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२.
खण्डागम, ईसा की पांचवी शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और भूत वली ३. भगवती आराधना, ईसा की छठी शती,
शिवार्य
४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, - वट्टकेर
ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थः मूलतः यापनीय परम्परा रहे हैं और इनमें अनेकों गाथाएं श्वे० मान्य आगमों, विशेष रूप से निर्युक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं |
ब. कुन्दकुन्द, ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ :
५. समयसार
६. नियमसार
७. प्रवचनसार
८. पच्चास्तिकायसार
९. अष्टपाहुड ( इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध हैं, क्योंकि इनकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द हैं) ।
स. अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् :
१०. तिलोय पण्णति -- यतिवृषभ
११. लोकविभाग
१२. जंबुद्वीप पण ति
१३. अंगपण्णति
१४. क्षपणसार
१५. गोम्मटसार (दसवीं शती)
इनमें से कसा पाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है, जो पांचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पांचवी शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है | श्वेताम्बर आगमों में समवायांग और आवश्यकनिर्युक्ति की दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि षटखण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इसकी चर्चा पायी जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र - मूल और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएं गुणस्थान की विस्तृत चर्चाएं प्रस्तुत करती हैं । उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है । अतः यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धान्त पांचवी शती में अस्तित्व में आया है । अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पांचवी शती के पूर्व का नहीं है । प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टतः गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है, अतः वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं,
खंड-२३, अंक - ३
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