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भारतीय कला-समीक्षक और भारतीय संस्कृति के विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि ये मांगलिक प्रतीक प्रारम्भ में सार्वजनीन थे। समाज के सभी वर्गों और समुदायों के लोग इन चिह्नों का मांगलिक उपयोग करते थे। कालान्तर में जैन, बौद्ध, ब्राह्मण आदि विभिन्न धर्मावलम्बियों ने इन प्रतीकों में सन्निहित मांगलिकता और दार्शनिकता के कारण इन्हें अपना लिया और इनका उपयोग अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार किया। मूलतः ये मांगलिक चिह्न किसी भी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से सम्बन्धित न होकर सार्वजनिक थे और सर्वसाधारण में लोकप्रिय थे।
___ एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि मांगलिक प्रतीकों या चिह्नों का उल्लेख सभी धर्मों के ग्रंथों में तथा कतिपय लौकिक ग्रंथों में पाया अवश्य जाता है, परन्तु इन्हें 'अष्टमंगल' एकाध अपवादों को छोड़कर प्रायः जैन ग्रंथों में ही कहा गया है। इसलिए संख्या में कम या अधिक होने पर भी इन्हें 'अष्टमांगलिक चिह्न' कहने की परिपाटी का आधार निःसन्देह जैन ग्रंथ हैं। यह भी महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है कि केवल जैन धर्मावलम्बियों में ही 'अष्टमंगलों' की यह परम्परा आज तक चली आ रही है। वे इन्हें संपूज्य मानते हैं और इन्हें प्रायः मन्दिरों में अंकित भी करते हैं।
मांगलिक चिह्नों या प्रतीकों की संख्या बहुत बड़ी है। स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, मत्स्ययुग्म, दर्पण, कलश, आसन या भद्रासन, पद्म, माला, अंकुश, छत्र, चामर, ध्वज, वैजयन्ती, अक्षतपात्र, मोदकपात्र, रत्नपात्र, चन्द्र, सूर्य, वृक्ष, मधु, दधि, वृषभ, गज, सिंह, अश्व आदि-आदि मंगलचिह्नों में से कुछ न कुछ चिह्न जैन, बौद्ध अथवा ब्राह्मण धर्मावलम्बी ग्रंथों की किसी न किसी सूची में परिगणित किए गए हैं। इन्हीं में से प्रायः किन्हीं आठ चिह्नों का समुच्चय या समूह 'अष्टमांगलिक चिह्न' की संज्ञा से प्रतिष्ठित हो गया था। आगे चलकर मांगलिक प्रतीकों की सामूहिक संख्या आठ के स्थान पर उससे कम या अधिक होने पर भी उन्हें प्रायः अष्टमंगल कहने की परम्परा रूढ़ हो गयी।
जैन धर्मावलम्बी ग्रंथों-औपपातिकसूत्र ३१, रायपसेणियसुत्त (कण्डिका ६६) तथा आचारदिनकर (२।४-११) में अष्टमंगलों की सूचियों में समानरूप से जिन आठ मांगलिक चिह्नों का उल्लेख मिलता है वे हैं - स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, भद्रासन, कलश, दर्पण और मत्स्ययुग्म । लगभग इसी प्रकार की अष्टमंगलों की गणना प्रवचनसारोद्धार, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र, उत्तराध्ययनसूत्र, अभिधानचिन्तामणि, तिलोयपण्णत्ति (२।२२-६२) और समवायांगसूत्र में भी की गई है। ___ इसी प्रकार बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर, महावस्तु (२।२८६), महाव्युत्पत्ति (३४८) और अर्थविनिश्चयसूत्र निबन्धन (३०८।५) में भी इन मांगलिक प्रतीकों की गणना है। ललितविस्तर में सिद्धार्थ के केशवेश के स्वरूपों में इन चिह्नों का उल्लेख हैश्रीवत्सस्वस्तिकनन्द्यावर्तवर्द्धमान संस्थानकेशश्च महाराज: सर्वार्थसिद्धिः कुमारः ।' इसी ग्रंथ में अन्यत्र सुजाता द्वारा तथागत के लिए पायस पकाने का वर्णन है जहां पर
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....... तलसी प्रज्ञा
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