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सूत्र" में मिलता है ।
का मेल बिठाया । पार्श्वनाथ के समय में एक ओर आत्मविषयक चिंतन का ज्ञान यज्ञ चल रहा था तो दूसरी ओर यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ाकर देवों को प्रसन्न करने का आयोजन भी खुलकर होता था । पाखण्ड का बोलबाला था । अनेक प्रकार के तापस नाना रूप धारण करके विचित्र क्रियाओं में लीन रहते थे जिससे जनता को अपनी ओर आकृष्ट कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें । होत्रिय तापस अग्निहोत्र करते थे । कोत्रिय भूमि पर सोते थे । पौत्रिय वस्त्र पहनते थे । जझणई यज्ञ करते थे । दन्तुवन्ख लिय दांत पीस कर कच्चा अन्न खाते थे । मियनुद्धय जीव हत्या करते थे । इन सबका रोचक वर्णन श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ " उब्वाई शारीरिक तप को ही धर्म समझा जाता था । यज्ञ में पशु की बलि देना और इसे आधिदैविक मान्यता के आधार पर धर्म मानना । यह जन मानस को रुचिकर नहीं लगा । यही कारण था कि जब पार्श्वनाथ ने कमठ के जीव महिपाल तापस को पंचाग्नि तप करते समय लकड़ी में जलने वाले नाग-नागिन को बचाने के लिए कहा और निरपराध प्राणियों की हत्या न करने का उपदेश दिया तो अहिंसा का यह स्वरूप जन-मानस को बहुत पसन्द आया । पार्श्वनाथ ने कमठ से कहा - " धर्म का मूल दया है वह आग जलने में किस तरह संभव हो सकती है क्योंकि अग्नि प्रज्वलित करने से कई प्रकार के जीवों का विनाश होता है ।" ऋषियों-मुनियों की जो अहिंसा जन-जन तक पहुंचनी सम्भव नहीं थी उसे भगवान् पार्श्वनाथ ने सरलता से लोगों के पास पहुंचाया ।
स्वपीड़ा से मुक्ति
इसी समय निषेधात्मक अहिंसा का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है । पार्श्वनाथ के अनुसार दूसरों के प्राणों का धात न करना ही अहिंसा नहीं है अपितु स्वयं को पीड़ा देना भी हिंसा है । बिना आत्म साधना के किया गया तप मिथ्या तप है। पार्श्वनाथ के समय में हठयोग प्रवक्ताओं का विश्वास था कि कठिन तपस्या करने से उन्हें ऋद्धि-सिद्ध प्राप्त हो जाएगी । परन्तु हठयोग की धाराओं से शान्ति प्राप्त न हुई । ऐसी परिस्थिति में पार्श्वनाथ भगवान् ने कहा
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" सम्यग् ज्ञान रहित किया गया तप उसी प्रकार अनुत्पादक है जैसे अनाज की भूसी" । उन्होंने निरर्थक आत्म-पीड़ा को हिंसा माना और इस प्रकार के मिथ्या तप करने वाले तापसियों को संबोधन दिया । परिणामस्वरूप अहिंसा का सही स्वरूप प्रकट होने पर महीपाल तापस के ७०० शिष्यों ने पार्श्वनाथ के चरणों में आकर श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य समन्तभद्र ने भी "स्वयंभू स्तोत्र" की पार्श्वनाथ स्तुति में सात सौ तापसों द्वारा दिगम्बर दीक्षा लेने का उल्लेख किया है ।
२. विधेयात्मक अहिंसा
न पर पीड़ा देना और न ही स्व-पीड़ा देना यह अहिंसा का निषेधात्मक
खण्ड २३, अंक ३
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