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________________ साधना अहिंसा की साधना थी। उनके अनुसार अहिंसा का अर्थ केवल दूसरे के प्राणों का घात करना ही नहीं अपितु असत् प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करना ही अहिंसा था। अहिंसा के विकास का यह प्रथम वर्णन है जो प्राग ऐतिहासिक कहा जाता है। इतिहास के आलोक में-अहिंसा के विकास हेतु भगवान पार्श्वनाथ का योगदान उल्लेखनीय है । इनसे पूर्व भगवान् नेमीनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष के रूप में मान्य हैं जिन्होंने मूक प्राणियों की हत्या करना अधर्म माना था। भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता भगवान् पार्श्वनाथ का समय भगवान महावीर से २५० वर्ष पूर्व (८वीं/९वीं शती ई० पूर्व) का है । उनकी ऐतिहासिकता का निर्धारण साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर किया जाता है जिनमें जैन आगम-ऋषिभसित को प्राचीनतम साक्ष्य के रूप में माना जाता है। बोधायन धर्म सूत्र में और उपनिषदों में "पार्श्व", "निर्ग्रन्थ" जैसे शब्दों की चर्चा आई है। त्रिपिटक में निर्ग्रन्थों का उल्लेख अनेक स्थानों पर आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध से बहुत पहले निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय मौजूद था। भगवान् महावीर के माता-पिता भी पार्श्व-परम्परा के थे। डॉ. हर्मन जैकोबी जैसे पश्चिमी विद्वान् भी भगवान् पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं ।। अहिंसा के पहलू अहिंसा के मुख्यतः दो पहलू है १. निषेधात्मक अहिंसा और २. विधेयात्मक अहिंसा १.निषेधात्मक अहिंसा निषधात्मक अहिंसा का अर्थ है किसी के प्राणों का घात न करना, कष्ट न देना । जैन आगमों में हिंसा के निषेध के लिए बहुत कुछ लिखा गया है। प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।' अर्थात् किसी के मन को क्लेश पहुंचाना, शरीर को पीड़ा देना या प्राण हरण कर लेना हिंसा है। इसकी निवृत्ति ही अहिंसा है। भगवान् पार्श्वनाथ ने अहिंसा के स्वरूप को चातुर्याम संवरवाद धर्म के अन्तर्गत स्पष्ट किया है जो इस प्रकार सव्वातो पाणातिपातिवाओ वेरमणं एवं मुसावायाओ वेरमणं सव्वातो अदिन्नादाणवो वेरमणं सव्वातो बहिद्वादाणओ वेरमण' अर्थात् सभी प्रकार के प्राणघात से विरति, उसी प्रकार असत्य से विरति, सब प्रकार के अदत्तादान से विरति और सब प्रकार के परिग्रह से विरति । इन चार विरतियों को याम कहते हैं। इसमें हिंसा आदि चार पापों की विरति होती है। भगवान् पार्श्वनाथ ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन तीनों नियमों के साथ अहिंसा तुलसी प्रशा ३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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