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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन: ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भांति सम्पूर्ण भूतों में समता देखता है। सुख और दुःख को भी सब में समान देखता है, वही योगी परम श्रेष्ठ माना जाता है । इस प्रकार स्थितप्रज्ञ अवस्था प्राप्त योगी ही लोक-कल्याण के लिए कर्म में सफलता प्राप्त कर सकता है।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निन्दात्मसंस्तुतिः ।। मानापमानयोस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भ परित्यागी गुणातीतः स उच्यते ।। जो व्यक्ति निरन्तर आत्मभाव में स्थित, सुख-दुःख को समान समझने वाला, मिट्टी-पत्थर और स्वर्ण में समान भाव रखने वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला हो तथा जो मान और अपमान में सम है, मित्र और शत्रु के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्त्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
उत्तराध्ययन सूत्र में भी गीता से मिलती-जुलती ही गाथाएं प्राप्त होती
हैं
लाभालाभे सुहे-दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ ।।५५ अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ।
वासीचंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥५६ इस प्रकार आत्मौपम्य भाव से भावित चित्त वाले व्यक्ति तटस्थ होकर मैत्री और करुणा की धारा से जन-जन को आप्लावित कर देते हैं । समत्व की निष्पत्ति
समत्व प्राप्त आत्मा जब समस्त कर्मों से मुक्त हो परमात्मभाव को प्राप्त कर लेती है तब सब शब्द वहां तक पहुंच कर लौट आते हैं । बह तर्क गम्य नहीं है, वहां तक कोई तर्क पहुंचता नहीं है ।" वह मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है । वह अकेला है-राग-द्वेष रहित है। वह अप्रतिष्ठान-शरीर मुक्त है। वह क्षेत्रज्ञ-ज्ञाता है।" वह न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिपण्डल है।"
वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न शुक्ल है । वह न सुगन्ध है और न दुर्गन्ध है । वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न मधुर है । वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न ऊष्ण है, न स्निग्ध है ओर न रूक्ष है । वह शरीरवान् नहीं है।" वह जन्मधर्मा नहीं है। वह लेप आसक्ति युक्त नहीं है ।" वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है।"
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तुलसी प्रज्ञा
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