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________________ साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी । शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का नहीं है-जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई० पू० तीसरी-चौथी शती में निर्मित हो चुके थे। 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थ ___ जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से परवर्ती एवं उसी से विकसित मानते हैं वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृत प्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२ वीं शताब्दी) के प्राकृत व्याकरण के निम्न सूत्रों को बताते अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी (१०।२१) अस्याः पैशाच्या: प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची-लक्षणं प्रवर्तत्तितव्यम् । २. प्रकृतिः शौरसेनी (११।२१) अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । -वररुचिकृत 'प्राकृतप्रकाश' ब. १. शेष शौरसेनीवत् (८।४।३०२) मागध्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छोरसेनीवद् द्रष्टव्यम् । २. शेष शौरसेनीवत् (८।४।३२३) पैशाच्यां यदुक्तं, ततो अन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । ३. शेष शौरसेनीवत् (८।४।४४६) अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति । अपभ्रंशभाषायां प्रायः शौरसेनीभाषातुल्य कार्य जायते; शौरसेनी-भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते । -हेमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण' । अतः इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। यदि हम यहां प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित होता है कि मागधी या. पैशाची का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भुत मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई . गयी है यथा-"शौरसेनी–१२।१ टीका-शूरसेनानां भाषा शौरसेनी साच लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते इति वेदितव्यम् । अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेद समाप्तेः १२॥१ प्रकृति: संस्कृतम्-१२।२ टीका-शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् ॥-प्राकृत प्रकाश (१२।२)" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि कर-२३, मंक-1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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