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________________ वह परिज्ञ है, संज्ञ है— सर्वतः चैतन्यमय है ।" उसका बोध करने के लिए कोई उपमा नहीं है ।" वह अमूर्त अस्तित्व है । वह पदातीत है । कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न स्पर्श है । " आत्मा ही परमात्मा है | वह राग-द्वेष परमात्मा हो जाता है। जिसने आत्मा को साध लिया लिया । गीता ने उच्चतम अवस्था को ही आत्मानुभाव की अवस्था, ब्रह्मानुभव की अवस्था, त्रिगुणातीत अवस्था, परमात्मा की प्राप्ति की अवस्था तथा परम शान्ति की अवस्था कहा है । " " जो पुरुष अन्तरात्मा में सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त ज्ञानयोगी शान्तब्रह्म होता है ।" वह पाप रहित योगी निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनन्त आनन्द का अनुभव करता है ।" ७८ इस प्रकार जैन आगम और गीता में समत्व के स्वरूप में साम्य होते हुए भी सैद्धान्ति दृष्टि से वैषम्य भी है। गीता में परमात्म प्राप्ति के बाद आत्मा का स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं रहता । आत्मा अपने स्वरूप को परमात्मा में विलीन कर देता है । अतः गीता को एकात्मवाद मान्य है । वहां जैन आगमों में अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । अर्थात् हर आत्मा स्वतंत्र स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकती है । इसलिए जैन आगमों में अनेकान्तवाद का निरूपण है । आत्मा के स्वतंत्र रूप से परमात्म खण्ड २३, ३ उसका बोध करने के लिए गन्ध है, न रस है और न और शरीर से मुक्त होकर उसने विश्व को साध Jain Education International For Private & Personal Use Only २८१ www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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