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________________ शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई । इस प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी 'प्राकृत प्रकाश' के आधार पर यह भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न हुई । क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार ? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृति: शौरसेनी' के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी 'प्रकृति: संस्कृतम् - प्राकृत प्रकाश १२।२' के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है । वे स्वयं लिखते हैं "आज जितने भी प्राकृत व्याकरण शास्त्र उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित हैं । अतएव उनमें 'प्रकृतिः संस्कृतम्' जैसे प्रयोग देखकर कतिपयजन ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृत भाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई ऐसा अर्थ कदापि नहीं है, प्राकृत विद्या, जुलाई - सितम्बर ९६, पृ० १४ । भाई सुदीप जी जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप प्रकृति का आधार / मॉडल करे और जब मागधी का प्रश्न आये तब आप 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई ऐसा करेयह दोहरा मापदण्ड क्यों ? यह केवल शौरसेनी को प्राचीन और मागधी को अर्वाचीन बताने के लिये । वस्तुतः प्राकृत और संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन है ? संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है । प्राकृत शब्दों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है। जिसे संस्कारित न किया गया हो वह संस्कृत कैसे होगी ? वस्तुतः प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है । इस दृष्टि से प्राकृत मूलभाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है । हेमचन्द्र के पूर्व मिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है । वे लिखते हैं सकल जगज्जन्तुनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सेव वा प्राकृतम् । आरिसवयणे सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम् - वालमहिलादि सुबोधं सकल भाषा निबन्धनभूत वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरुपं तदेव च देशविशेषात् संस्कार करणात् च समासादित विशेषं सत् संस्कृतातुत्तर भेदोनाप्नोति । काव्यालंकार टीका, नमिसाधु २।१२ अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि संस्कार से रहित सहज वचन व्यापार है उससे निःसृत भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि के लिये भी सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से ( प्राक् + कृत) सभी भाषाओं की रचना का आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है उसी का देश प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत और उसके विभिन्न भेद अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं । सत्य यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और संस्कृत उनका ३४२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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