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पूर्व-पर-सन्धि-सन्धायक रूप की विवेचना की गयी है यथा लोक पूर्व और पर (या उत्तर) रूप पृथिवी एवं छू लोक हैं, आकाश सन्धि तथा वायु संधायक है ............... अथाधिलोकम् । पृथिवीपूर्वरूपम् । धौरुत्तररूपम् । आकाश: सन्धिः वायु संधायक (१॥३॥२-६) छान्दोग्य उपनिषद् और बृहदारण्यक उपनिषदों में अथ शब्द का प्रयोग व्यारु [ या निश्चितार्थद्योतन हेतु प्रचुर मात्रा में किया गया है यथा - छान्दोग्य उपनिषद् में ऋग्वेद और सामवेद की ॐकार के लिए 'प्रणव' तथा उद्गीथ शब्द के प्रयोग एवं ब्रह्माण्ड और पिण्ड की अभिन्नता को निश्चयपूर्वक विवेचित करने के लिए प्रथम प्रपाठक के षष्ठ खण्ड के पंचम और षष्ठ मंत्रों में अथ शब्द का प्रयोग हुआ है यथा – 'अथ यदेतदादित्यस्य शुक्लं भा: संवर्गथ पन्नीलं परः कृष्णं तस्साम्....... .." साम गीयते । अथ यदेवैतदादित्य'.. ' एव सुवर्णः । सप्तम खण्ड के प्रथम, चतुर्थपंचम, सप्तम्-अष्टम मंत्रों में भी अध्यात्म रूप से पिण्ड तथा आधिदैवत रूप में ब्रह्माण्ड की अभिन्नता की व्याख्या की गयी है । इसी प्रकार पंचविध और सप्तविध सामग'नोपासना की विवेचना (२।१।३; २।२।२; २।८।१; २।९।१,३-८; २।१०।१) की गयी है। इसी प्रकार इस उपनिषद् में विभिन्न उपासनाओं की व्याख्या इसके तृतीय प्रपाठक. से लेकर अष्टम प्रपाठक के अनेक मंत्रों में अथ के द्वारा सम्पादित की गयी है । बृहदारण्यक के प्रथम अध्याय के चतुर्थ भाग में 'स्वलोक' अथवा 'आत्मलोक' की संकोच-विकासशील व्याख्या करते हुए अथ शब्द से आरम्भ कर विभिन्न देवलोक, ऋषिलोक, पितृलोक, मनुजलोक, पशुलोक, जन्तुलोक की व्याख्या करते हुए आत्मा के ब्रह्ममार्ग द्वारा आरूढ़ होने की मीमांसा की गयी है। अन्यत्र भी प्राणों की उत्कृष्टतमता बतलाने के लिए अथ शब्द व्याख्या अर्थ में प्रयोग हआ है (१।५।१२-१७; २१-२३) अन्य अध्यायों में अथ शब्द का प्रयोग विवेचना या निश्चितार्थद्योतन हेतु हुआ है यथा—२।३।३-५; ३।३।१; ३।४।१; ३१५११४।२।३; ४।५।१; ६।३।४-६ एवं ६।४।२४ यदि-तो; जो-वो; जहां-वहां; ज्यों-त्यों; जब-तब अब का सूचक
उपनिषद् वाङ्मय और संस्कृत के साहित्य-ग्रंथों में 'अथ' शब्द का विविध अर्थों में उपयोग किया गया है । जैसे यदि-तो अर्थ में प्रश्न उपनिषद् में ॐकार की उपासना हेतु कहा गया है कि यदि साधक ॐकार का द्विमात्रक ध्यान करता है तो वह यजुर्वेद मंत्रों से अन्तरिक्ष के चन्द्रलोक में स्थान ग्रहण करता है यथा -- अथ यदि द्विमात्रेण मनसि .. ...." सोमलोकम् ।' (४।४) छान्दोग्य उपनिषद् में 'जो-वो या वही' अर्थ की सूचक यह पंक्ति है--
अथ खलु य उद्गीथ : स प्रणवो यः प्रणवः स उदगीथ इति (१५१) इस मंत्र की आवृत्ति पंचम मंत्र में भी हुई है । अर्थात् जो उद्गीथ है वही प्रणव है तथा जो प्रणव है वही उद्गीथ है । यदि-तो का प्रयोग भी इस उपनिषद् में अनेक स्थलों पर हआ है । जैसे ---४।१७।५-६; ५।२।४; ६।१६।२; ८।२।२-७,९ बृहदारण्यक में भी इसी अर्थ में अथ शब्द का प्रयोग हुआ है यथा-६।४।६,१०,११-१२, इसी उपनिषद् में अनेक बार जो-वो या जिसकी-उसे या जो-वही का प्रयोग अथ के लिए हुआ है
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तुलसी प्रज्ञा
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