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स्वरूप है। पार्श्वनाथ भगवान् ने अहिंसा के विकास में एक चरण आगे बढ़ाते हुए इसके विधेयात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया। इसके अन्तर्गत अहिंसा का अर्थ है सब जीवों के प्रति कारुण्य, दया भाव का होना। उनके अनुसार राग-द्वेष रहित होकर आत्म कल्याण की भावना रखना, विश्वबन्धुत्व चेतना को जागृत करना ही अहिंसा का विधेयात्मक पक्ष है। इसी भाव को अमृतचन्द्राचार्य ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति,
तेषामेवोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः । अर्थात रागादि भावों का प्रकट न होना ही अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्ति होना हिंसा होती है। पार्श्वनाथ भगवान् ने अहिंसा के इस पक्ष को अपने जीवन में व्यवहृत कर स्पष्ट किया। कमठ के जीव मेघमाली ने पार्श्वनाथ पर प्रतिशोध से प्रेरित होकर उपसर्ग किए या धरणेन्द्र पद्मावती ने भक्ति से प्रेरित होकर उनकी सहायता की, दोनों पार्श्वनाथ के लिए समान थे । न एक से द्वेष और न दूसरे से राग। यह अहिंसा के विकास की परिणति है । समता का दूसरा नाम भी अहिंसा है क्योंकि अहिंसा, हिंसा का त्याग नहीं, आत्म जागरण है । वह दुःख मुक्ति नहीं, आनन्द प्रतिष्ठा है। वह त्याग नहीं, उपलब्धि है। अहिंसा आचरण है। भगवान् महावीर ने भी कहा है कि जो स्वयं में स्थित है वह अहिंसा में स्थित
अहिंसा का प्रायोगिक स्वरूप
पार्श्वनाथ की अहिंसा प्रायोगिक धरातल पर आधारित थी। उन्होंने अहिंसा के सिद्धांत को किसी पर थोपा नहीं अपितु अपने जीवन में अहिंसा के सिद्धांत को फलित करते हुए हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत को अपनाया। यह अहिंसा का ही प्रभाव था कि जन्म-जन्मान्तरों से संचित क्रोध और वैर से ओतप्रोत कमठ का हृदय भी परिवर्तित हो गया और वह भगवान् के चरणों में आकर प्रायश्चित्त करने लगा।
पार्श्वनाथ के समय में हिंसा के प्रत्याख्यान का भी प्रचलन था। सूत्र कृतांग में उदक पेडालपुत्र नामक पार्श्वपत्य श्रमण की महावीर के गणधर गौतम से हुई चर्चा का उल्लेख मिलता है । इस चर्चा में उल्लेख है कि पार्श्वपत्यों में हिंसा आदि के प्रत्याख्यान की परम्परा थी। अहिंसा का दूरगामी प्रभाव
भगवान् पार्श्वनाथ ने अहिंसा आदि चातुर्याम धर्म की प्रतिष्ठा की, उसका प्रभाव अत्यन्त दूरगामी रहा। उनके बाद के धर्म संस्थापकों पर पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। उनमें आजीवक मत के संस्थापक गोशालक और बौद्ध मत के संस्थापक बुद्ध मुख्य हैं। बुद्ध के जीवन पर तो पार्श्वनाथ के चातुर्याम की गहरी छाप थी। वे प्रारम्भ में पापित्य अनगार पिहिताश्रव से दीक्षा लेकर जैन श्रमण भी बने थे। बौद्ध विद्वान् आचार्य धर्मानन्द कोसाम्बी ने
... तुलसी पज्ञा
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