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________________ 'अहिंसा के विकास में भगवान पार्श्वनाथ का योगदान 0 सुश्री वीणा जैन अहिंसा का विकास कहां से प्रारम्भ हुआ, इसका आदि बिन्दु क्या है ? यह ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणित करना मुश्किल है किन्तु यह कहना अकाट्य होगा कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन धर्म में मिलता है वैसा कहीं अन्यत्र नहीं मिलता । अहिंसा शाश्वत् और नित्य धर्म है। यह, अतीत में जितने भी अर्हत हुए हैं उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म है। यह सही है कि जितने भी महापुरुष अथवा तीर्थंकर हुए हैं उन्होंने अपने काल में व्याप्त विकृतियों को दूर करने के लिए धर्म के मौलिक सिद्धांतों को परिस्थितियों के अनुकूल उपदेशित किया और वे सिद्धान्त ही विकास के चरण बनते गए किंतु भगवान् ऋषभ से लेकर भगवान महावीर तक की अहिंसापरम्परा की यात्रा में पार्श्वनाथ के समय का पड़ाव अतीव महत्त्वपूर्ण है। विकास के चरण मानव समाज की आदिम योगलिक अवस्था में जनसंख्या कम थी और उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति उस समय में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों अर्थात् पेड़पौधों आदि से हो जाती थी। आज की भांति उस समय न कोई प्रतिस्पर्द्धा थी न भविष्य की आशंका और न ही कोई संग्रह की आकांक्षा थी। इन सबके अभाव से स्वभावतः उनमें कोई हिंसा की वृत्ति भी नहीं थी। परन्तु धीरे-धीरे युग-परिवर्तन के साथ-साथ जनसंख्या में वृद्धि हुई और प्राकृतिक वन संपदा उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति न कर सकी तो आपसी संघर्ष, होड़, छीना झपटी बढ़ी। परिणामतः सामान्य जीवन असुरक्षित एवं भयाक्रांत हो गया। जिसकी लाठी उसकी भैस' जैसी प्रवृत्ति ने हिंसा को प्रश्रय दिया। इसे रोकने के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन का क्रमशः विकास हुआ। नियम-विधान बने । हिंसा पर अहिंसा की प्रतिष्ठा न केवल सामाजिक स्तर पर बल्कि भावनात्मक स्तर पर श्रेष्ठ समझी जाने लगी और यह समझा जाने लगा कि हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह आदि सामाजिक गतिशीलता के बाधक तत्व हैं । यह भगवान् ऋषभ देव के समय का काल था। उस काल में ही अहिंसा पालने वाले समाज के दो रूप सामने आए । पूर्ण रूपेण .. अहिंसा स्वीकार करने वाले साधु-साध्वी तथा यथाशक्ति अहिंसा का पालन करने वाले.. श्रावक-श्राविका। आगमों में वर्णन मिलता है कि भगवान् ऋषभ की : तुलसी-प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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