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जैन समाज का भक्ति-संगीत
जन-जन एवं प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला जैन धर्म प्राचीन काल से आज तक अपना विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। जैन समाज मुख्यत: दिगम्बर एवं श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध है । दोनों ही सम्प्रदायों का साहित्य गद्य एवं पद्य रूप में प्रचुर मात्रा में है । प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त पाण्डुलिपियों की संख्या का अन्दाज लगाना ही कठिन है । पाण्डुलिपियां विविध विषयों की हैं। इनमें संगीत के ग्रन्थ भी हैं ।
जयचन्द्र शर्मा
कुछ वर्षों पूर्व चूरू नगर के बड़े उपाश्रय अढ़ाई हजार ग्रन्थों की सूची बनाने का कार्य सुराणा पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष को सौंपा गया था । मुझे बताया गया कि वहां कई महत्त्वपूर्ण संगीत ( म्यूजिक ) ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार बीकानेर में स्थित अगरचन्द जी नाहटा के ग्रन्थागार में भी विविध विषयों के हजारों ग्रन्थ हैं । जी ने मुझे अनेक बार कहा कि संगीत विषयक प्रतियां इनमें से छांट कर उन पर शोध कीजिये । समय बीतता गया । मैं उन ग्रन्थों को देख नहीं पाया। चूरू सभी ग्रन्थ पता नहीं कहां चले गये ? नाहटा - पुस्तकालय तक जाने के लिए अब शरीर साथ नहीं दे रहा है, जबकि मुझे इस दिशा में काम करने की विशेष रुचि पैदा हुई है ।
मैंने इस विषय पर कुछ लेख भी लिखे हैं । गीतों की प्रकाशित पुस्तकें देखी हैं और अनेक बार इन गीतों की धुनों को सुना है ।
ऐसे गीतों पर अन्य साधु-सन्तों, महात्माओं के गीतों की तरह "राग" शब्द अंकित हैं। “राग” के अतिरिक्त, देशी, ढाल, तर्ज, ढेर, लय आदि नाम भी पाये जाते हैं ।
प्रत्येक सम्प्रदाय के सन्त कवियों द्वारा विरचित गीतों पर अंकित " रागों" के नाम समान हैं । भले ही वे सन्त देश के किसी भी क्षेत्र अथवा समाज से सम्बन्धित रहे हों, जैसे – मीरां, नरसी, नामदेव, सूरदास, तुलसीदास, स्वामी हरिदास तथा पंजाब के सन्त आदि ।
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शब्द एवं संगीत दोनों की उत्पत्ति नाद से है। आहत नाद से शब्द एवं स्वर उत्पन्न होते हैं । अनाहत नाद ज्ञान गोचर माना गया है, जिसका सम्बन्ध योगियों एवं सन्त-महात्माओं से है ।
तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ३
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