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________________ अन्य अर्थ के रूप में आचार्य शंकर ने 'अथ' को मङ्गलसूचक भी द्योतित किया है यथा"अर्थान्तरप्रयुक्तः अथ शब्द: श्रुत्या मङ्गलमाचरयति अथ निर्वचनम् ।" (शंकर भाष्य १।१।१) अनन्तरसूचक अर्थ ___ महर्षि कणाद, महर्षि जैमिनि तथा महर्षि बादरायण ने अपने-अपने सूत्र ग्रन्थों-(वैशेषिक सूत्र, मीमांसा सूत्र, ब्रह्मसूत्र) का सूत्रपात भी 'अथ' शब्द से किया अथातो धर्म व्याख्यास्यामः (वैशेषिक सूत्र १११।१) अथातो धर्म जिज्ञासा (मीमांसा सूत्र १११) अथातो ब्रह्म जिज्ञासा (ब्रह्म सूत्र ।।१।१) अथ -- शिष्यप्रश्नानन्तरम् अत:--श्रवणादिकुशलानां अनसूचकानाञ्च शिष्याणामुपसन्नेन धर्म व्याख्यास्यामः---तेभ्यो ज्ञानजनकं धर्म निरूपयिष्यामः । इस प्रकार अपनी उपस्कार टीका में शंकरमिश्र ने स्पष्टत: अंकित किया है कि शिष्य की आकांक्षा के अनन्तर ही धर्म की व्याख्या करना यहां अभीष्ट है । यहां 'अथ' शब्द अनन्तर का ही सूचक माना गया है । ___ इसी प्रकार 'अथातो धर्म जिज्ञासा' सूत्र में 'अथ' अनन्तर अर्थ का वाचक है यथा 'अथ- वेदाध्ययन अनन्तरम् अत:-वेदाध्ययनस्यार्थज्ञानरूप दष्टफलकत्वेन धर्मजिज्ञासा----धर्म विचार कर्त्तव्यः' अर्थात् बेदअध्ययन के पश्चात् इसके ज्ञान रूप दृष्ट फल की उपलब्धि हेतु धर्म की विवेचना और विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है। इसी तरह अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' सूत्र में भी आनन्तर्य का बोध होता है. अथ के द्वारा। यथा-'अथसाधनचतुष्टयसम्पत्त्यनन्तरम् अत:--यज्ञादिकर्मणोऽनित्यफलकत्वेन ब्रह्मजिज्ञासा ब्रह्मविचार कर्त्तव्यः' अर्थात् साधनचतुष्टय - १. नित्यानित्यवस्तुविवेक, २. एहामुत्रार्थफलभोगविराग, ३. शम, दम आदि षट् साधन एवं ४. मुमुक्षत्व की प्राप्ति के अनन्तर यज्ञ आदि कर्म अनित्य फल प्रदाता होने से (निष्फल होने के कारण) अब ब्रह्म का विचार-विमर्श करना चाहिए। उपनिषद् वाडमय में अथ शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में किया गया है। अतः हम उन्हीं से प्रमुखतः उदाहरण लेकर अपने मन्तव्य की पुष्टि करेंगे। अनन्तर अर्थ के उदाहरण केन, प्रश्न, छन्दोग्य एवं वृहदारण्यक उपनिषदों में प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त होते हैं यथा--- अथाध्यात्म यदेतदभच्छतीव च मनोऽनेनन चैतदुपस्मरत्यभीक्षणं संकल्पः । -केन उप० ४।५ यहां चतर्थ खण्ड के प्रथम चार मंत्रों में इन्द्र, अग्नि, वायु देव आधिदैविक शक्तियों से ब्रह्म श्रेष्ठ है यह संकेत देने के पश्चात् अगले पांचवें मंत्र से आध्यात्मिक शक्तियों से भी ब्रहा की श्रेष्टता ज्ञापित की गयी है। यहां अथ अनन्त र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । प्रश्न उपनिषद में तो कबन्धी कात्यायन (१।३) भार्गव वैदभि (२।१) खण्ड २३, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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