केक्कं । पिंडं पडि णिक्खेओ, एवं सत्वत्थ कायव्वो ॥ The Gatha, in particular, says to place the elements of the first Pramada as many times as there are the elements in the second one and keep one by one the element of the second Pramada on the top of each element of the first one. Do like this in all Pramada. This Gatha, in general, says to place the first set as many times as the number of the elements in the second one and then keep one by one the element of the second set on the top of each first one. Again place the set just obtained as many times as the number of the elements in the third set and keep one by one the element of the third set on the top of each placed one. Do this process till the last set.5 A Example : Place A as many times as the number of the elements in B. A A A Keep one by one the element of B on the top of each A. bi 62 A 63 A A or albi a2bi alb2a2b2 alb3a2b3 This is equivalent to the cartesion product of A and B. AxB= [(al, 61). (a2, b1), (al, 62), (a2, b2), (al, b3), (a2, 63) ] Again keep one by one the element of C on the top of each set just obtained after placing as many times as the number of the elements in C. (albl a2b1 alb2 a2b2 alb3 a2b3jol (albl a2b2 alb2 a2b2 alb3 a 263) or albicl, a2b1cl, alb2c1, a2b2cl, alb3c1, a2b3c1 albic2, a2b1c2, alb2c2, a2b2c2, alb3c2, a2b3c2 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 105 This is equivalent to the cartesion product of (AxB) and C. (AXB) x C= [ (a1.b1.cl), (a2,b1,ci), (a1,b2,cl), (a2,62,cl), (a1.b3.cl). (a2,63,cl), (al,b1,c2), (a2,61,c2), (a1,b2,c2), (a1,63,c2), (a2,63,c2) ] (2) Development of Prastara in the leftword more : It is evidently clear that First Prastara as well as Second Prastara works very beutifully to do the cartesion product of sets. It is also clear that not only (AxB) x C is ordered but its tupler are ordered also. These tupler are known as consinations in the combinatorial system given in GJK. Thus we find the two devices to do the cartesion product of sets in GJK. But these devicer hold good to do the cartesion product of sets in the rightward more only, as we have seen. It is well known that the cartesion product of sets exists also in the leftword more. Now our efforts are to illustrate that Prastara as a device holds good to do the cartesion product of sets in the leftward more. (2.1) Left First Prastara : Place respectively each one of the elements of B. 61 62 63 Cover each one of these with A. A A A 61 62 63 or blal bla2 b2a1b2a2b3a1b3a2 Their is equivalent to the cartesion product of Bond A. BxA=[(bl.al), (b1,a2), (b2,al). (b2,a2), (13,al), (b3a2)] Again place respectively each one of the elements of C and cover each of them with the set just obtained. (BxA) (BxA) C2 orciblal, clbla2, clb2al, clb2a2, clb3a1, clb3a2 c2b1al, c2b1a2, c2b2al, c2b2a2, c2b?al, c2b3a2 This is equivalent to the cartesion product of Cand (BxA) CX (BXA) = [(01,bl,al), (c1,61,22), (c1,b2,al), (01,b2,22), (cl.b3,al), (c1,63,a2). (c2.b1,al). (c2,61,2), (c2,62,al), (c2,62, a 2), (c2,63,al), (c2,63,a2)] (2.2) Left Second Prastrar: Place B as many times or the member of the elements is A. B B Keep one by one the elements of A on the top of each B. a 2 CI al B Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . · 106 TULSÍ-PRAJNA or blal, b2al, b3al, bla2, b2a2, b3a2. This is equivalent to the cartesion product of Band A. BXA = [(blal), (b2al), (63,al), (bl.a2), (b2,a2), (63, a 2) ] Place C as many times as the number of the ordered pairs in the set just obtained and keep one by one its ordered pair on the top of each C. blal b2a1b3a1b1a2b2a2b3a2 CCCCCC orciblat, c2blai, clb2a1, c2b2a), c1b3a1, c2b3a1, clbla2, c2b1a2, clb2a2, c2b2a2, clb3a2, cib3a2 This is equivalent to the cartesion product of Cand (BxA) C X (BxA) = [(c1,51.al), (c2,bl,al), (ci,b2,al), (c2.b2,al), (c1.b3,al). (c2,63,al). (C1,61,a2), (c2,61,a2), (C1,62,al), (c2,62, a.), (c2,63,a2), (c2,63,a2) ] (3) Modos Opervodi of Prastara ip nutshell : We conclude the modus operandi of Right Prastara as well as Left Prastara with their types as follows: (3.1) RFP is to place respectively each one of the elements of the preceding sct and cover each of these with the succeeding set. (3.2) RSP is to place the preceding set as many times as the number of the elements in the succeeding set and keep one by one the element of the succeeding one on the top of each prece ding one." (3.3) LFP is to place respectively each one of the elements of the succeeding set and cover each one of these with the preceding set. (3.4) LSP is to place the succeeding set as many times of the number of the elements in the preceding set and keep one by one the element of the preceding one on the top of each succeeding one. The following two points are of great consequence whereas permutation is not taken into account. (3.5) The serial numbers of the tuples (combinations) are the same in both RFP and LSP. (3.6) The serial numbers of the tuples (combinations) are the same in both RSP and LFP. (4) Mathematics of opmber of Śrotajoabaksara : There are 64 letters8 in Prakrit according to the Gatha found in GIK. These letters form the letters of scriptural knowledge (Srutajbana). Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No.3 107 Nemicandra gave the following Gatha to find the total number of the letters of scriptural knowledge. ___चउसट्ठिपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा । रूऊण च कुए पुण सुदणाणस्सक्खरा होति ।।10 This Gatha means to make 64 places and put down 2 on every one, then multiply all the twos with eachother. Subtract I from the total multiplication to find the total number of the letters of scriptural knowledge. Numerically it is; 2 x 2 x 2 x ----64 times-1 or 264-1 This method can be generalised as follows. If n is the numb:r of objects then the total number of all possible combinations without taking permutations into account is; 2 x 2 x 2 ----- n times-1 or 20-1 When the real method is out of approach, such mathematical model is the best alternative. Such self working system makes mathematics simple and easy for laymen and gives aid to the computer-programming To know what type of mathematics is used in the above working system, there exists two possibilities. Both of them take us into the light of mathematics used in general and the second gives emphasis on why it is in the form of 20-1 in particular. (4.1) Mathematics of G.P. with combination : This possibility is traditionally very well known. The number of combinations without taking permutation into account in which the five consonants can appear either singly or combined together is shown by the table as follows. Number of combinations of One letter each Two letters each Three letters each Four letters each Five letters cach Total 2° 21 22 2821 It appears by mathematics induction that 268 will be the last total for 64 letters. We, then, have the geometrical progression of 64 terms (a), of which the first term (a) and the common ratio (p) are 2° and 2 respectively. To obtain the total numuer (S) of combinations for 64 letters, apply the formula. a (pm-1) S=- - when ps1 P-1 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 TULSI-PRAJNA Therefore 2° (24.1, SE - 2-1 = 26-1 (4.2) Mathen atics of Binomial Theorem : The total number of combinations without taking permutations into account for 64 letter is; Number of combinations having one letter only + number of combinations having two letters only+number of combinations having three letters only +----+ Number of combinations having 64 letters only. or 64 +64 +64 +--------- + 64 ci C2 C3 C64 64 + 64 CO + 64C1 C2 + 64C2+64C3+ ---- + 64 - (1+1)^_ 1 C64 204_1 2x2x2x-----64 times-1 The Gatha (No. 353) Referenecs and Notes : 1. Arhat Vacan, Oct. 96, p 46-47. 2. Gatha No. 37, GJK, Pt. K. Jain, p 27 and Jaini p 29. 3. For illustration five Pramada (carelessness) is taken in GJK. They are Vikatha (Consurable Talks). Kashaya (Passions), Indriya (Sonses), Nindra (Sleep) and Pranaya (Attachment) respectively. 4. Gatha No. 38, GJK, Pt. K. Jain, p 27 and Jaini p 29. 5. The interpretation of Second Prastara taken from the Gatha ia Arbat Vacan, Oct, 96, p 47-48............is modified in this paper, That previous interputation led to develop Prastara in the leftvard more. 6. ............. 8. Nemicandra ca rayakrit Graptho Mein Aksara Samkhyo Ka Prayoga, Dipak Jadhav. 9. Gatha No. 358, GJK, Pt. K. Jain, p 179. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 109 10. Gatha No. 353, GJK, Pt. K. Jain, p 179 and Jaini, p 200. 11. GJK, Jaini, p 200-201. Bibiliography : (1.1) Jadhav, Dipak, Gommatsara (JK) Mein Sarieaya Ka Vikaga Avam Vistara, Arabat Vacan, Oct. 96, 8 (4), 45-51. (1.2) Nemicandraca Krit Saricaya Ke Vikasa Ka Yuktiyuktakarana, (1.3) Nemicandraca Krit Grantho Mein Aksara Samkhyo Ka Prayoga, Paper presented in Jainee Vidhya Seminar, Kunda kunda Joanapitha, Indore, 28-29 June, 1997. (2) Jain, Pt. Kbubachandra, Gommatasara (JK), Srimad Rajacan dra As'rama, Agasa, 1985. (3) Jaini, J.L., Gommatasara (JK), The Central Jaina Publishing House, Ajitashram, Lucknow, 1927. -Sri Dipak Jadhav, Research Scholar, Kundakunda Jnana pitha, Indore. Lecturer in Mathematics, J.N. Govt. Model H.S. School, Barwani 451551 (M.P.). -Dr. Anupam Jain, Asistant Professor, Department of Mathematics, Govt. Autodemous Holkar Science Collego. Indore 452001. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIJAY YANTRA Ram Vallabh Somani The Vijay yantra was painted in VE 1504, perhaps at Delawara (Mewar) under the instructions of Jinbhadra Suri of Kharatargachchha. It is intereting to note that the Jaios had prepared several such yantras during the medieval times in Rajasthan. Some of these are in the collection of Shri Agarchandji Nahata of Bikaner; L D. Institute, Ahmedabad and other collections. Recently two such Pattas have been noticed which were painted at Delawara (Mewar) in the 15th century A. D. These are now preserved in the Los Angeles Museum of America. 1 The figures fortification and other decorations on them, prove that these have close resemblance with in figures painted at Delawara. We find much similarity in the paintings of Kali available in the Supāsa-näha-Chariyam painted at Delawara in VE 1480 during the reign of Maharana Mokal. These Pattas have not so far been studied in detail. The Vijay-yanira bas 3 pages baving many illustrations. It was originally in the collection of Muniji Shri Bhava-Ratna-Suriji at Khed. Mohanlal Dalichand Desai, a learned Jain-scbolar, saw it in VE 1984 (1927 A. D) and was much astonished. He did a detailed study of it and had mentioned that it has many illustrations. Its length is 4 ft 5" and breadth is 3 ft 51". It is painted on the cloth. Later this yantra came in the possession of Seth Nathalal Chbaganlal Shah of Pālanpur, who is said to have presented it to the victoria and Albart Museum of Londans before several years. Shri Sarabhai Nawab. Agarchand Nahata5 and U, P. Shah bad contributed good papers on it Sarabhai Nawab considered it to have been painted in Rajasthan, while according to U.P. Shah, it was painted in Gujarat. This yantra has 3 parts. Its first part has the figures of Ganesh, Brabma, Shiva, Vishnu and Sarasvati. The figure of Sarasvati is enfaced fully in front side. It is much similar to Kali painted in the Supåsanäha-Charlyam at Delawara. The visible difference in both the figures is in the number of hands. The Supasanäha-Chariyam's figure has 20 hands, whereas the figure of the Vijay-yantra has 4 hands. The face and other identifications are quite similar, Similar figures of Devi were also painted at Delawara in 2 yantras referred to above. These are now available in the.collection of the Los-Angeles Tulst-Prajña, Ladaun : Vol. 23 No. 3 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNĀ Museum of America. The Hindu deities are obviously painted in the Vijay-yantra dated VE 1504. It seems that the painter was Hindu and not the Jain. He has painted multitude of Hindu figures instead of Jain figures. The Ganesh is obviously worshipped widely not only by the Hindus but also by the Jains. We find its depiction in all the Jain temples, houses of the Jain and others in Rajasthan. The Patta also has such vegetation. We do not find any such depiction in any medieval paintings including the Kalpa-Sutras from Gujarat. The traditional trees are given in figures No. 6, 9,11 and other scenes. The horse is depicted having narrow face. It is the Rajasthani depiction. We find similarly depiction of the complexion of horses in the figures of Jahazpur (Bhilwara) dated VE 1382 and others. Later the mughal artists had adopted it from Rajasthan. The other Hindu figures of Brahma, Shiva and Vishnu are obviously not popular among the Jains of Gujarat'. The inscription No. I of the Vimal Vasati of Abu pays homage to Lord Shiva. Such description is only possible in Rajasthan. We find an invocation of Lod Vishnu (Laxmi-narayan) in the Jain inscription of VE 1583 of Jaisalmer. The Vijay-yantra is obviously a Jain Patta. But except 2 or 3 figures of Jain cosmology, we do not find any figure of Jain in it. The author has previously thought that this patta was possibly painted at Jaisalmer.10 But recently two similar pattas from Delawara (Mewar) have been known from LOS Angeles Museum of America The figure of Sarasvati is much akin to the goddess Kali painted in Supasa-nāha-Chariyam in 1480 at Delawara (Mewar), Therefore the author think that it was also painted at Delawara (Mewar) in VE 1504. Like other works from Mewar, it was also taken to the Gujarat state, during the Mughal campaigns on Mewar. It has the following inscription of VE 1904. 112 संवत् १५०४ वर्षे दीपोत्सव दिने लिखित प्रतिष्ठित श्री खरतरगच्छाधीश्वर श्री जिनभद्रसूरिभिरिदं जैत्र पताकारख्या यंत्र । सपरिवार जैत्रं वांछित सिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा 1 Or ginally Jin bhadra Suri was from Delawara (Mewar). He travelled in Mewar and also died at Khumbhalgarh in VE 1514. The Patta has a beautiful scene of peacocks, gardens having the trees of plantain, Khajur, elephants standing on the banks of tanks and others. Several motifs are also given in it. It is strange that no Jain motifs except 2 or 3, are giyen in it. It has several Mantras written on it श्री सर्वज्ञाय नमः | श्री त्रिपुराये नमः त्रिपुर सुन्दर्ये ह्रीं नमः श्री त्रिपुर भैरवी ह्रीं नम: त्रिपुर विजयाह्रीं नमः. ।.... Thus we may call it to have been painted in Mewar, at Delawara in VE 1504, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 113 References : 1. Recently published by Mr. Pratapaditya Pal in the Catalogue of the LOS-Angeles Museum of America : Yantras of Panchangulis, p 92-93 and Yaniras of Mahavir pp. 99-100. 2 Jain-yuga III No. 11-Amāro-Khedano Yatră Pravāsa by Mohan Lal Dali chand Desai. 3. Jain-Satya-Prakash XIX No. 10 pp 179. 4. ibid Vol. II No. 2-Sarabhai Nawab's paper 'Sarasvati Puja ane Jains". 5. Jain Satya Prakash XIX No. 10 pp. 175-180. 6. U P Shah "More Documents of the Jain paintings : figures No, 30, 31 and 32. 7. Author's paper published in the Shoda-Patrika (Udaipur). and History of Jaisalmer pp. 132. 8. Jayant Vijay-Abu Vol I Inscription No. I 9. History of Jaisalmer by Author : 209-10 line No. 40 and 41 Nahar III No. 2154. 10. ibid p. 132. -Shri Ram Vallabh Somani S-3-A/2, Satya Nagar Khatipura Road, Jaipur-6 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A NOTE ON THE PLACES AND CHARACTERS OCCURING IN THE RAYAPASENAIJJASUYAM AND PAYASIRAJANNASUTTA Rajesh Ranjan The Ravapasenaijja (Skt. Rajapraśniyaṁ) is the second Upanga text of the Svetambara Jaina Agama It owes its origin to the questions of a King, hence the title Rajapraśniyam-"rajapraśneşu bhavaṁ rajapraśniyam" Like other Upanga text, it is regarded as a supplement to its corresponding Anga text, the second Anga, the Süyagadamga. Acarya Malayagiri, in his vivrti to the text under study, gives the following argument in support of this view. "This Upanga is related to the Sutrakṛtanga (Suyagadamga) because whatever is stated, explained or exposed in the latter (Sutrakṛtānga) is stated in detail (and) laid bare more explicity in the former.1" The Rayapasenaijja gives the history of one soul attaining perfection after passing through three prominent births. As such the book is completed in three clear sections, the first being the episode of god Suryabha of the Saudharmakalpa visiting Lord Mahavira, the conversion of the hero of the dialogue known as Paesikahanayaṁ being the second and the third dealing with the life of Dadhapainna (Drdha pratijña), i e. the third and the last birth of the soul of King Payesi (Pradest) in which he is liberated. Thus it is obvious that the order of the stories of the three births of the soul of Pradest is reversed as the book starts with the second life of the king who is born as Suryabha in heaven by virtue of his religious merit after his conversion by Kest Kumāragramaņa, a Jaina ascetic. This reversion seems to be necessitated owing to the compliler's need to create a circumstance with a view to preach his own philosophy of life. The story of god Süryabha is therefore a sort of preamble to the dialogue of king Pradest and Jaina ascetic Kest Kumarśramaņa. A sutta parallel to Rayapasenaijja is extant in the Pali Nikayas. It is known as the Payasirajaññasutta or simply Payasisutta. It is the last sutta of the second volume (vagga) known as Mahavagga of the first Nikaya, the Dighanikaya. The genesis of the sutta, like that of the Raya pasenaijja, is also on account of the question put to Kumar Kasyapa by a chieftain called Payasi. Despite this common aspect, this sutta differs much from the Rayapasenaijja in planning. Besides Tulst-Prajña, Ladnun: Vol. 23 No, 3 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA the first of Payasi, it also refers in due order to the second life of Payasi, in the form of a god which status he attains by practising the path preached by Kumar Kāśyapa, a Buddhist Sthavira. However, it makes no mention of his third life. Both the suttas commonly endeavour to establish the theory of karma and rebirth. Besides, quite in conformity with the norm of Jainism, the Rayapasenaijja pleads for the existance of soul distinct and apart from the body. The illustrations, arguments and explanations used in both the dialogues in most cases are also common. Besides, features like the place of occurance, characters etc. are to a great extent also analogous. After giving a brief introduction to the suttas, now we intend to present a comparative study of the places, characters etc. mentioned in them. It is therefore advisable to enumarate those places and characters separately. The janpadas, towns, characters etc. which find mention in the Rāyapasenaijja are as follows: 116 A, Countries, Towns, etc. : (a) Regions-Jambudvipa, Bhāratavarṣa (b) Countries-Kupāl, Kekayārdha, Mahavideha (c) Towns-Amalakalpā, Sravasti. Svetavika (d) Parks-Amrasalavana, Koşṭaka caitya, Mrgavana caitya B. Characters: (a) Mahavira (b) Gautama Indrabhūti (c) Suryabha deva (d) Sreyas or Sveta (e) Jitaśatru (f) Pradesi (g) Citra (h) Kest Kumaraṣramaņa (i) Suryakanta (j) Suryakānta (k) Pārsva (1) Drdhapratijña The Janapadas, towns, characters etc. finding mention in the Payasirajaññasutta are as noted below: A. Countries, Towns, etc. (a) Janapada-Kogala (b) Town-Setavya (c) Grove-Simsapāvana B. Characters (a) Payāsi Rājañña Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, NO. 3 117 (b) Kumāra Kaśyapa (c) Pasenadi or prase najita (d) Khatta (c) Uttra Månava (0) Gavampati Sthavira Out of these two lists of countries, towns, characters etc. we purpose to discuss only those which are expected to contribute sometbing substantial to our study and the rest to drop. For the sake of convenience the places and characters of correlative importance may be equated as follows: Rayapasenaijjasuva Pāvasirajaðñasutta Kekayārdha Košala Kunala Sravasti Srāvasti Svetavika Svetavy, Mrgavana Simsapāvana Pradesi Payasi Citra Khatta Kesi Kumarsramaņa Kumara Kaśyapa We know that Kekayārdha was the country where Pradesi ruled, It was situated to the north east of Sravasti, the capital of Kosala Mahajanapada into two parts, North Kosala and South Kosala, most probably, Kekayardha and Kuņāla being their respective names. Svetavika was the capital of king Pradesi while Svetavya that of Pāyasi. There was a park known as Msgavana situated to its northeast, while a park Simsapavana by name was situated to the north of Svetavya. We see that all the three parks--Koştaka, Ambasalavana and Mrgavann, finding mention in the Rāyapasenaijja are said to have been situated to the north-east of the towns of Sravasti. Amalakalpa and Svetavika respectively which gives the impression of a stereotyped description rather a factual information. Jstagatru is said to be the king of Kunal janapada with its capital at Srāvasti. He was subordinate to Pradeśl, the king of Svetavika. On the contrary, Päyasi is said to be a cheiftain of Svetavya under king Pasenadi (Prasenajit) of Kosala with its capital at Śrávasti. It was Citta who was instrumental in Pradest's conversion to Jainaism. He is culogised in great terms. Truly speaking, it was Citta on whose directions and advice pradeść ruled over bis kingdom. On the contrary, Khatta was a simple door-keeper or attendant of Payāsi from whom on seeing the crowd of men and women of Şvetavya rushing towards the Simhsapavana, Payāsi came to know of kumar Kaśyapa's stay there. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 TULSI-PRNAJA The questions which crop up from this discussion are as follows : (a) Whether Şvetavika and Şveta vya were the same ? (b) Who was the king of Şrāvasti, Jitaśatru or Pasenadi ? (c) Whether Pradeśa and Pâyäsi were the same 2, and (d) Who were Citta and Khatta ? We would examine these questions one by one. It may be noted that the commentary on the Buddhavamsa tells us of another Svetavyà situated in the Janapada of Kaś which most probably, was the venue of Pāyasi's discourse with Kaśyapa. Though Kasi was one of the sixteen mahajanapadas of the Buddhist India, but, for most of the time, it remained under Kosala or Magadha. As it is admitted by the sutta itself that Payasi was a chieftain of Svetayā under king Pasenadi of þrāvasti, it needs no evidence to opine that it was this svetavya of Kasi where the discussion would have taken place, for Şvetavya of Kosala being very near to Şravasti, the question of the appointment of a chieftain to rule over Şvetavya does not arise, According to Rāyapasenaijja, Şravastī was under Şvetavikā But to say that Şrāvasti had ever been under Kaši or any other mahajanapadas of the time even for a short period lacks historical evidence. The information about the subjugation of Sravasti to Svetavikā seems to be a factual error, Therefore it may be opined that if the discourse between Pradeśi and Kesi ever took place, it would have also taken place at Şvetavika of Kaśi. Thus it is remarkable to note that both Pradesi and Pāyasi had a common venue, i.e. Şvetavikā or Svetovyā of Kaśí for their debate with Keśi and Kaśyapa respectively." The next question wbich confronts us most strinkingly is the name of Jitasatru as the king of Srāvasti at the time when the Rayapasenaijja was composed. We know of no king of the name of Jatasatru who ever ruled over Kosala or Kunala country. In this respect it may be noted that the Prakrit Proper Names: compiles from the different Prakrit texts as many as forty-two kings of the name of Jitasatru who are said to have ruled over one region or the other of Bbāratavarşa. Muni Nagarajji' opines that king Pasenadi is named as Jitaśatru in the Jaina Tradition which in absence of any concrete evidence, is nothing more than a conjecture Evidently it is customary with the compliers or writers of Prakrit texts to name the king of a region or place, out of ignorance or negligence, as Jitaśatru. Who were Pradesi and Payasi ?, is also an important question to be discussed and disposed of. Some scholars hold that Pradeśi was no otber than the famous king of Srävasti, i.e. Pasendi himself. But it does not appear to be in agreement with the history of Kosala and Pasenadi. Pradeśl, as the Raya pasenaijja informs, was not the king Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No 3 119 of Şravasti, but that of Şvetavikā, a domain of the kingdom of Košala. Thus taking Pradšī as Pasepadi of Košala goes against the established fact of history. Pradesi seems to be an imaginary character and, if not so, he is an issue of factual error. On the contrary, Pāyasi is said to be a cheiftain under Pasenadi which seems to be a historical probability. Besides it may also be noted that both Pradesi and Payasi are said to be irreligious. Thus it may be persuaded that Payasi is no other than Pradesi or vise versa. Citta and Khatta were the agents through whom Pradesi and Pāyasi came to know of the presence of Kesi and Kaśyapa in Mrgavana and Simsa pavana respectivery. They are mentioned only in the two suttas referred to and as such details regarding them are lacking. We know only this much that Citta' is the charioteer-mioister of Pradesi, while Khatta is the attendant of Payasi and both of them were householders. It is therefore natural that we aspire to know more about them. A strikingly similiar character not only having the same name but also endowed with the same qualities and abilities like that of the citta of the Rayapasenaijja is referred to in the Pali sources. He is known as Citta Gahapati of Macchikasanda. The possibility of Citta Gahapati being Citta and Khatta of the Rayapasenaijja and Pāyasirājaðñasutta cannot be ruled out. The only difficulty which comes in our way is the change of the name from Citta to Khatta in the Pali sources wbich seems to be purposefully done. The foregoing discussion and comparison in general and the slight differences in the names of places and characters, factual errors done knowingly or inadvertantly etc. in particular impress us to opine that the two suttas have common source of origin or the succeeding suttas (which ever it may be) would have adopted the preceding. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 TULSI PRAJNA References : 1. Tato yaayeva sūtrakrtangasûcitani kesikumaráhraina nena vyakera nanivyākstãoj tanyevätra savistaramuktaojti sūtrakstangata visesa prakata nadidamupānga sūtrakttāngasyeti, 2. Buddhavaṁsa-Atthakatha, Nalanda Edition, 1976, p. 391. 3. Prakrit Proper Names, Drs. Mehata $ Chandra, Ahmedabad, 1970, pp. 287-290. 4. Agama Aura Tripitaka : Eka Anušilana, Calcutta, 1969, pp. 369-70. 5. Bbæratiya Sanskrit Men Jaina Dharma Ka Yogadana, Jaida, II. I., Bhopal, 1962, p. 65. 6. Vide Anguttara Nikaya, Nalanda Edition, 1960, Vol. I. p. 26; Majjhima Nikaya, Nalanda Edition, 1958, Vol. III, pp. 252-70. -Dr. Rajesh Ranjan, Research Scholar, Deptt. of Buddhist Studies, University of Delhi, Delhi-7. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A NOTE ON DICTIONARY MAKING IN PRAKRT Jayanti Tripathy Unlike Sanskrit the tradition of Dictionary making in Prakrt is very insignificant and the material is definitely scanty. The commentrial literature on the Ardhamāgadhi canon and post-canonical works offen cite passages which appear like 'Kosas' of the traditional type. However those passages are not 'kosa' in the traditional sense of the term. In the earliest works in Ardhamăgadhi and Pro-canonical works in Jain Saurasent where such passages occure, are due to the tradition of these works to explain the texts in a peculiar manner. It is significant to note that various devices were adopted to elucidat the meaning particularly in the case of the sacred text. And one of such devices is called egattas i.e. giving words all of which have the same meaning. The idea behind this device is to classify the concept which underlies a word more than its exact sense, and are built on a very loose sense of synonyms and a collection of words is put together to include as many aspects of the concepts as possible. The beginning of each chapter of the late cononical book Panhava gara nai incorporates many such passages. In the very first chapter we come across the word pānivaha and its 30 names like Pånivaham, ummuland sarirão, avisambho, hissavihimsā, akiccam ghayanā, marand vahana uddhavanā, tivāyanā, arambha-samārambho etc., called gonnāni. The Nijjutti on the suya gada gives purely phonetic variants of its name as : tassa ya imāni nămāni suttagadań, suttakadań, sữyagadarn ceva gonnāi. It is true that such passages are very useful but they cannot be called Kosas or excerpts from kośas in the usual sense of the term. Kośas in the traditional sense as it is understood are only two in prakst namely, Dhanapala's Päiyalacchi nāmamālā and Rayaņavali of Hemacapdra. Here we propose to discuss the principles adopted in those two košas in the present paper. Let us take for discussion the First Koga of Prakst first. Before going to discuss the principles etc. it will oot be out of place to put on record the personal history of Dhanapala and the content of Paiyalacchi namamāla. . I. Dhanapala, the author of Pāiyalacchi nāmomäla was the son Tulsi.Prajña, Ladnun: Vol. 23 No. 3 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNĀ of Sarvadeva and grandson of Devarşi and a junior colleague of Halayudha at Dhara. Born at Visala (Ujjain) into a Brahmin family of Kasyapa gotra that had immigrated from samkasya in Madhyadeśa, he later moved to the capital of Malva, where he won the favour of the king through his poetry and was ultimately made a convert to Jainism by his younger brother Sobhana.1 He was a versatile scholar of letters who, wrote poems, hymns, tales, tracts and scholia with equal fluency in Sanskrit and Prākṛt.2 122 The author tells at the end of the work that he composed it in VS 1029 i.e. 973 A.D. and mentions a famous incident which occured in that year. The town of Manyakheta was attacked and looted by the king of Malva. The author himself lived in Dhara and wrote the Koga for his sister Sundari. He also indirectly gives his name in a line by the simple device of listing words the end-syllables of which make up his name Dhanavala. He writes: Vikkamakalassa gae aupattisuttare Sahassammi / (vikramakalasya gate ekonatrimśaduttare sahasre) / Malava nerindadhaḍie ludie mannakheḍammi // (malava narendradhätyä lunthite mannakheḍe) // Dharanayarie Paritthiena magge thiãe aņavajje / (Dharanagaryāḥ Paritiṣthena märge sthitaya anavadye) / Kajje kapitṭha vaḥinie "sundari' namadhijjae // (karye kanisthabhaginyaḥ sundari namadheyāyaḥ) // Kaiņo andha jana kiva kusala tti Payanamamtima vaņṇa / (Kavayaḥ andha jana kṛpa kušala iti Padanamantima varṇaḥ // namammi jassa kamaso teṇesa viraiya desi // (nāmni yasya kramaśaḥ tenaisam viracita deśn) // Kavvesu je rasaḍdha sadda bahuso kaihi bajjhanti / (Kävyesu ye rasadhyaḥ śabdah bahuśaḥ Kavibhirvadhyante) / te ittha mae raia ramantu hiae sahiayanam // (te atra maya racita ramantăm hrdaye sahṛdayanam) // It may be noted here that "A comprehensive and critical Dictionary of the Prakrt languages with special reference to Jain literature" edited by Prof. A.M. Ghatage records the date of Dhanapala as VS 1329, however Dhanapala himself records the date as VS 1029. Dhanapala's principal contribution to lexicography, available to us, is the Paiyalacchi namamala or Prakṛt lakṣmi, a synonymic dictionary of 279 gāthās (āryā stanza) and deals with about one thousand words in Prakrt and the oldest extant prakṛt work of its kind. It purports to be a "garland of nouns" (namamala) and manual of provincialism (degi);5 nevertheless it includes, adverbs, verbal forms, particles, and affixes as well as Tatsamas and Tatbhavas i.e. terms Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 adopted or derived from sanskrit. Now we may proceed see the principles employed by Dhanapala in preparing the Paiyalacchi 1. It embraces four distinct parts of uneven length each new one beginning with a brief statement of the method used. For example : at the end of the V. 19 he says: ittähe gahaddhehin vanņimo vatthupajjac (ata ärabhya gathardhaiḥ varpayamo vastu paryāyām). 2. The sets of synonyms requiring a gatha i.e. synonymns which numbers many but do not exceed a gatha are given first. For example he takes the symonyms for God Brahma in the following gathā. Kamalasano sayambhu Piamaho caumuho ya Paramitțhi / thero Vihi Virinco Payaval Kamalajoņi ya* // Here the synonyms of Brahma are put together in one gatha. This practice of grouping of synonyms is a single gatbas runs from V-2 to 18 i.e. 17 gathās are devoted to this. However in gatha 18 and half he has enumerated 17 synonyms of the word Samüha, in full one and half gathā or three lines. 3. Then he takes to enumerate the synonyms of such words requiring a hemistitch or half of a gatha metre, and records so : ittahe gahaddhehiri vanņimo vatthupajjae (ata arabhya gathārdhaiḥ varṇayamo vastuparyāvāṁ) / 75 gatha are devoted for grouping of words in half gāthās running from gatha 19 to 94. And a total number of synonyms of 150 words in half gāthās are accomodated, For example. sauri dasaranaho vaikuntho mahumaho uvindo ya / sůli sivo piņai thaņu giriso bhavo sambhū //" 123 Here the synonymns of the first, line are for upendra and the 2nd line is meant for the synonyms of the lord Șiva. 4. The third type, that starts from 95 and runs up to 202 is the synonymns accomodated in one caraṇa i e. fourth part of a gathā, two lines of which are divided into two parts each of unequal length. At the outset the author says itto namaggāmaṁ gaha calanesu cintemi (ito nama grāmam gāthā caraṇeşu cintayami) and then he proceeds. see for examplc the gatha : vāsavasuo jayanto / pulomataṇayā sai ya indaṇī airavano suragao vijju soāmaņi ya taḍr / In this gatha the first carana contains the names of indraputra jayanta the second îndrāṇī, third airăvata the Indra's elephant and 4th is for the names of thunderbolt. 5. The part i.e. vv. 202-275, contains the single words explained by a single word and sporadically by a sente ge extending over a Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 TULSI-PRAJNA hemistitch. With the statement : avvo cchinnam vuccham sampai ikkikkam ahihanati (atah chindam vadhye samprati ekaika ābhadhanam) / For example: Kantbo galao / avadu kiadia / jhampaniu pamhaimo etc. and påsayassovari jā sālā sa candasalam tti ete. The choice of the words is made on the basis of their usefulness for writing poetry as the author himself says: Kavvesu je rasaddha sadda bahuso kaihi bajjhagti / te ittha mae raja ramantu hiae sahiyayānar10 // It is obvious that he wants his work to be considered as an aid to poets, wbich thus belongs to the genere called Kaviśikṣā. He cven says that he has incorporated in his work all the words commonly used by the Prākst poets in their compositions : Kavvesu je rasaddhā saddā etc. In the first three parts he takes the names of gods, saints and sacred things. Beyond this no attempt have been made towards bringing the various concepts into a system. As such it can be observed that there is little scope for the author to make use of more and more words due to his commitment to write or group the synomymis either in one gathā or half or one Carang etc. While enoumerating synonyms of a particular word he does not classify or arrange the words in a way by which one can easily make out the dest words and tatbhava words. See for example, the gătha where the synonyms are enumerated for bhramara : Phullamdhuã rasāù bhingā bhasala ya mahuarā alino / indidara durehă dhuăgayā chappaya bhamara //11 Here the words bhasala indidara and dhuagaya are dest words, but he does not mentions so in a way by which one can make out. II. Hemacandra Now let us take Desināmamala a more important Kosa of Prākrt for discussion. It was composed by the versatile generous and an eminent scholar and writer Hemacandra, a Jain monk an inhabitant of Gujarat. He lived between 1088-1172 A.D. at the court of the king Kumārapāla of Anahillapura (Pattana). 1. The title of the work : The book was originally named as Rayanāvali (i.e. Ratnävalt) by the author. 18 This title is too general and does not give any idea of the contents of the work. Dr. G. Bühller, who discovered the first manuscript of the work calls it as 'Desisabda saṁgraha.'18 This name is taken from the work itself where the expression Deśtśbdasamgraha is used by Hemachandra as a description of his work.14 Pischel Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 125 prefers the Title Desipamamala' and Benerjee edition also adopts this title, 15 because it more clearly defines the scope of the work than 'Desi sabda samgraha' in which the term 'sabda' has a wider denotation as it applies to both 'nama' and 'dhâtu', the latter of which are oxcluded by Hemacandra from the list of Desi words collected in the work. Of course this name is also occuring at the end of or in the colophone of each chapter. II. About the text : The text of the Dešinamamala (=DNM) is written in Präkrt gâthās (of Aryametre) containing the Deśi words and their meanings in Tatbhava equivalents. Some times these prakrt equivalents are given in other deši words. Desipānamala is accompanied by a self commentary in Sanskrit of great mcrit, in which Hemacandra above all to explain his reasons for including or omitting certain words and for adopting or discarding certain spellings and meanings. And with illustrative găthās. Thus the work can be said to have three types of compositions : 1. Desi words in gåthă metres. 2. Sanskrit comm. in Prose. 3. Illustrative verses in Prākst. III. The total aumber of words occuring in the DNM are 3978. In an article bearing the title 'Palt, Sanskrit and Prākrt etymology" by Richard Morris, many Desi words found in the Dešinamamala are traced to sanskrit origin. The same writer traces somo more Desi words to sanskrit origin. 16 Pischel in his "Grammatic der Prakrt sprachen' has diminished considerably the number of dest words given in the Dešinamamālā. Researches conducted on similar lines yield the following result. The total number of Desi words in the desipamamala are 3978. These contain the following group : Tatsamas 100 Disguised Tatbhayas 1850 Doubtful Tatbhavas 528 Desis 1500 Total 3978 IV. What is a Deti word ? Hemacapdra, at the beginning of the work, explains what he considers to be a desi word in the following words: je lakkhane na siddhā ga pasiddhā sakkayābihänesu / na ya gauņalakkhapā sattisambhavā te iha nivaddhā // de sa višesa pasiddhii bhappamapa apantayā hunti / tambă ani pāipayațţa bhāsāvisosao des[18 il Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 TULSI-PRAJNA It means "the words which are not derived from Sanskrit in his grammar, which though derived from Sanskrit, are not found in that sense in the Sanskrit lexicons, wbich have changed their meaning in Prākst, the change not being due to the secondary or metaphorical use of words, and which are used in standard Pråkst from time immemorial are considered as Desi by Hemachandra". Thus, he teaches in his grammar1o that pailara is one of ihe substitutes of the root v kath in Prākrt. In II. 136, he says that trasta assumes the forms hittha and tattha in Prakrt. There-fore the words pafjara, hittha and tatha are not desi words and are excluded from the work. The verbal substitutes have been, as a matter of fact, considered as Deśi words by Hemacandra's predecessors. 20 Again the word amayaniggamo signifies the moon in Präkrt and it is evidently a bhāva of amrtanirgama which by some analysis as : amrtänntrgamo yasya can depote the moon. But the Sanskļt word is not found in that sense in any of the lexicons and hence amayaniggamo is reckoned a desya and taught in this work. The word batllo is a regular derivative of balivarda according to rules of präkrt grammar and as the latter word can by the force of lakşană mean 'a fool' the word baillo in this sense is not considered a dest word and therefore, is not included in the work. Hema says: ye tu bajjara-pajjara-upphala ..... kathyadi-namadeśatvena sadhitam 21 te'nyairdesişu parigrhita apyasmabbir na rnivaddba, ye ca satyamapi praksti praksti pratyayadi vibbagena sidhau samskstabhidhana koseşu na prasiddhaste' pyatra divaddbah / yatha amptanirgama-cchinnodbhava-mababajaduyaś capdra-durva-baradisvarthesu ye ca sanskriabhidbanakose sva prasiddba api gaunya lakkhaņaya va'lankara-cūdamani pratigaditaya Śaktya sambhavanti / yatba mürkhe baillo / ganga tate gañga sabdasta iha desisabda samgrahe na nivaddbah*2 / Again, every provincial expression is not considered as desi word, but only those which have found entrance into the known Prakrt literature. Otherwise, the number of desi words will be ippumerable and it will be impossible to teach all of them. As Homacandra himself says: vacaspater api matiroa prabhavati divyayuga sahasrena... etc.28 This definition of desi word does not appear to have been followed by the predecessors of Hemacandra. and there in c the superiority of his work that of others. He quotes in a number of places, words which have been taught as desi words by his predecessors and shows that they are derived from Sanskrit words Thus in I. 37 Hema, says the words acchodanaṁ alinjaram, amilayam and acchabhallo are considered as Desi words by some authors, but he does Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 127 not do so as they are evidently derived from sanskrit words. 24 Again in II. 89, he says that the word gaggarī is taught as a deši word by some authors but Hema. says that it is not a dest word as it is derived from Sans. gargarī. But here our author shows some lititude and says that it may be considered a desi word. For example : the gāthā : gāhammi gāhuli gåyarigoa gaggariaa 25 For this he comments: gahuli krura jalacarah / gayari tatba goa gargari / gaggari sabdo'pi Keşan ciddeśyah / asmabhistu gargari śabda bhavatvatonokiah yadi bhavati tatba paryayabhagya darśatoosti! V. Principles adopted : The text is divided into 8 chapters called vargas, based on the division of the alphabet into groups according to a non-grammatical but astrological tradition of India as mentioned by Hemachandra. Varga sangya ceha na vyakarana prasiddba kimtu jyotišastra prasiddhyehadšta /26 These vargas with the number of gathās in each are noted below: Varga initial letters of the words in the Number of gåthâs. vargā. 1st varga vowels 174 2nd Gutterals 112 3rd Palatals 4th Linguals 51 5th Dental 6th Labials 7th Liquids 8th Sibilants and aspirate Totol 783 62 63 96 77 Hemacapdra has split the last one into two, the first containing yr. I and y, the seconds ś, ş, s and h, The Deši words do not show the sounds visarga, nasals n ñ & y initially and hence they are not necessary for arranging the words on the basis of their initial sounds. · He remarks: nakaradayastu deśyamasambhavina eveti na nivaddhah / yakarasya prakşte sambhavat tatto raphadayaḥ prastūyante / Aştamavarge prakste śaşau na sambhavanta iti sadayah-prastuyante.27 Besides arranging the words in the alphabetical order of the first syllable he further arranges them according to the number of syllables they contain i.e. di-syllabic tri-syllabic, tetra-syllabic and so Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 TULSI.PRAJNA on, in each group. For example he says : atra akarādayo dyaksarāḥ sabdah samgrhyante and gives the gåthâs containing the words with two letters. e.g. ajjo jepammi allam diahammi aņu a salibhe ammi! anko piade alla avva amma ya ambae // etc. He gives a sanskrit commentary and an tllustrative gåthā. He just does not enumerate the desi words, as Dhanapala has done in his Paiyalacchi. Hema, inserts a illustrative gāth, at the end of the commentary on cach stanza of the Ekārthasabda, to illustrate the use of the words taught in the stanza. Pischel has vehemently criticised these găthấs and remarks "It was a most disgusting task to make out the sense or rather non-sense of these examples some of which have remained rather obscure to me''28 Against this view of Pichel Prof. Benerjee observes "But it is not true. A careful reading, however, of the găthās with the help of the various readings contained in the manuscript quoted in the foot note by Pichel, would lead one to discover sease, and highly poetical sense in the găthās, a part from the help which they render in ascertaining the correct meaning of a 'Dest sabda'. In fact, these gåthās are not only valuable for the lexicographical material they contain, but they from a valuable contribution to-Präkst lyric poetry at the same time comparable to the "Sattasa!" of Hala." Then he starts with the words containing 3 letter and states : atha tryakşarāh and so on. And again it is repeated twice on the consideration, whether they are having a single meaning or many (i.c. ekartha or anekartha). Naturally the ekārtha groups includes words having the single meaning like a synonymous Kośa, while the other is polysemous Kośa. Before he starts he states : atha anekārthāḥ for example: chanto jalacchadāsigdhesun chão a bhukkhlakisesu. For this he explains : chaňto, jalacchatā stghraś cett hy arthaḥ chão bubhukṣitaḥ29 kršaś ca. Hemaca odra in his work took the trouble of fixing the proper meaning of words by referring to the works of other and pointing out the mistakes occuring there in. Thus in VIII. 12, 17 Hemacandra enters into a long discussion and corrects the mistakes of the others regarding the significance of the words sarāhayam and samucchani respectively, * In the same way Hemacandra, by his vast knowledge of Prakt literature, fixes the forms of many words which have been wrongly quoted as he thinks by other lexicographers. Thus in l. 47 he says that ayatanciam is the proper form but not ayaacciam as quoted by others. He says that he arrived at the form on the basis of bahutara Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 129 pustaka pramányát. In his words : ayatanciam apacitam / mansalam ityarthaḥ / avaacciam iti kecit pathanti / tatra keşam lipibhramah keşam peti na vidmo niyamakabhavat / varnanupūrvi vijñānam tu prakstyadi vibbagamintare nasakya kriyam / bahutara pustaka pra. manyacca niyate vartmani pravșttah sma ity alam bahubhasitaya /81 In the same way he favours the form acchiharullo and not acchigharullo or acchiharillo as given by others in Chap I. 41, and in a great number of instances. 32 In every case of difference of opinion, Hema., takes care to point out the forms of meanings of words favoured by other authors. Each chapter is divided into sub chapters. For example, be divides the vowels into akāradt, akárådt, ikärādi etc. and at the beginning of this he mentions this clearly : atra akārādayo dvyakşarah sabdah samgrhyante or atha akårådayah sabda dvyakşarådt krimeņa prastūyante etc. And for consonants he devides in sections like atha thădih, dădth. in this way. And again he has arranged all the consonants on the basis of their svaras. For example, at the beginning of the II chapter he says : samgrhitäh svarādayah sabdah / idānim vyanjanadayah samgrhyante / te'pt varga kramenett kavargādayo dvyakşarādi krameņa svara kramena ca prastúyante /*3 Then he starts giving the words starting with the consonant kan and then ka then kā, kt and so on. In this way it runs upto the gåtha No. 25. And then he mentions atha äkäränta kakārådayh. In this way he arranges like kikärādaya. kukārādava etc. As Hemacandra does not consider verbal substitute as real destwords, he does not include them in the verses which form the body of the work hut adds them in the common, at the end of words of a certain number, for example : avahel racayatt/ avukkal vijnapayati etc. He says : ete dhātvādesesu sabdānušāsane' smābhir uktă itt neho pättah / na ca dhätvādešānām destsu samgraho yuktah | Some observations : Although Hema, says he does not consider the verbal substitutes: as dest words he includes some of them in his lexicon and says that he has consciously done so in accordance with the practice of his previous writers. Thus in l. 13 he says that aflhassa is a prakrt substitute for the sans. root a+kruf but he has included the word alshassam= akrustam in his lexicon. (Purvācaryanurodhat. In IV. 11 he says that dola is a dest word in the sense of "Palanquine', forgetting that he has derived the word in his grammar J. 217, from the sans world dola, Similarly in verse 29 thero 'Brahman' is taught as a dest word but in his grammar I. 166 it is derived from sthavira. In few cases he expressly says that a word thaught by him iş derivable from some Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 TULSI-PRAJNA sanskrit words as for example in I. 18, 39, 43 II. 104, III. 2 etc. Hemacandra excuses himself by saying. sans sanskrtånabhijña präkrtajñamanyadurvidagdha janavarjanärtham Again Hemacandra has included in the kośa many words which are actually taught or derived from words taught by Sanskrit writers in their lexicons and other works. For example the word pari'a milk pail' is reckoned a dest word in VI. 37 which is used in sans. with the same sense. Again in VI. 55 is found pūrilladevo in the sense of an Asura, which is according scholars a bhāva of pūrvadeva In VI. 90 bambhani is said to be a desi word in the sense of a lizard, in sa ns. also it signifies the same meaning. The Dictionary of Hema. is a definite and substantial improvement on the previous košas in Prakst i e. Paiyalacchinamamala. He has evolved clear cut principles as to the general classification into vargas and also the internal arrangement of the initial syllable etc. which is missing in paiyalacchinamamala He has further grouped the words on the basis of the length and number of syllables containing in a word, When ever he agreed or disagreed to a particular meaning ho gives proper reason bohind it. Sometimes i.c. in some cases he admits the meaning assigned by others although he himself gives a quite different meaning. In every case in which there is difference of opinion he takes care to give the opinion of the later lexiconrapher also. Besides referring to them by such general terms as pūrvācāryāḥ, sarve, eke, anye, kascit and kecit he quotes eight of his predecessors by name : such as Abhimanacinnah gopala and Dhanapala are quoted in five places each; Devaraja is quoted three times; whereas Droņa is quoted six times; while Rabulaka is quoted only once, and Silanka and Devaraja are referred to in 3 occasions. I may conclude this paper by quoting the observation made by Prof. Paravastu Venkata Ramānia Swami. "Hema has evolved a new diffinition of the torm Desi which excludes all words derived from the sans. source. In this he has chalked out a new line and risen above all the lexicographors. But at times he has consciously slipped down and included words which show evident sigos of derivation from sanskrit and at times he had consciously donc so, not being bold enough to go counter to his predecessors. But it must bo said to his credit that Hemacandra inagurated a new era in Prakrt lexicography and the oxperiment made by him was a really success. He has excluded a large number of Tatbhavas and Tatsamas from his lexicon because the former can be known from his grammar and the latter from the Sanskrit lexicons. The latter, infact, have no place in Prakt lexicons.”35 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 131 Footnotes : 1. Cf. G. Bühller Sitzungsberichte der Kaiserlichen Akademie der Wisenschaften in Wien. Philosophic-his torische Classe. (SKAW) 99. p. 568. 2. Cf. H.R. Kapadia, K.L. Janert's Annotated Bibliography of the Catalogues of Indian Manuscripts (Pt. 1, Wiesbaden, 1965). 3. Paialacchi nāmamālā (PLNM). Last verscs., Bhavanagar cda. 4. Namiuna Paramapurisam Purisuttamanabhi sambhavam devam vucchaṁ păialacchi tti nămamalam pisamcha: ibid V. 1. 5. Kaiņo........ Damammi jassa Kamaso teñesa viraia desr; ibid V. 278. 6. ibid. V. 2. 7. ibid. V. 21. 8. ibid. V. 98. 10. The last verse of PLNM. 11. ibid. V. 11. 12. Thus the verse occures in the text ia rayaṇavaliņamo desssaddāņa samgabo eso / vayaraṇa sesaleso raio sirihemacandamuņi vaiņa // DNM VIII. 77. 13. Indian antiquary, vol. II, 1873, p. 17. 14. nlsesa desī parimala pallavi akuühalaulattepa / viraijjai des sadda sargaho vannakamasuhao || DNM I. V.2. 15. All these titles are available in various Mss. 16 See Introduction of Desināmamālā 1. p. XXXIV, Edited by Benerjee, Murlydhar. 17. See DNM, Benerjee Edn, Introduction. 18. ibid. VV. 3-4. 19. 1. V. 2. 20. I. 11,13,20. 21. Siddhahemacandra 4,2. 22. DNM p. 2. 23. ibid. p. 3. 24. atra kecit acchadanam msgaya aliñjaram kupdam, amilayam kurandaka kusumam accbabhallo ruksa ityapi samgphyanti tata Sanskrtabhavatvāt asmābhirnoktam. DNM. p. 15. 25. ibid. II. 89. 26. ibid, p. 272. 1. 27. ibid, pp. 208, p. 236 and p. 313. 28. DNM Introduction p. 8. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 TULSI PRAJNA 29. ibid. III, V, 33, p. 124. 30. ibid. p. 276, p. 278-279. 31. ibid. p. 22. 32. ibid. p. 19. 33. ibid. p. 80. (Pischel edn.) 34. DNM Pichel edn. p. 20. 35. ibid, -Dr. Jayapti Tripathy C.ASS. University of Poopa Punc. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME MEDICINAL HERBS USED IN THE VEDIC AGE B.K. Mishra Ayurveda is regarded as one of the four Upavedas connected with Atharvaveda. It is also mentioned as 'Veda'. There were eight specialised branches of Ayurveda and one had to master all of them for having a place among the proficient vaidyas. In this article I would like to describe some of the important medicinal herbs used in the vedic age. The importance of medicinal herbs can be seen from the fact that a separate Sukta has been dedicated to its praise. It has been stated that the herbs sprang up three ages earlier than the Gods.1 The word ausadhi has been used several times into Rgveda and the Atharvaveda. As mothers has a prominent role in the nourshing of their child, similarly the herbs also act as the life saving drugs. Herbs are the embodiment of nourishment and strength, which regenerate the human mind and body-Herbs are described as relievers and restorers. Yaska has defined them as one possessing the capacity to generate energy in the body and one which removes deseases from the body, The herbs have been dividend into fruitful and fruitless, those that blossom and blossomless. Ajasrngl-- Ajasrngi is botanically known as odina pinnata and gynandropsis pentaphylla D.C. This plant was first mentioned in the Atharvaveda.• It was termed as a demon destroyer. It cures cough, thirst, dysentery, consumption and vomiting. Its pungent smell, when burnt drives away mosquitoos. It is found in the holter parts of India from extreme North-West along the foot of the Himalaya, ascending to 4000 ft. Aparajita Botanically known as clitoria ternatea, was a herbal plant having blue flowers. Its literal meaning is unconquered. Its root is used as a diuretic and emulcent and the seeds are given to the children in colic. Arka-Arka is a kind of shrab found in the drier parts of India. Its flowers and fruits were used in certain sacrifices. The flowers are Tulsr-Prajõu, Ladaun : Vol. 23 No. 3 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 TULSI-PRAJÑA used in the cases of cholera. Its white juice is used for curing eye deseases. Arundhati-Botanically known as sida cordifolia and sida shombibolia. It was used not only to cure wound and fractures rather it was also used for increasing the milk-flow of the cows. Asmagandha - It is identified with aswagandha, meaning 'horsesmell'. Aswagandha is botanically known as withania samnifera Dunal. It contains medicinal properties and is still used for preparing medicines. Root and bitter leaves are used as hypnotic in alcohalism, a emphasematous and dyspnoes. It is used in consumption, general and seminal debility, nervous exhaustion, loss of memory, leucorrhea, spermatorrhoea, sterility, lumbago, scrofulous and other glandular swellings and externally skin diseases, obstinate ulcers, carbuncles and rheumatic swellings. Asuri was a herbal plant and has been mentioned in the Atharva veda.5 It appears that it was used as a medicine to cure leprosy. It kills germs and cures wounds. Tulsi is botanically known as ocimum sanctum Linn. This small herb is found throughout India and cultivated near Hindu houses and temples. It is useful in several diseases. It also cures chronic fever, haemorrhage, dysentery and dyspepsia. Powder of the root rubbed slightly on a scropion bite will give relief from pain. Its root is febrifuge and leaves are used in ringworm mixed with lime-Juice. Satavara contained properties which were used to cure several diseases. This plant is found in low Jungles all over India, Its roots is used in diarrhoea as well as in cases of chronic colic and dysentry. Root boiled with some bland oil is used in various skin diseases. It is also used to relieve dyspepsia diarrhoea and to improve appetite. Root is also use in rheumatism. Boiled leaves smeared with ghee are applied to boils, small pox etc in order to prevent their confluence. Satavara is the most effective medicine to cure ailment caused by dog bites. Sirisa-Its flowers were used as medicine. It was very useful. Its bark and seeds are astringent and given in bleeding piles, diarrhoea, gonorrhoea in powder. Seeds form part of an anjam used for opthalmic diseases. Oil extracted from the seeds is given in leprosy. Leaves are applied to any eye complaints as an opthalmia Powdered root of the bark is used to strengthen gums where they are spongy and ulcerative. It yields a kind of gum resim. The leaves are used in fermentations and baths in rheumatic pains. The seeds are poisonous. Its leaves and seeds are beneficial for a patient of Jaundice and for curing heart diseases." Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 135 Sarsapa denotes mustard. The synonym of this plant in Abaya.s The leaves of the plant are used as a vegetable but in the Dharma sutras its vegetable is probibited. The seeds of this plant are used in medicine as poultice being a useful and simple rubefacient and vesi. cant. When applied externally mustard oil is very useful in mild attacks of sore thorat internal congession and chronic muscular rheumatism. The oil is also used as an article of diet and is rubbed on the skin before bathing. The oil rubbed over the chest has a great effect in relieving bronchias irritation. Soma-The Soma plant, the soma juice and the Soma sacrifice form an important and special features of the life of the vedic priests. Soma was the famous plant of divine origin which bestowed light and life. This plant, when properly squeezed, yielded a juice which was allowed so ferment and when mixed with milk and honey produced an exhilarating and intoxicating beverage. Haritaki botanically known as terminalia chebula is identified with harre. This tree grew wild in the forest of northern India, Madhya Pradesh, West Bengal etc. Its fruits were very useful and were used as mcdicine conducive to digestion. It is also used to cure several ailments such as fever, cough, asthma, urinary diseases, piles, eye affections, worms, muscular rheumatism, atonic dyspepsia, chronic diorrhoea, vomiting, dysentry, flatulence, colic, enlarged spleen and liver and exfernally aphthae chronic ulcerations, burns, and other skin diseases, bleeding piles and some veginal discharges. Syama--Syama' was a medicipal herb of black colour which was used for curing untimely greyings of hair. It was also used in leprosy. It cures diabetes, bronchitis, boils and wounds. It should be identified with black variety of bhgrogaraja. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 TULSI-PRAJNA Reference : 1. Rgveda-10.97.1. 2. Rgveda-1. 166.5; 4,57.3 ctc. Atharvaveda-4.15.2; 11,6.17 etc. 3. Tat: 3 Tlfe am I 377971 Eyrafa ali starala at i Nirukta 9.21. 4. Atharva veda-4.37.6. 5. Ibid-1.24.1-4. 6. Ibid-19.36.1.6. 7. Ibid-1.22.4. 8. Ibid-6.16.1-2. 9. Ibid-1.24.3-4. -Dr. Binay Kumar Mishra C/o Dr. Rajiv Kumar A/17, Magadh University Campus Gaya-824 234 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUSTAINABLE DEVELOPMENT FOR HARMONIOUS SOCIETY B.R. Dogar Any intellectual or commonsense method of speculation provides the way of ultimate solution for the problem of this world-for the very existence through sustainable development. Change or development is a phenomena of necessary process in this everchanging universe. History tells a lot of change over millions of years. Primitive people first, thought through ignorant way. Apcients saw it as wonderful. Medieval people started their thinking through religious beliefs and we, the modern people, do think through reason. The existing form of the world. society and so on could be measured through reason which, however unfortunately centres the need of economic development. The need of the sustainable development as a solution to all aspect of life is considered and justified. Sustainable development is not only give birth the economical development but also allot its advantages equally, which regenerates the eco-system, rather than ruin it. This development gives opportunities to them for decide their choice in life. Now, through out world, the main aim is redefine the humanity's development and security. Many developed countries are in a head for solve tho problems which exist now in the society and they do needful for the development of the humble. Every human being wants are unlimited and all have aim towards prosperity, which otherwise known to be wealthy. In other hand, they want to delight long and healthy skill, acquired stream of knowledge, take part freely in their community, healthy environmental atmosphere and peace which comes from their native place, job and society. So the real abundance in people, in a society, nothing else. Many countries have a higher GNP, but lower humanity because of their maximization ideology. United nations suggest powerfully encourage other nations to do in the development field. So there is a question "without peace, there may be no development; But Tulst-Prajña, Ladaun ; Vol. 23 No, 3 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 without development, peace is threatened." There is an immediate necessity among human beings to established more integrated, affective and efficientness UN system always encourage to the world wide act of moving towards sustainable development. The globalpolicy with co-operation is working closely with UN programmes to help the countries, who realize to achieve the sustainable development in the basis of serve humanity. Today the peoples of the whole world feeling unsafe arises too much from vex about present life than from the fear of a deluge world incident. So we regard that type of development which believe in means not in end. We give respect to that development who protect the life opportunities of future generation, as well as present and natural system which the total humanity can solution. The strongest plan for protecting the eco-system is the ethical need for future is the foundation of sustainable development. Development which accumulated wealth is not fulfilled the total, but the solution is people's wealth on the basis of precious social cultural traditions on maintaining all levels. The existence of this complicated society is the result of three hundred million years of research and development. But the recent age development increasingly intolerable such as, crime, delinquency, alcholism, drug addiction and so many social problems caused by disintegration of social environment. Being increase the extinct of plant and animal species the ecological imbalance is going on. TULSI-PRAJŇA The eco-system is highly affected by the micro-organisms, establishing leading plants, population explosion and animal wide spread hunting. Already the environment is trying to tell us that certain stresses are becoming excessive. As one problem is being 'solved' ten new problem series as a result of the first 'solution'. Therefore, it can be said that a suitable and acceptable systematic process is the need of the hour. Problems can never be solved by investing more in science, technology, innovation and more industrial investment problems should however, be interpreted objectively than the subjective consideration. Sometimes arbitrary 'order' is undesirable for selfgoverning and self-controlled system. It is our world-view and social behavior and their equilibrium is essential to deal before any problem. This system helps to development of the human being. Their natural development also fulfills by this. So their relationship with making up towards ecology and other things are stable, there by the need of the society in fact fulfilled. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No 3 139 The various types of needs, which is satisfied by the self-control behaviour, will also fulfilled the entire demand in society. But this behaviour is not sustained in modern developed society. There are many in the world who idealise the sustainable development. Gandhi, Vivekanand, Vinoba, Schumacher are some of those. According to Gandhi "Earth provides enough to satisfy every man's need, but not for every man's greed." Therefore, he always said about nonviolence and a relationship of man to nature. So Gandhian economic started and finished with people with their need for strong moral and their desire to be self-determining objectives for development. Without any doubt one can say that most tech, today have become profoundly antiecological un-healthy and inhuman. Therefore, Schumacher said that "Based on attention to people, we must think in terms of small scale, manageable units... Small is beautiful...we require to profound reorientation of science and tech. He demands a new type of development towards the organic, the gentle, the nonviolent the elegent and beautiful. In modern countries they overlooked the incommensurable qualities of like, that's Schumacher's holy trinity of Health', 'Beauty and Permanence'. The underdeveloped countrics demanding such advanced experts and refined materials to finish their luxurious products that they cannot employ local labour or use local resoursos but most import skills and technologies from Europe and America. That's why he said that the poor countries sell themselves infront of the international tourist technology. Development of course cannot and must not be abolished. As long as the earth has to be given us our daily bread the development, the prosperity will be going on. But there should be equal growth for whole. There will have to be something between the lower and bigher. The real development prosperous the high standard of a particular class, those who are koown as the sophisticate peoples, bureaucracy and so on. But the sustainable development which based on pure non-violent basis can prosper the lower label standard. To heavy industries are necossary for the countries GNP growth, but we cannot neglect the small scale industries where the artisans, craftsman bear upon their art and craft the hereditary skill that makes beauty, will always remain. The sustainable development associated with a set of characteristics. It include the nature of the product, the resource use of machinery, skilled and unskilled man scalo of production, the complementary products and services involved in it. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 TULSI-PRAJNA Recently Howard Pack has argued that countries could make significant gains at the macro-level ip terms of employment, out put, and saving, by policies leading to adoption of the most appropriate techniques in existence. Labour intensive techniques is only economic way in the small scale industries; where growth of labour standard in possible and it leads toward equality. Agricultural development through augmentation of irrigaeion, diversification of croping pattern, introducing the agricultural research, improved farming techniques should sometimes be guiding principles for diminisbing the poverty. From the Himalayan heights of materialistic comforts and belief we are being lead to the bottomless depth of all round environmental pollution, ecological devastation, ozone depletion, green house effect, creating waves of shock in all living men. Our disposition towards science, technology, industry goods, extraordinary arrangements of consumer goods, skillful technological devices which gives us unemployment, homelessness, ignorance, discase, crime and wrong doing, we get from vast specialized development institution, have afficted us since the early time, which should be eliminated for ever. Development not for creating a wild-society. where need more policemen, jail, bulletproof cars, and armed force for high crime rate, but achieve goals by which we constitute a higher precedence. The benefit of material technical and institutional development must be the means of maximizing whole and of best promoting human welfare. Economical progress must be substituted ecologism. The conception must be done to fulflled not a single but for all. Educational system should be reformed and it would also a required to assure the general adoption of global-view, which become considerably more decentralized. The main intensive implementation of our plan to developing the appropriate technology. Which latter helps for decentralized living. The scale of production process and producing goods which are not suitable for the natural environment must be reduced. We need self-control social system, where reducing of technological progress, activities are possible and it helps to make up the real world. According to D.D. Malvania : "Science has made great progress in achieving the human comforts, no doubt, but the human community has become greedy and violent. The invention of the atom bomb in the hand of Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 141 some is a great threat not only to the human society as a whole but also to all living beings. Io such circumstances it is necessary to find out the way of libra. tion, freedom, peace for the humanity, which is possible through the basis of sustainable development." The sustainable development cannot be achieved till different measures are taken in isolation wbich each another. There should be an integrated approach, wbich includes proper and affective implementation of rural development and poverty alleviation, decentralisation, infrastructural mission approach to rural development. The population and consumption growth permits industrialisation, increase food production, in a very little term for the inputs. Which it requires apart from causing Environmental hazards, which largely shown the diminishing out put. Rather than inspite of it, the sustainable development should be accessary throug'ı decentralisation which is our only possible way of action. Therefore, we must aware people to work again by their hands and not just press buttons. So the main development should be look to free markets and democratic constitutions-with strong assistance from the organisation, of society. In society, encouragement should be given to government, organisation, media, to exploring the relationship between spiritual insight and material progress. If the spiritual reality af human kind is considered in any function of social action, then the progress will be fruitful at best. Gandhi alway told that I don't draw a sharp line between development (economical) and ethics. Development which hurts the moral well-being of an individual or a nation are immoral and there. fore, sinful Qualities like love, compassion, faith, hope, non-violence are the main root causes providing the motive impulse for social advancement. If the existing development system will based on above said qualities then the sustainable development can achieved. The prejudices based on race, class, ethnicity or sex are must be rejected. If you come up from these prejudices, then oneness of humanity is fully understaod by ourself and our aim become the development of all people as a whole. Through unbased development our global society is facing today the great social problems which will be removed by applying the nonviolent qualities, social integration, genuine tolerance, then the development will sustain properly. The recent time needs the value of work done by purely volun. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 TULSI-PRAJNA tary basis. In UK politicals. administrators, are functioning in local level to fulfilled their minimum requirements. This is the one of the proper way of development and this type of decentralised view should need for reconstruct the society and take-of towards prosperity. All resources are very uninventlydis tributed would immediately divided the world into 'haves' and 'have nots'. In total the poverty of the third world is the result of highly reducing of the natural resources as a result de-forestation and soil erosion by wind and water. To avoid the problem, we need constructive programmes of re-afforestation and soil conservation, with ecological appropriate technology. The main aim of sustainable development is not only bring-up balance in society, but also maximum satisfaction for all. It must not be worked in favour of any particular group, but of the people as a whole. So every effort must be made to secure the widest co-operation of the people for its successful implementation. There should be introduced larger co-orditation among the different parts in the society and endeavour to initiate a highly co-ordinated efforts towards a well-defined goal. The living style of the developed countries will have to change. Because they are one fifth of world's population, but consume 70% of the world's energy, 75% of metal and 85% of wood. For this cause the sustainable development is deals with models of production and consumption. It do not regard natural resources as a free food. Therefore, the ihequalities of today are so great that to sustain the present form of development is not ever lasting similar inequalities for future. The main root cause of sustainable development is every body should get equal opportunitles in now and also in future. The sustainable development not allow nerves to become frayed nor the mind to become weary. It is cherish beauty, non-violence, peace as things to be valued, but not at the expense of that dynamic urge, which sweps us through the years from change to change unceasingly". We are waiting the future time, when the completion of our sustainable development will help us to built-up our world into heaven. 國 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 143 Roferences : 1. Edward Goldsmith, The Great U Turn. 2. "Human Development Report-1994. 3. R.C. Saxena, Labour Problems and Social Welfare. 4. R.K Prabhu and R.R, Rao, The mind of Mahatma Gandhi. 5, Romesh Diwan and Mark Lutx, Essays on Gandhian Economics. 6. Gerald M Meier, Leading Issues in Economic Development. 7. Edward Goldsmith, The Way (an ecological world view). 8. Schumacher E.F., Small is Beautiful. .. One Country, journal Oct-Dec-1994. 10. D.N. Ghose, Essays on How can Indian Village Life be Improved. 11. D.D. Malvania, Quotation from Mahavira and his Teaching. -Dr. B.R. Dugar Registrar Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341306. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE DEVELOPMENT DILEMMA Musafir Singh Development, the credo of the age, has become a dubious proposition. The elan with which it was inaugurated is ebbing out. The short-term euphoria that it vouchsafed to mankind is turning into a long-term incubus. Humanity now stands on the cross-roads. Any further movement on the same path-line may spell doom and any backward movement may signify a humiliating defeat of the humanhubris. How to wriggle out of this dilemma is now the nagging problem that engages the mind of many an enlightened thinker. It is now evident that development is not all milk and honey that we had taken it to be. It also contains elements that are inimical to human survival itself. The development economy seems to operate on the ecological canvas like cancer. It is running berserk, has become a law unto itself and tends to defy all controls. Man has become a passive tool of his own creation. He feels helpless and powerless before the forces he himself has unleashed. The Frankenstein monster threatens to devour him. The apotheosis of the physical standard of living, the status label attached to consumerism is robbing man of his dignity. his real nature and has displaced him from centre to periphery. His temporocentrism has blinded him to the fact that the earth's resources are as much the property of future generation as of the present. The wisdom of "consumption for today and conservation for tomorrow," hardly has any appeal to his conscience. The reckless and ruthless exploitation of non-renewable natural resources to augment economic growth rates is accelerating their exhaustion, When these resources are completely depleted, the future generations will see its inevitable end. The plea that science and technology by then would be able to find their substitutes to help maintain the present modus vivendi is hobnobbing with a chimera. The all-round pollution caused by insatiable consumption of the natural resources is rendering the planet an inhospitable place to live on. All life-support systems are being imperilled and their capacity for re-generation is fast diminishing. There seems to be no wisdom in working out an extra-terrestrial paradigm when we have made our natural home uninhabitable. "space traval is a Tulsi-Prajña, Ladnun; Vol. 23 No. 3 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 TULSI-PRAJNA triumph of human intellect but a tragedy of human reason", said Max Born, Physics, Nobel prize winner. Nature, of course, does have a certain tolerance quotient, a range of accommodating destruction beyond which any violation would boomerang on man with a vengeance. It will not brook man, its creature, to be have as its master and conqueror. The unbounded aspirations for material achievements have resuited in a kind of development which is antithetical to development as normatively desired. The upbridgeable disparity generated between individuuls and nations paves the way for ubiquitous conflict and peacelessness over the globe. In creating great societies, we have totally missed the concept of a good society. We witness all around the sordid spectacle of violence, anomie, ennui and alienation. Man's creativity is not harnessed towards his self-fulfillment but towards his self-aggrandizement, towards inflating his ego as a mere consumer. Development. by over-concentrating on the material aspect of life has impoverished man in his dimensions. It is, thus, distorting human reality by panderiog to the base instincts and thwarting those that symbolize his divinity. This development, therefore, is not compatible with the existential structure of man and is leading to an erosion of his being as human. Material development is a function of physical science and technology. Man activates the latent powers of nature by unravelling its secrets. He appropriates these powers and transforms nature through them in the light of his value structure. However, he does not and cannot expand nature's resources He can only expend them The essence of this extant type of development consists in converting one from of matter/energy into another, as per a preconceived plan This pattern of development, however, is by no means coeval with the development of man as such. If man primarily is spiritual being and not a physical being, his destiny must be deter. mined more by spiritual sciences than by physical sciences, Man's inner being has more explosive powers than nature's outer being. It is through the spiritual techniques that these powers can be mobilized for map's spiritual transformation towards an omega point. To view nature as alien aad insentient existing there as a mere need object is a sinful violation of nature's status and dignity, Nature is an interconnected organic whole permeated with life and consciousness through and through. There is an obvious necd for a deep study of these interconnections in order to comprehend the mysterious functioning of nature and its various components. Any mechapo Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. xxIII, No. 3 147 morphic approach to nature is fraught with dangerous consequences. Nature evolves as a whole and all evolution whether of environ. ment, flora or fauna, essentially is a co-evolution. Man therefore, cannot afford to develop alone or at the cost of his correlates. Any unbalanced or lopsided development, unfriendly to man's ecological ambience, is a lethal blow to his own survival. Let us not forget that being has a precedence over well-being and living over star of living. At this historic juncture, nomcsis threatens to overtake mankind if it persists in its blissful ignorance to embellishing its superstructures of civilization at the cost of its basic structures of survival. In the law of nature, every quantitative growth has a limit set for itself, then qualitative growth follows endlessly. Endless economic growth, therefore, is against the philosophy of nature and hence a vain pursuit. Material wealth, howsoever expandable, is diminishable through sharing, in contradistinction to spiritual wealth where sharing has a multiplier effect. This may explain why the ancient civilization of India nourished by the wisdom of its savants laid greater empbasis on acquiring of spiritual wealth rather than material goods. The production of material goods, howsoever sophisticated its technology, would always lag behind the prolifera. tion of illegitimate needs generated by a consumerist culturo. Whereas means and processes employed in amassing material wealth entail tepsion and conflict, setting each man against the other, making earth an accursed place, spiritual quest confers upon the earth an aura of love, service and compassion, a co-living and co-sharing. The philosophy of development, therefore, must be an integral part of the philosophy of life itself. The sine qua non of man is his value orientation and not his need motivation. Man is soul which has a body and not a body which has a soul. Man's dignity lice in what he is and not in what he has. Man's being, therofore, is of fundamental concern to man and not his baving. An authentic development must focus on the enrichment of man's being and not an unceasing expansion of his having. Standard of living must be a corollary of the standard of life, and not vice versa, similarly. humanics of life must get a higher pedestal than the mechanics of life. Man must strain to develop not in tension with naturo, but in tandem with it. Development can never be a boon to man if it is a bane to nature. The present ecological crisis is the end product of the anthropocentric view of the world represented by the Semitic religións. There is an existential alienation between man and nature. According to Christian theology, man is not a part of nature, he is outside Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJŇA nature. Nature was created by God for the utilitarian purposes of man. In understanding the arcane of nature, man discovers the glory of God. In taming the recalcitrant forces of nature, man demonstrates his own power and dignity. The spirit of western science and technology, therefore, is embedded in Christianity itself. The carriage of this world view to its extreme, however, resulted in exploitation and exfoliation of nature, so such so, that nature has lost its capacity for self-replenishment and regeneration. The human intervention has disturbed the delicate equilibrium of nature so gravely that it has now started exhibiting neurotic behaviour. On the other hand, the world view of Eastern religions was cosmocentric implying that man is a part of the cosmos and organically related to it. A constant osmosis with the cosmos is the mission of Eastern man's life. Man ceases to be himself if he snaps the umbilical chord that binds him to nature. The realization of the unity of existence is the supreme goal of life that man must seek through all his mundane activities. Non-violence, therefore, in this sense, is not merely an ethical principle but becomes an ecological principle as well. Ethics, to the Easternman, therefore, is not an expedient to ordering social arrangements but an imperative to maintaining to cosmic constituents in their natural balance. This concept of existential unity of cosmic forces is no longer a philosophical speculation but a fact corroborated by recent discoveries in quantum physics. The unity of matter and energy, animate and inanimate, space and time, matter and mind, subject and object, is a scientifically established truth The Hindu scriptures long ago revealed that all that is, vibrates with life, having emerged from the supreme life, The universe, according to them is an undivided whole which holds the static and the dynamic together simultaneously. Indeed the whole of this universe is nothing else than the Absolute itself. Our faulty attitude towards nature as man's servant can, therefore, be rectified only when we adopt the world view of ancient Indian sages and seers. Perceiving the entire creation as an abode of the Divine is not primitive animism but the culmination of human understanding, a perfect Weltanschauung. To treat every object of nature as sacred and given in trust. to enjoy them non-possessively, not to harm or destroy them wantoly is to consecrate nature, whereas to view nature as only of use value is to desecrate it. Nature would not be subjected to unconscionable robbery if she motherly status. Mahatma Gandhi spoke the truth "This world has enough for everyone's need, but not for a single man's greed." were to enjoy when he said. 148 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXIII, No. 3 149 Development must be seen and pursued within an evolutionary perspective. Whereas evolution a slow process, autonomous, unplanned and unconscious, development is a fast process, induced, planned and conscious. It attempts to recapitulate centuries within decades, and thereby creates many disturbances in nature's own rhythms and movements as also in its messages and missions. The hallmark of evolution is creation of infinite diversity out of primordial unity. To exist in infinite forms seems to be the logic of the evolutionary spirit. At the same time, evolution also means creation and intensification of a "within" in the heart of matter. Man represents, so far the highest development of this with in" where it has acquired a new quality of self-direction towards still higher sta ges. Development, whatever its model, tends to steamrolling all differences and uniqueness, the products of millenniums, into a globalized homogenization. In this process, it is creating an acute identity crisis in all areas of life-racial, ethnic, cultural, regional and even national. The fear of identity erosion and effacement has set-off violent reactions manifesting themselves in myriad forms at different levels. The groundsel of strife and unrest which we countenance on a global dimension so disgustingly, is a desperate attempt to resist this threat to identity posed by this sovereign development. "Similarly, the neglect of the inner resources of man in our obsessive preoccuptoin with the where withals of life is leading to an atrophy of all human sensibilities and value orientations. Development thus, is as much destructive of man as it is of nature. The exponential growth rate of gross national product in many cases, is inversely related to gross nature's product. Whereas the lion's share of the former is appropriated by the rich, the benefits of the latter accrue to the poor. In this sense, development is a great polarizer of wealth, creating a dual and dichotomous society of plenitude and penury. Jo fine, one can say that the millennium that development had promised, is a mirage whoso further pursuit within the existing paradigm of living, is virtually an invitation to apocalypse. -Prof. Musafir Singh Jain Vishva-Bharati Institute Ladnun, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Book Review Studies in Jainology, Prakrit literature and Language (A collection of select 51 papers) by Dr. B.K. Khadabadi. Publisbers, Prakrit Bharati Academy, Johari Bazar, Jaipur, Price : Rs. 300.00. Publishing of some articles of some scholars in a book form like the present one, is one of the good things of the Prakrit Bharati Academy of Jaipur. Shri D.R. Mehta, its secretary is doing good job by adding such publications to the list of its publications Dr. Khadabadi, who has devoted all his life to the study of Jainology & Prakrit languages and literature, is a serious scholar. He has indicated in the preface to this volume under review that some more articles are still remain unpublished. It will be a good endea. vour if these articles are also published in another subsequent volume, because it is always diffieult to find out the articles from the pages of different Journals etc. that are not exit at one or two places often. These 51 articles have been devided into several categories. Papers related to Jain religion, philosophy, ethics, history, cosmography, yoga and contribution of Jainism to some aspects of Indian Culture are arranged in serial order and papers connected with Prakrit languages and literature are taken next. Articles like : Influence of Prakrit on the languages of Vadàārādhane; Gahasattasal Bhagavati Arādhanā and the effect of middle Indo-Aryan literature on Kannada literature are thought-provoking, while some other articles : Kannada words in Desināmamālā, Kannad Element in Dhätvädeśa, Prakritisms in Kannada Inscriptions & Någavarma's Three and a half languages are very much interesting and a valuable contribution too. He has also contributed an article on Jalna Path of Education and another on the Eighteen Desi languages. The publication is rich in quality, printing and binding of the book is also good, -Parameshwar Solanki Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. डॉ० श्यामसुन्दर निगम, निदेशक, श्री कावेरी शोध संस्थान, उज्जैन, जो वहीं से प्रकाशित–'शोध समवेत' के सम्पादक भी हैं, लिखते हैं। 'Sir, We are fully aware of your sincere devotion to the academic cause and the contribution made by you, your Journal and the Jain Vishva Bharati Institute to the cultural and intellectual world. We are having in our Institute many back volumes of Tulasi Prajna'. ४. जैन जगत् के वयोवृद्ध विद्वान् पं० अमृतलाल शास्त्री, वाराणसी से लिखते 'विज्ञवर डॉ० सोलंकीजी, 'तुलसी प्रज्ञा' का अंक यथा समय प्राप्त हुआ। इसके सभी आलेख शोधपूर्ण सामग्री से विभूषित हैं । आपकी लेखन शैली अद्भुत है। यदि कोई आलेख न भी रहे तो आप अपने विविधविध शोध आलेखों से प्रस्तुत शोध पत्रिका को परिपूरित कर सकते हैं। आपकी विद्वत्ता आपकी याद दिला रही है और पूरे जीवन के अन्त तक दिलाती ही रहेगी। ५. श्री जयनारायण गौड़, सेवा निवृत्त आई० ए० एस०, जयपुर से लिखते हैं। 'प्रिय भाई सोलंकीजी, 'तुलसी प्रज्ञा' की दो तीन रचनायें तो मैंने आद्योपांत पढ़ ली हैं तथा शेष को भी सरसरीतौर से देख चुका हूं। यह शोध पत्रिका अपने नाम को सार्थक करती है क्योंकि सब कृतियों से उनके लेखकों का गहन अनुसंधान स्पष्ट झलकता है। इस पत्रिका की दूसरी विशिष्टता यह भी है कि यह केवल जैन साहित्य या धर्म तक ही सीमित नहीं है।' ६. वयोवृद्ध प्रोफेसर प्रतापसिंह, उदयपुर से लिखते हैं । 'श्रीमान् डॉ० सोलंकीजी, आपकी भेजी 'तुलसी प्रज्ञा' की कर्मवाद विशेषांक की प्रति प्राप्त हुई। बहुतबहुत धन्यवाद। इसके स्वाध्याय का आनंद ले रहा हूं। आपके लेख व संपादकीय ने विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। जीव के ज्ञानत्व व संवेदनत्व का विश्लेषण अच्छा लगा।' ७. 'यग लीडर'-हिन्दी दैनिक, अहमदाबाद के संपादक जिनेन्द्र कुमार लिखते हैं। 'भाई श्री परमेश्वरजी, आज मुझे 'तुलसी प्रज्ञा' का पूर्णाङ्क १०१ प्राप्त हुआ। आपका स्मरण हो आया । आप प्रखर विद्वान हैं। समाज ने आपकी योग्यता-दक्षता का मूल्यांकन नहीं किया। फिर भी श्री जैन विश्व भारती में आपको अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला है और मुझे खुशी है कि आप पूरी निष्ठा से अपनी भूमिका निभा रहे हैं। भगवान् वीर प्रभू से कामना करता हूं कि आप इसी प्रकार जीवन पर्यन्त स्वस्थ-प्रसन्नसक्रिय बने रहें।' -प्राप्त हुए पत्रों से Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 Kjecqueulel MMM juo @sn jeuosi@d 8 nenud Joy |euoleuwauj uoyeonps uter Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India :R.N.I. No. 28340/75 TULSI-PRAJNA 1997-98 Vol. XXIII Annual Subs. Rs 60/- Rs. 20/- Life Membership Rs. 600/प्रकाशक-संपादक : डॉ. परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ मैं मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया।