SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कौशल्य आश्वलायन (३१२) सौर्यायिणी गार्ग्य (४११) शैक्य सत्यकाम (५॥१) एवं सुकेशा भारद्वाज (७।१) अपने-अपने प्रश्न एक के बाद एक महर्षि पिप्पलाद के सम्मुख रखते हैं। यथा ---अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य प्रपच्छ । अथ हेनं भार्गवो......."अथ हेनं कौशल्य........ अथ हैनं सौर्यायिणी.....अथ हैनं शैव्य० अथ हैनं सुके शा०". इति । छान्दोग्य उपनिषद् में देव और असुर दोनों प्रजापति की संतान घोषित की गयी हैं । इनमें से जब देवों ने ॐ प्रणव का जप कर जब यह सोचा कि अब हम इसके सम्बल पर असुरों पर विजय प्राप्त कर लेंगे तब असुरों ने एक के पश्चात् एक नासिका, वाक, नेत्र, श्रोत्र, मन और प्राण जहां-जहां से निर्गत होकर उद्गीथ उपासना संभव थी उसको दुषित कर दिया। यथा--"अथ ह वाच मुद्गीथमुवासांचक्रिरे .............." अथ ह य एवायं मुख्य: प्राणस्तमुदगीथमुपासांचक्रिरे । (२१३-७) यहां भी सभी मंत्रों में अथ अनन्तर अर्थ को द्योतित करता है । इस उपनिषद् में अन्यत्र भी कई मंत्रों में अथ शब्द का प्रयोग अनन्तर अर्थ में किया गया है (१।११।१,४; ४।५।१; ५।१३।१) बृहदारण्यक के विभिन्न मंत्रों में भी ऐसा ही प्रयोग हुआ है यथा --- अथ हैन मनुष्या ऊचुर्ब्रवीतु....... ......"अथ हैनमसुरा ऊचुर्ब्रवीत..............." (५।२।२-३) प्रजापति के पास जव देवता, मनुष्य और असुर जाते हैं तब उन्होंने एक के अनन्तर एक तीनों को 'द' अक्षर का उपदेश दिया जो तीनों के लिए क्रमशः दमन, दान और दया का परिचायक था। इसके पूर्व भी प्रथम अध्याय के तृतीय भाग के तीसरे से लेकर सातवें मंत्र में अथ शब्द अनन्तर अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसी तरह रघुवंश में “अथ प्रजानाधिपः प्रभाते वनाय धेनुं मुमोच" (२।१) इसकी आवृत्ति हुई है । प्रश्नार्थ सूचक प्रश्न आरम्भ करते हुए या पूछते हुए भी अथ शब्द का प्रयोग बहुधा प्रश्नवाचक शब्द के साथ हुआ है । प्रश्न उपनिषद् में महर्षि पिप्पलाद से प्रश्न करते हुए छः ऋषिकुमारों के प्रश्न इस संदर्भ में भी परिगणित किये जा सकते है जिनकी चर्चा हम उपर्युक्त स्थल में कर चुके हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में आरूणि पुत्र श्वेतकेतु जब पाञ्चाल नरेश जैर्बाल प्रवाहण की सभा में जाकर अपने पिता से सारी विद्याएं सीख लेने की बात करता है तब राजा उससे पांच प्रश्न करते हैं। इसी प्रसंग में मंत्र ५।३।४ में अथ शब्द का उपयोग प्रश्न अर्थ में किया गया हैं --'अथानु किमनुशिष्टोऽवोचथा'........। इसी प्रकार पञ्चम प्रपाठक के कैकेयराज अश्वपति तथा उपमन्युवंशी प्राचीनशाल, पुलुषवंशी सत्यप्रज्ञ, मल्लववंशी इन्द्रध्युम्न, शर्कराक्षवंशी जन, आश्वतरास्की वंशी बुडिल आदि श्रोत्रिय गृहस्थ पण्डितगण और महर्षि उद्दालक के वैश्वानर ब्रह्म के सम्बन्ध में जो वाद-विमर्श हुआ है उसमें भी मंत्र ५।१३।१, ५।१४।१, ५॥१५॥१, ५।१६।१, ५।१७।१, में अथ प्रश्नार्थक अर्थ में विवेचित किया गया है। इसी प्रकार बहदारण्यक उपनिषद् के मंत्रों-३।३।१, ३।४।२, ३।५।१, ३।६।१, ३७।१, ३।८।१, ३।९।१ एवं ३।९।२७ में भी इसी अर्थ की प्रतिध्वनि हुई है । शकुन्तला नाटक में भी इसकी प्रतिच्छवि मिलती है-'अथ सा तत्र भवती ३१८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy