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________________ यथा – ६।४।१३,१५-१८ इसी तरह छान्दोग्य उपनिषद् की इस ऋचा 'अथ यत्रेपाकृते प्रातरनुवाके .... हीयतेऽन्यतरा । ( ६ | १४|४) अथ यत्रैतदाकाशमनुविषण्णं चक्षुः स चाक्षुषः पुरुषो दर्शनाय चक्षुरथ यो वेदेदं ***(518218) प्राण और इन्द्रियों में श्रेष्ठ कौन है ? इसका बड़ा ही रोचक वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् के पंचम प्रपाठक के प्रथम खण्ड में किया गया है । इसी खण्ड में ज्योंही प्राण बाहर जाने का संकेत करता है त्योंहि इन्द्रियां मृतप्राय सी होकर प्राण की अभ्यर्थना करती हैं कि आप ही हम सबसे श्रेष्ठ हैं । यथा - अथ ह प्राण उच्चित्र मिषन्स यथ सुहयः त्वं नः श्रेष्ठोऽसि मोत्क्रमीरिति ( ५।१।१२ ) ज्यों-त्यों के साथ ही इसी उपनिषद् में जब-तब अर्थ में भी अथ का प्रयोग हुआ है यथा - अथ मे विज्ञास्यसीति' सहाशाथ हैनमुपससाद" । अब अर्थसूचक मंत्र इस प्रकार है 'अथ खलूद्गीथाक्षराण्युपासीतोद्गीथ इति' । अर्थात् अब उद्गीथ शब्द के अक्षर समूह की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है । अब अर्थ में ही आगे भी अथ का प्रयोग उपलब्ध होता है जहां साम और ऋक् ऋचाओं की ऐक्यता का परिचय दिया गया है । आदि अवसान सूचक अर्थ प्रायः अनेक स्थलों पर 'आरम्भ से समाप्ति' को सूचित करने के लिए भी 'अथ और इति' का प्रयोग किया जाता है । 'अथ से इति तक' 'आदि से अन्त तक' का सूचक माना गया है । पालि-ग्रन्थों में भी अथ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। निम्नाfarक्यों में अथ के विविध अर्थ अवलोकित किये जा सकते हैं १. अथ एक दिवस राजा (महावंश २७ ) -- अब एक दिन राजा । २. अथ एवं उपसंकम्म ( बही २४३ ) - तब उसके पास पहुंचा । ३. अथ उग्गहोसयि संघो ( वही २५२ ) - तब संघ जोर से बोला । ४. अथ नं सक्को एवं आह (जातक २) और सक्क ने इससे ऐसा कहा । ५. अथापरं ( अभिदानप्प दीपिका) और आगे । ६. अथ खो उत्तरो मानवो ( कच्चायन व्याकरण पृ० ७० ) - और उत्तर) ७. अथा सच्चे हि मन्तेत्वा ( महावंश ५३ ) इस तरह मंत्री के साथ परामर्श करके । ८. नदिन्दोऽथ ( वही १५७) एक दिवस राजा । ९. यदा... .... अथ ( दीघनिकाय ४९ ) जब-तब । १०. पढमं ...........अथ ( वही २९) प्रथम 'तब । ११. वन्दित्वा सम्मा सम्वुहं आदितो अथ धम्मं च संघं च ( वही ) प्रथमतः बुद्ध भगवान् को नमन करने के उपरान्त धर्म फिर संघ को नमन करे । १२. अथ किं करिस्ससि ( दीघ निकाय ९३ ) - आखिरकार आप करना क्या चाहते हैं ? १३. अथ च पन (जातक १७ ) - परन्तु दूसरी ओर । खंड-२३, अंक - ३ कि Jain Education International For Private & Personal Use Only ३२१ www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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