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समाधान की भाषा में भगवान् महावीर ने कहा-वीतरागता से वह स्नेह के अनुबन्धनों और तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता है तथा मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध से विरक्त हो जाता है। इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संकल्प और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थों-इन्द्रियविषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों में होने वाली तृष्णा क्षीण हो जाती है।
निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो ।
संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिव्वुए ॥५ ममकार से शून्य, निरहंकार, वीतराग और आश्रवों से रहित मुनि शाश्वत केवलज्ञान को प्राप्त कर परिनिवृत्त हो जाता है- सर्वथा आत्मस्थ हो जाता है।
___ गीता में वीतरागता का चित्रण स्वभाव के रूप में मिलता है। युद्ध से पराङ्मुख अर्जुन श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर स्वाभाविक स्थिति में स्थित हो जाता है। जैसा कि अर्जुन ने कहा- हे जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्यरूप को देख कर अब मैं स्थिरचित्त हो गया हूं। और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूं। स्वाभाविक स्थिति क्या है ? इसका विशेषण करते हुए गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है- इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है।" अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है। २. आत्मौपम्य या आत्मैक्यभाव
जो व्यक्ति समत्व के उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है उसके संबंध में आयारो में कहा गया है
तहिं तहिं सुयक्खायं से य सच्चे सुआहिए ।
सदा सच्चेण संपण्णे मेत्ति भूएसु कप्पए ।" मैत्री की भावना से भावित चित्त वाला ही प्राणी मात्र को आत्मतुल्य समझ सकता है । इसी को पुष्ट करते हुए आयारो में अन्यत्र भी कहा है
सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला।
अप्पियवहा पिय जीविणो जीविउकामा ॥ इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लेख मिलता है
अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए ।
समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे ॥१२ अर्थात् विश्व के शत्रु और मित्र सभी जीवों के प्रति समभाव रखना । गीता में भी आत्मौपम्य का वर्णन मिलता है
बंर २३, बंक ३
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