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________________ शिलालेख (ई० पू० दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में एक भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा "णमो' "अरिहंताणं' और 'णमो वड्ढमाणं' का सर्वथा अभाव है। यहां हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धत कर रहे हैं, जिनमें इन शब्दों का प्रयोग हुआ है :-ज्ञातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेख, संग्रह, भाग २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं :--- १. हाथीगुफा बिहार का शिलालेख --प्राकृत, जैन सम्राट खारवेल, मौर्यकाल १६५ वां वर्ष पृ० ४ लेख क्रमाक २–'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं" २. वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरी, बिहार-प्राकृत, मौर्यकाल १६५ वां वर्ष लगभग ई० पू० दूसरी शती पृ० ११ ले० क० 'अरहन्तपसादन' ३. मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके ८१ वर्ष का पृ० १२ क्रमांक ५ 'नम अहरतो वधमानस' ४. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ० फ्लीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई० पूर्व प्रथम शती का होना चाहिए पृ० १५ क्रमांक ८ -'अरहतो वर्धमानस्य' ६. मथुरा प्राकृत सम्भवतः १३-१४ ई० पू० प्रथमशती पृ० १५ लेख क्रमांक १०, 'मा अरहतपूजा' ७. मथुरा प्राकृत पृ० १७ क्रमांक १४ 'मा अहतानं श्रमण श्रविका' ८. मथुरा प्राकृत पृ० १७ क्रमांक १५ 'नमो अरहंतानं' ९. मथुरा प्राकृत पृ० १८ क्रमांक १६ 'नमो अरहतो महाविरस' १०. मथुरा, प्राकृत हुविष्क संवत ३९- हस्तिस्तम्भ पृ० ३४, क्रमांक ४३ 'अयर्यन रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये। ११. मथुरा प्राकृत भग्न वर्ष ९३ पृ० ४६ क्रमांक ६७ 'नमो अर्हतो महाविरस्य' १२. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं० ९८ पृ० ४७ क्रमांक ६० 'नमो अरहतो महावीरस्य' १३. मथुरा, प्राकृत पृ० ४८ क्रमांक ७१ 'नमो अरहंतानं सिहकस' १४. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ४८ क्रमांक ७२ 'नमो अरहंतान' १५. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ४८ क्रमांक ७३ 'नमो अरहंतान' १६. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ४८ क्रमांक ७५ 'अरहंतान वधमानस्य' १७. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ० ५१, क्रमांक ८० 'नमो अरहंतान'द्वन' शूरसेन प्रदेश, जहां से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहां के शिलालेखों में दूसरी, तीसरी शती तक णकार एवं "द श्रुति" के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् ई० पू० तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ खण्ड २३, अंक ३ ३३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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