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________________ सच तो यह है कि पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् किए गए कर्म ही व्यक्ति व समाज को सही दिशा प्रदान कर सकते हैं। गीता ने ऐसे व्यक्ति को 'कर्मयोगी' कहा अनासक्ति प्रश्न उठता है कर्मयोगी के कार्य करने की शैली क्या है ? समाधान की भाषा में गीता में कहा गया है त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृप्रत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।। जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभांति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। इसी की संपुष्टि करते हुए कहा है ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥3 जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति का त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल में कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता है। 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' में भी अनासक्त भाव का प्रकर्ष बताते हुए कहा गया है से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए।" वह मनुष्यों का चक्षु है जो आकांक्षा का अन्त करता है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी उल्लेख मिलता है---- भावे विरत्तो मणुओ विसागो एएण दुक्खोपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो जलेण व पोक्खरिणीपलासं ॥" भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। गीता में भी ऐसा ही कहा गया है जिसका मन अपने बश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता । २ वास्तव में समता की भूमिका में ही अनासक्ति फलीभूत होती है । समत्व को हम संक्षेप में दो रूपों में व्याख्यायित कर सकते हैं१. वीतरागता या स्व-स्वभाव प्रतिष्ठित और २. आत्मौपम्य या आत्मैक्यभाव । १. वीतरागता या स्व-स्वभाव में प्रतिष्ठित गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया वीयरागयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? २७८ ... तुलसी प्रना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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