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सन्त-कवियों के गीत शास्त्रीय रागों से सम्बन्धित हैं। उन रागों को गाने-बजाने के लिए विधिवत् शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। उनका प्रयोग जब संत-कवि करते हैं तो वे धुनें सरल-सुगम होती हैं। उनका अनुकरण, उनके भक्त भी आसानी से कर आनन्द प्राप्त करते हैं। उन गीतों की गायन-शैली में कलाबाजी नहीं होती, फिर भी राग के स्वर-ताल को निभाने की दृष्टि से स्वर-समुदाय एवं आरोहावरोह, कोमल, तीव्र विश्रान्ति स्वर, न्यास, उपन्यास आदि स्वरों का ज्ञान साधारण है। ऐसा होना आवश्यक है, अन्यथा गीत पर राग नाम देने मात्र से कोई लाभ नहीं।
____ अनेक गायक राग न होने पर किसी भी गीत को गलत नाम दे देते हैं। श्रोता समझते हैं कि गायक ने राग को निभाया है। इस विषय में अनेक प्रमाण मिलते हैं। यहां उनका उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं।
गीत और संगीत के विषय परिचित न होने से गीत के भावों के विपरीत भाव वाली धुनें एवं रागें सामने आती हैं । वे कवि के भावों को प्रकट करने में बाधक होती हैं। कवि की रचना भक्ति-रस में है और राग वीर-रस का मिलता है, उपदेशात्मक गीतों को वियोग शृंगार की धुन में गाया जाता है। ऐसी धुनें एवं रागें "गीत" के मल लक्ष्य को प्रकट करने में सही नहीं उतरतीं और वह गीत समय पाकर सिनेमा के गीतों की तरह अनेक गीतों के नीचे दब जाता है।
एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि सभी रागों का समय निश्चित है। समय पर गाने पर ही उनका प्रभाव श्रोताओं पर पड़ता है। जैन-सन्त कवियों के अनेक गीत ऐसे रागों पर हैं, जिनका समय रात्रि के द्वितीय प्रहर, तृतीय प्रहर एवं चतुर्थ प्रहर के रागों से सम्बन्धित है । उस समय संत गहरी निद्रा में होते हैं तथा उनका व्याख्यान (प्रवचन) देने का समय नहीं होता है। इस प्रकार उन गीतों को समय के विपरीत राग एवं धुनों में गाने का कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि गीत के भाव एक दूसरे के एकदम विपरीत होते हैं।
तेरापंथ-सम्प्रदाय की "ढाले" नामक गीत राजस्थानी लोक गीतों पर आधारित होती हैं । उनका प्रभाव श्रावकों पर पड़ता है ।
वर्तमान गीतों की 'लय' आधुनिक धुनों पर आधारित होने से वे भावोत्पत्ति करने में बाधक हैं । राजस्थानी लोक-गीतों-जो मांगलिक एवं धार्मिक एवं आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत हैं, उनकी धुनें प्राकृतिक संगीत से सम्बन्धित हैं।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए विचार बनता है कि गीत की शब्दावली के भावानुसार ही स्वर-लहरी एवं लय-ताल के भाव होने आवश्यक हैं। शब्द हृदय के भावों को उजागर करते हैं । स्वर भी हृदय में स्थित हैं, वे भावहीन नहीं हैं । दोनों का निवास स्थान हृदय है। फिर एक दूसरे के भाव विपरीत क्यों ? सन्तों ने शब्दों को प्रमुख माना और स्वर में अन्य व्यक्ति के कंठों को ग्रहण किया। वह व्यक्ति धार्मिक न होकर कलाबाजी पर जीवन व्यतीत कर रहा है।
ऐसी स्वर एवं लय विषयक शिकायत को दूर करने के लिए अपनी आत्मा को
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.. तुलसी प्रज्ञा
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