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________________ कहा गया कि अध्यात्मविद्या पहले क्षत्रियों के पास थी; ब्राह्मणों ने इसे बाद में प्राप्त किया । ब्राह्मणों को आध्यात्मिक ज्ञान क्षत्रियों से ही उपलब्ध हुआ। यदि समस्त पूर्वाग्रहों का त्याग करके निष्पक्ष भाव से विचार किया जाए तो तो इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि जिस आध्यात्मिक ज्ञान की क्षात्र परम्परा का यहां उल्लेख किया गया है, वह निःसन्देह तीर्थंकरों की ही परम्परा थी, क्योंकि ऋषभ से लेकर महावीर तक सभी तीर्थंकर [जिनेश्वर क्षत्रिय थे। ब्राह्मण वर्ग के आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करने वाले उपनिषदों में क्षत्रिय जिनेश्वरों के आध्यात्मिक ज्ञान (अथवा जैन धर्म) की स्पष्ट झलक एवं अप्रतिम प्रभाव इस तथ्य को मूर्तस्वरूप प्रदान करता है । 'युक्तिप्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धि:'-- न्यायानुसार अब हम ऐसे अनेक प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे जिनके आधार पर अनायास ही अनुमान लगाया जा सकता है के उपनिषदों एवं जैन धर्म की आध्यात्मिक मान्यताओं में परस्पर कितनी घनिष्टता है । अन्य भारतीय दर्शनों के समान दोनों (उपनिषदों एवं जैन धर्म) में दुःखमुक्ति की स्वाभाविक अभिलाषा अथवा आत्मस्वरूप विषयक जिज्ञासा को प्रस्तुत किया गया है। मुण्डकोपनिषद् के एक प्रकरण में जिज्ञासा है---'हे भगवन् ! किसे जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है । इसी प्रकार का ही कुछ भाव केनोपनिषद् एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी अभिव्यक्त हुआ हैं । जैनागम के शिरोमणि आगमग्रंथ 'आचारांग' में भी इसी सहज जिज्ञासा का समाहार करते हुए कहा गया है कि-'मैं कोन हूं, मेरा स्वरूप क्या है ? मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा । मुमुक्षु आत्मा को जीव-अजीव अथवा आत्म-अनात्म का विवेक होने पर ही मोक्षोपलब्धि हो सकती है-- यह जैन धर्म का शाश्वत सिद्धांत है। 'दशवकालिक' में जैन धर्म की इस चिरन्तन मान्यता को प्रतिष्ठापित करके आध्यात्मिकानुभूति हेतु जन-जन को अनुप्राणित किया गया है । २० उपनिषदों में आध्यात्मिक साधना हेतु जिन अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, वैराग्य एवं तप आदि उच्च जीवन मूल्यों को अपरिहार्य स्वीकार किया गया है। उन्हीं (अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि) प्रशस्त मान्यताओं को जैन दर्शन ने भी समान रूप से महत्त्व प्रदान किया गया है ।२८ यदि यह कहा जाए कि 'अहिंसा जैन धर्म का प्राण तत्त्व है', तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । अहिंसा की गौरवगाथा को व्याख्यायित करते हुए 'अनागार धर्मामृत'२६ में कहा गया है--'अहिंसा सम्यग्दर्शन रूपी राजा की शक्तिरूप सम्पदा है; निर्मल ज्ञान रूपी चन्द्रमा का सारतत्त्व है ; समस्त व्रत रत्नों की खान है; समस्त क्लेशरूपी सों के लिए गरुड़ का आघात है; आनन्दरूपी अमृत का समुद्र है; अद्भुत गुणरूपी कल्प-वृक्षों की भोगभूमि है; लक्ष्मी के विलास के लिए घर है और यश की जन्मभूमि है।' अहिंसा के लिए प्रयुक्त हुए ये आठ विशेषण इस तथ्य को संपुष्ट करते हैं कि जैन धर्म रूपी महाप्रासाद अहिंसा की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। चन २३, अंक ३ २८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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