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________________ जिनका उल्लेख आचारांगनिर्युक्ति और तत्वार्थसूत्र में हैं, से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमणकाल की रचना है, अतः उसका काल भी चौथी से पांचवी शती के बीच सिद्ध होता है । शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला जाता है कि यह क्योंकि इन दोनों शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया नारायण कृष्ण और तीर्थंकर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, महापुरुषों का जन्म शूरसेन में हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक्व्यवहार करते थे । डॉ० सुदीपजी के शब्दों में " इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव से शूरसेन जनपद में जन्गी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावृत में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था ।" ( प्राकृतविद्या - जुलाई - सितम्बर ९६, पृ० ६ ) यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें तो प्रश्न उठता है अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, यही नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या में जन्मे थे । यह सभी क्षेत्र तो मगध का ही निकटवर्ती क्षेत्र है, अतः इनकी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीपजी के अनुसार यदि शौरसेनी, अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अतः शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन ही है । यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलने थे किन्तु ईसा की चौथी, पांचवी शती से पूर्व का कोई भी जैन ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध क्यों नहीं होता है ? पुनः नाटकों में भी भास के समय से अर्थात् ईसा की दूसरी शती से ही शौरसेनी के प्रयोग ( वाक्यांश) उपलब्ध होते हैं । नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रता पूर्वक पूछना चाहूंगा कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का है ? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दे, जो अर्धमागधी आगमों और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल आदि के अभिलेखों से प्राचीन हो । अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें हाल की गाथासप्तशती लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से प्राचीन है । पुन: मैं डॉ० सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहूंगा, वे प्राकृतविद्या, जुलाई सितम्बर ९६ लिखते हैं कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में है, जिससे 'मागधी' आदि प्राकृतों का जन्म हुआ । इस सम्बन्ध में मेरा उनसे ३३८ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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