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१४. नोऽहं एतं भन्ते अथ खो नं मयं एव अभिवादेय्याम् (दीघ निकाय ४८)
--ऐसा नहीं, भन्ते, नहीं मैं आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम करता हूं। १५. सता'ऽअथो दस खुद्दक निकाय १३)-एक सौ और दश ।
(महा० १४४) १६. अथो जातिक्खयं पत्तो (दीघ निकाय ७५)-उसने भी जीवन का लक्ष्य
प्राप्त कर लिया। १७. अहो पि स वकच्च सुणन्तु (खुद्दक निकाय ६)-उन्हें भी सावधानीपूर्वक
सुनना चाहिए।
दीघ निकाय १५, २५, ४८ में अथवा (विकल्प के रूप में) अथो या अहो क्रियाविशेषण के रूप में भी अनेक स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार पालि भाषा में भी 'अथ' शब्द का प्रयोग-और, अब, तब या तो, उसके अनुसार, एक दिवस, (अनिश्चित अर्थ में) प्रथम-तब, 'यदा अथ', परन्तु, और फिर, विकल्प अर्थ आदि विविध अर्थों में किया गया है।
प्राकृत भाषा में जैन विद्वानों ने अथ शब्द को 'अह' या 'अध' के रूप में प्रयुक्त किया है। प्राकृत हिन्दी कोश में अथ (अह) शब्द के निम्नांकित अर्थ दिये गये हैं(१) अब, बाद या अनन्तर (२) अथवा (३) और (४) मंगल (५) प्रश्न (६) समुच्चय या समग्र (७) प्रतिवचन (८) उत्तर विशेष (९) यथार्थता या वास्तविकता (१०) पूर्वपक्ष (११) पादपूर्ति हेतु (१२) वाक्यालंकार के रूप में। कुछ उदाहरण इस प्रकार दिये जा सकते हैं - . १. अह पुण एवं जाणेज्जा (आयार चूला १।२।२२, २५, २८) अब ऐसा जानना
चाहिए। २. अह एसि विणासे उ (सूयगडो १।११८) इसके नष्ट होने के पश्चात् । ३. अह पास विवेगमुट्ठिए (वही २।१८)-अब देखो जो विवेक से उद्यत होता
४. (अह आहु) अहाहु से लोगे कुसील धम्मे (वही १७।५)-वह लोक में कुशील
धर्म वाला है। ५. अह पास तेहि-तेहिं कुलेहि आयत्ताये जाया (आचारांग ६।८)-'देखो !
उसी-उसी कुल में आकर जन्म लेता है । ६. अह भंते (ठाणं ३।१२५; भगवई १।११३; २०।३।२०-वाक्यालंकार के __रूप में । ७. अह एत्तिओ हवई' दो सो (नाया० १११७॥३६॥२)-- इतना दोष होता
८. अह केरिसकं पुणाइ सच्चं तु भासियत्वं (पण्हावागरणाउ ७।१४)- तो किस
प्रकार से सत्य बोलना चाहिए ? इनके अतिरिक्त आचारांग सूत्र १।६।२।१८३; दशवकालिक सूत्र ५१२९६
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तुलसी प्रज्ञा
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