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________________ प्रयोग होता है । ३. शौरसेनी "द " श्रुतिप्रधान हैं साथ हो उसमें "लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अत: उसके क्रिया रूप "हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि, कुत्तदि, परिणमदि, दि, पस्सदि आदि बनते हैं, इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता हैसमयसार, वर्णी ग्रन्थमाला (वाराणसी) - जाण (१०), हवई (११, ३२५, ३८४, ३८६), मुणइ (३२), बुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१,२८६, ३१९, ३२१,३२५, ३४०), परिणमइ ( ७६,७९, ८० ), ( ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७,७८,७९ में परिणमदि रूप भी मिलता है) इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप जैसे वेयई (८४), कुणई ( ७१,९६, २८९,२९३,३२२,३२६), होइ (९४, १९७,३०६, ३४२, ३५८), करेई ( ९४, २३७,२३८, ३२८,३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२९), जाणई (१८५, ३१६, ३१९,३२०,३६१), बहइ (१८९), सेवई (१९७), मरइ ( २५७,२९० ), ( जबकि गाथा २५८ में मरदि है), पावइ ( २९१, २९२ ), घिप्पर (२९६), उप्पज्जइ ( ३०८ ), विणस्सइ ( ३१२,३४५), दीसइ (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं । ऐसे अनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं । न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की भी यही स्थिति है । बारहवीं शती में रचित वरानन्दीकृत श्रावकाचार ( भारतीय ज्ञानपाठ - संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर हैं, उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में ४०% क्रिया रूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं । इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उन पर महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीपजी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहां से आता ? प्रो० ए० एम० उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टत: यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो० खडबडी ने तो षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है । 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीपजी, आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार दोनों पाये जाते हैं । किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमी के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था । "ण" की अपेक्षा न का प्रयोग प्राचीन है । ई० पू० तृतीय शती के अभिलेख अशोक एवं ई० द्वितीय शती के खारवेल के शिलालेख से लेकर मथुरा के ३३४ तुलसी प्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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