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________________ जैन आगम एवं गीता में समत्व का स्वरूप समणी स्थितप्रज्ञा संसार में जितने भी दर्शन हैं, आचार-विचार की सरणियां हैं, आत्मविमर्श के अध्याय हैं, साधना की पद्धतियां हैं सबका एक ही लक्ष्य है--जीवन में समत्व को उपलब्ध करना। जैन आगम एवं गीता में समत्व के स्वरूप पर प्रभूत प्रकाश डाला गया है। आश्चर्यजनक रूप में दोनों समत्व के विवेचन में अत्यधिक साम्य है। समत्व की अवधारणा से सम्बद्ध अनेक शब्द दोनों में समान हैं। विभिन्न संदर्भो में समत्व के अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं ___ जैन आगमों में समत्व प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए आयावादी समियाए', अप्पादंतो', आयरक्खिए', अज्झप्पसंवुड्ढे', कसेहि अप्पाणं, जिणेज्ज अप्पाणं', सुसमाहि अप्पा', भाविअप्पा', अणण्णदंसी', अज्झप्परए", आयगुत्ता जिइंदिया", णिम्ममो णिरहंकारो'२, खंते", अकसाइ", अज्झत्थं शुद्ध, अणाउले", अणाइले", ठियप्पा", अत्तसमाहिए", समसुहदुक्खर' आदि शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। भगवान् महावीर समता के शास्ता थे । आयारो में भी कहा गया है-समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते' अर्थात् तीर्थङ्करों ने समता में धर्म कहा है। गीता में समत्व का अर्थ योग के संदर्भ में किया गया है-समत्वं योगमुच्यते ।२२ समत्व प्राप्त व्यक्ति के लिए गीता में अनन्यचेता, अध्यात्मचेतसा", अन्तराराम, आत्मरति, विशुद्धात्मा", शुचि२८, वीतभयक्रोध, निरहंकार", क्षमी", स्थिरमति३२, स्थितप्रज्ञ33, स्थितधी", समदुःख-सुख आदि शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। इस प्रकार जैन आगम और गीता दोनों में ही समत्व का अर्थ हैसमभाव । समता का एक अर्थ समानता किया जाता है। पर यह मूल अर्थ नहीं है। समता का अर्थ है आत्मा और आत्मा का अर्थ है समता । जो आत्मा है, वह सामायिक है और जो सामायिक है वह आत्मा है। आत्मा को स्वीकार किए बिना समता की स्थापना संभव नहीं है। यही एक ऐसा बिन्दु है जहां समता की बात की जा सकती है ।३६ समाज में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के साथ-साथ गीता हमारा ध्यान एक ऐसे आदर्श की ओर आकर्षित करती है जिसके अनुसार व्यक्ति को आत्मानुभव की सर्वोच्च ऊंचाइयों पर पहुंचने के पश्चात् भी लोक-कल्याण में लगा रहना चाहिए। वह आत्मानुभवी व्यक्ति लोक-कल्याण के कर्मों को न छोड़ें। गीता के अनुसार आत्मानुभव और लोक-कल्याण एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं । तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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