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है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में हुआ है । दिगम्बर मान्य आगमों की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर अपनी विषय वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पांचवी शती के पूर्व की नहीं है।
___यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा की तीसरी चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बड़ली का अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं है। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रिय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। अतः उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही प्राचीन हैं, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी नमो अरहंतानं, नमो वधमानस आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ को तो प्राकृतविद्या में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है (प्राकृत विद्या, अक्टूबर-दिसम्बर ९४ पृ० १०-११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हई है। शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता
जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आचारांग आदि द्वादशांगी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेखित करती हैं, वे सभी मूलत: अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर-परम्परा में नन्दीसूत्र में उल्लेखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी टीकाओं में या तत्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लेखित आगम हों, अथवा अंगपण्णति एवं धवला के अंग और अंग बाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हां इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित सस्करण माथुरी वाचना के लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य आगमों के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और जिनका भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वे. मान्य आगमों में समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने "जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहां देख सकते हैं।
वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैं :अ. यापनीय आगम १. कषाय पाहुड लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर
तुलसी प्रज्ञा
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