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उबलते दूध में इन मांगलिक चिह्नों की आकृतियों के बनने की बात कही गयी है— तस्मिन् खल्वपि क्षीर श्रीवत्सस्वस्तिकनन्द्यावर्त पद्मवर्द्धमानादीनि मंगल्यानि संदृश्यते स्म ।" महावस्तु', महाव्युत्पत्ति' तथा अर्थविनश्चयसूत्रनिबन्धन' में महापुरुषलक्षणों के रूप में गिनाए गए ३२ व्यंजनों अथवा अनुव्यंजनों में इन मंगल-चिह्नों की गणना है।
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ब्राह्मण धर्मावलम्बी तथा कतिपय अन्य ग्रंथों में भी मांगलिक द्रव्यों की सूचियां मिलती हैं । विष्णुस्मृति में भी अष्टमंगलों की गणना है । वे हैं पूर्णकुम्भ, आदर्श (दर्पण), छत्र, ध्वज, पताका, श्रीवृक्ष ( श्रीवत्स) वर्द्धमान और नन्द्यावर्त ।" महाभारत के द्रोणपर्व में कहा गया है कि राजदरबार में जाने से पहले धर्मराज युधिष्ठिर अनेक मांगलिक द्रव्यों के दर्शन किया करते थे जिनमें स्वस्तिक, वर्द्धमान, नन्द्यावर्त, माला, जलकुम्भ, ज्वलित हुताशन (अग्नि), पूर्णअक्षतपात्र, रुचक (हार), रोचना (तिलक की सामग्री), कन्या, दधि सर्पि (घृत), मधु, मंगलपक्षी आदि सम्मिलित थे ।" सुश्रुतसूत्रस्थान शुभ शकुन के रूप में इन मांगलिक चिह्नों का उल्लेख पाया जाता है - 'स्त्रीपुत्रिणी सवत्सागो वर्द्धमानं अलंकृता कन्या मत्स्याः फलं चामं स्वस्तिकान् मोदका: दधि:' अर्थात् सपूती माता, बछड़े सहित गाय, वर्द्धमान, सजी-संवरी कन्या, मीन- मिथुन, फल, चामर, स्वस्तिक, लड्डू, दधि आदि का दर्शन मांगलिक है । " बृहत्संहिता में राजा और राज्य के लाभ और हानि के सूचक इन मांगलिक चिह्नों को हाथी के कटे हुए दांत की रक्त शिराओं से बनने वाली आकृतियों के रूप में देखा गया है ।
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साहित्यिक सन्दर्भों के अनुरूप इन मांगलिक चिह्नों का अंकन जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्मानुयायी कलाकृतियों तथा कतिपय लौकिक वस्तुओं अथवा उपयोगी उपकरणों पर भी पाया गया है । परन्तु प्रस्तुत आलेख में केवल उनके सामूहिक अंकनों की चर्चा ही अभिप्रेत है जिनमें उनका अष्टमांगलिक स्वरूप प्रतिबिम्बित हुआ हो ।
अष्टमंगल चिह्नों का सामूहिक अंकन जितना जैन कला में मुखर है, उतना संभवतः अन्यत्र नहीं । मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त जैन आयागपट्टों पर इनका सामूहिक अंकन प्राचीनतम ठहराया जा सकता है । इन आयागपट्टों का निर्माणकाल प्रथम तथा द्वितीय शती ई० माना गया है । स्व० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह का विचार था कि औपपातिकसूत्र ५ के पुहुमी या पुढवी शिलापट्ट ( पृथिवी शिलापट्ट ) मथुरा आयागपट्टों का पूर्व रूप रहे होंगे जो ग्रामीण लोकदेवताओं, यक्षों और नागों की पूजा के निमित्त पवित्र वृक्ष - चैत्यों के नीचे किसी लघुपीठिका पर रखे जाते होंगे और जिन पर भक्तगण फल-फूल आदि पूजा सामग्री चढ़ाते होंगे ।"
मथुरा से मिले कतिपय आयागपट्टों पर केवल मांगलिक प्रतीक उकेरे गए हैं। और कुछ पर इन प्रतीकों के बीच केन्द्र में तीर्थंकर की आसनस्थ प्रतिमा भी उकेरी गयी है । यह तथ्य इस बात का संकेत करता है कि संभवत: तीर्थंकर की प्रतिमा के इस प्राथमिक अंकन से पहले जैन धर्मानुयायी केवल आयागपट्टों पर उत्कीर्ण मांगलिक
खण्ड २३, अंक ३
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