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लिखा है-निर्ग्रन्थों के श्रावक "वप्प'' शाक्य के उल्लेख से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थों का चातुर्यास धर्म शाक्य देश में प्रचलित था। जिस अष्टांगिक मार्ग का आगे चलकर प्रतिपादन हुआ उसमें पार्श्व के चातुर्याम धर्म का समावेश हुआ प्रतीत होता है। बुद्ध के पूर्व की यह चातुर्याम परम्परा भगवान् पार्श्वनाथ की ही देन है । त्रिपिटक साहित्य में यही चातुर्याम मूलक उपदेश निगण्ठ ज्ञातपुत्र (महावीर) के साथ जोड़ा गया प्रतीत होता है। भगवान महावीर पार्श्व की परम्परा के हो उन्नायक थे । देश काल के अनुसार उन्होंने इस चातुर्याम मूलक धर्म को पंच महाव्रत धर्म में बदल दिया।
पार्श्वनाथ ने भारत के अनेक भागों में विहार करके अहिंसा का जो प्रचार किया उससे अनेक आर्य और अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हो गई। नाग, द्रविड़, आदि जातियों में उनका बहुत अधिक प्रभाव था। वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का वेद-विरोधी "व्रात्य'' के रूप में उल्लेख मिलता है। ये "व्रात्य" श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी थे।
आज भी बंगाल, बिहार, उड़ीसा में फैले सराकों, सदगोवों और रंगिया जाति के लोग पार्श्वनाथ की अहिंसा-परम्परा का निर्वहन करते हैं। वे मांस भक्षण नहीं करते और रात्रि भोजन नहीं करते। उनकी दृढ़ आस्था अहिंसा में है जबकि मांस भक्षण करना बलि देना इस भूभाग में आम बात है। उदयगिरि, खण्डगिरि, खाटवे आदि में पार्श्व-परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अहिंसा आत्मा का स्वभाव है। इसका समय की परिस्थितियों के अनुसार विकास हुआ है। जिसमें भगवान् पार्श्वनाथ का बहुमूल्य योगदान सुस्पष्ट है।
वण २३, बंक ३
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