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________________ यहां यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भले ही उपनिषदों ने भी अहिंसा की सार्वभौमिकता को स्वीकार किया है, परन्तु जितनी सूक्ष्मता से जैन धर्म ने अहिंसा की गरिमा को प्रकाशित किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । भारतीय इतिहास में एक ऐसा अन्धकारमय युग भी आया जब परम्परा से प्रवर्तित वैदिक संस्कृति की महानताओं को पुरोहित कहे जाने वाले वर्ग ने सीमित एवं संकीर्ण करके अपने स्वार्थसाधन का माध्यम बना लिया । " यज्ञों में निर्दोष पशुओं की बलि दी जाने लगी । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' के नारे को बुलन्द करने वाले धर्मध्वंसियों ने खुलेआम कहना प्रारम्भ कर दिया कि 'यज्ञ में पशु हिंसा से पाप नहीं लगता है; तथा वेद में मांस भक्षण को निन्दनीय नहीं माना गया है।' वस्तुस्थिति यह है कि वेदों का आद्योपान्त अध्ययन करने पर कहीं भी ऐसा प्रकरण उपलब्ध नहीं होता जिससे यज्ञ में पशुहिंसा एवं मांस भक्षण की प्रवृत्ति का समर्थन होता हो ।" तथाकथित पुरोहित वर्ग ने यज्ञ में पशुहिंसा के विधान के साथ-साथ यज्ञीय कर्मकाण्ड को भी भोगपरायण बना दिया । यद्यपि उपनिषद् वेद विहित सिद्धांतों के समर्थक थे, परन्तु तथाकथित पुरोहित वर्ग की भोगवादी विचारधारा का उनमें डटकर विरोध किया गया है । इस दृष्टि से उपनिषद् जैन धर्म के अधिक निकट हैं, तथापि वे वैदिक मान्यताओं के प्रबल समर्थक भी हैं। " जैनधर्म की न्यायसंगत प्रवृत्तियों को आत्मसात् करके उपनिषदों ने अपनी समन्वयवादी दृष्टि को अनेक सन्दर्भों में रूपायित किया है ।" कहीं-कहीं पुरोहितों की खाने पीने की प्रवृत्ति को लेकर उनकी और उनके याज्ञिक क्रिया कलापों की कटु आलोचना की गई है। एक स्थान पर तो उन्हें कुत्तों की एक पंक्ति में खड़े जैसा दिखाया गया है; जहां लोलुपता - पूर्वक वे कहते हैं - 'ऊंदा मदा ३ मों ३ पिवाइ मों ३ देवो वरुण:' [ऊं मुझे खाने दो ऊं मुझे पीने दो, देव वरुण ]" । यज्ञीय कर्मकाण्ड से प्राप्त होने वाले नश्वर फलों की निन्दा करते हुए उपनिषदों में कहा गया है कि यज्ञयागादि विधान हमें पितृलोक में भले ही पहुंचा दे, परन्तु अन्तिम लक्ष्य की [ अर्थात् मोक्ष की ] संप्राप्ति यज्ञ से सम्भव नहीं है ।" उपनिषदों के अनेक स्थलों में यज्ञ को ज्ञानमय स्वरूप भी प्रदान किया गया है और समग्र जीवन को ही एक यज्ञ बनाने का आदेश दिया गया है ।" इस प्रकार उपनिषदों के चिन्तकों ने यज्ञों के बाह्य एवं पुरोहित वर्ग द्वारा धूमिल किए गए स्वरूप का निराकरण करके उन्हें एक आध्यात्मिक अर्थवत्ता प्रदान की और इसी विचार एवं विवेक प्रधान पद्धति [जैन तीर्थंकरों] एवं भगवान् बुद्ध ने भी अपनाया । " ACT अनेक जैन एवं अजैन विद्वानों ने अपने शोधात्मक अन्वेषण के आधार पर यह भी सिद्ध कर दिया है कि जैन धर्म का 'अनेकांतवाद' उपनिषदों में नानाविध रूपों में प्रतिबिम्बित हुआ है । इस विषय में सुविख्यात विद्वान् पं० बलदेव उपाध्याय का प्रवचनांश अवलोकनीय हैं " उपनिषदों में किसी एक ही मत के प्रतिपादन की बात [ एकांत ] ऐतिहासिक दृष्टि से नितांत य है, उनकी समता तो उस ज्ञान के मानसरोवर [ अनेकांतवाद ] से है जहां से भिन्न-भिन्न धार्मिक तथा दार्शनिक धाराएं निकलकर इस भारतभूमि को २८८ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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